गुजरात चुनाव : यह भाजपा की जीत नहीं, कांग्रेस के लिए राहत है

गुजरात चुनाव : यह भाजपा की जीत नहीं, कांग्रेस के लिए राहत है

Update: 2017-12-20 12:03 GMT

गुजरात में भाजपा जीत गयी और कांग्रेस हार गयी लेकिन गुजरात के चुनाव का परिणाम को कई चश्मे से देखने की जरुरत है. मसलन अगर आप गंभीरता से गुजरात चुनाव को फ़ॉलो कर रहे थे तो भाजपा का जीतना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है न ही कांग्रेस का हारना. गुजरात चुनाव में बहुत सारी चीजें पहले की तरह हैं तो कई नयी तरह की संवृत्तियों का उभर भी साफ़-साफ़ दिखने लगा है. भाजपा के लिए कई तरह की चुनौतियाँ अब दिखने लगी हैं तो कई राहतें कांग्रेस के लिए हैं.

भाजपा की नीतियों और उसके विचारधारा का सबसे बड़ा गढ़ गुजरात रहा है. अपने मूल में गाँधी का गुजरात मोदी के गुजरात तब्दील भी हुआ है. गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का एक लम्बा इतिहास रहा है. 1969,1985 और भाजपा के शासनकाल में 1992 और 2002 में बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए और 1981 और 1985 में आरक्षण के खिलाफ भाजपा के नेतृत्व में आन्दोलन भी हुए. यानि गुजरात भाजपा की एक सफल प्रयोगशाला रहा है.

1990 के चुनाव की बात करें तो भाजपा कांग्रेस से चार फीसदी से पीछे थी लेकिन उसके बाद भाजपा ने चिमनभाई पटेल के सहारे जनता दल से बड़े पैमाने पर जनता दल से वोट शिफ्ट करवा लिया और भाजपा का वोट प्रतिशत 26.7 फीसदी से 42.5 हो गया. 1990 से 2002 तक भाजपा का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ा है और 2007 और 2012 में भाजपा का वोट फीसदी कम हुआ लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत 1990 से अब लगातार बढ़ा है. अगर सांप्रदायिक हिंसा के बाद हुए 2002 के चुनाव को अपवाद मान लिया जाये. इस चुनाव में भाजपा को 49.1 और 41.4 फीसदी कांग्रेस को वोट मिला, दोनों पार्टियों के मत प्रतिशत में आंशिक इजाफ़ा हुआ है.

सीटों के आंकड़ों की कहानी की शुरुआत अगर 1990 से किया जाये तो भाजपा को 67 सीट मिली थी मगर 1995 के चुनाव में भाजपा 121 सीट मिली. भाजपा के सीटों में 1995 से लगभग दस सीट का उतार-चढ़ाव रहा है. सबसे ज्यादा सीट 2002 में भाजपा को 127 सीट मिली. कांग्रेस के लिए सांस लेने जैसी बात रही है वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है अगर 2002 के चुनाव को अपवाद के तौर पर माना जाये.

 


आकड़ों की कहानियां बिलकुल साफ़ होती हैं लेकिन इसकी बुनावट काफी जटिल होती है जो राजनीतिक-सामाजिक इतिहास की बुनियाद पर खड़ी होती है. गुजरात के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक इतिहास की कड़ियों को समझे बिना हम आंकड़ों के संजाल को नहीं समझ सकते हैं.

आज़ादी से पहले गुजरात बम्बई प्रेसीडेंसी का हिस्सा था और 1960 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर गुजरात का जन्म एक राज्य के बतौर हुआ. मध्यकाल से ही गुजरात अपने व्यापारिक चरित्र की वजह से जाना जाता रहा है और अपने हिंदुत्व की छवि के तौर पर भी, मसलन गौहत्या. मध्यकाल में ही गुजरात सांप्रदायिक हिंसा की जद में चला गया था. आज़ादी की लड़ाई में यह गाँधी की कर्मस्थली ज़रूर रहा पर आज़ादी के बाद यहाँ के लोगों ने कांग्रेस में दक्षिणपंथी रुझान वाले सरदार पटेल को अपनी पहचान से जोड़कर देखना पसंद किया न कि गाँधी को. यानि गुजरात पटेल का ज्यादा और गाँधी का कम रहा है. अस्सी के दशक में यह संवृत्ति और मजबूत भी इस वजह से हुई कि कांग्रेस का राजनीतिक समीकरण पटेलों के खिलाफ रहा. कांग्रेस के नेतृत्व ने जो राजनीतिक समीकरण गढ़ा उसे ‘खाम’ के नाम जाना जाता है जिसमें क्षत्रिय, दलित और मुसलमान शामिल थे. भाजपा ने इसका लाभ उठाया और पटेलों को लेकर आरक्षण विरोधी आन्दोलन शुरू कर दिया. 1985 में गुजरात फिर से सांप्रदायिक हिंसा में जलने लगा जिसका लाभ भी जाहिर तौर पर बीजेपी को मिला.

भाजपा की सबसे बड़ी ताकत संघ परिवार है जिसके आनुषंगिक संगठन कई स्तर पर काम करते हैं. पटेलों को अपने खेमे लेने के लिए वैष्णवपंथ के स्वामीनारायण संप्रदाय का बखूबी प्रयोग हुआ. इससे न सिर्फ भाजपा ने पटेलों को अपने तरफ शामिल किया बल्कि पटेलों के एहसास-ए-कमतरी को भी दूर किया कि वे शूद्र हैं. वस्तुतः गुजरात में पटेलों को भाजपा ने कट्टर हिन्दू बनाया. इसके बाद 1992 और 2002 में गुजरात में सांप्रदायिक नरसंहार हुए, फर्जी मुठभेड़ में निर्दोष मारे गए और लगातार कांग्रेस की छवि मुस्लिमों हितों वाली पार्टी के बतौर प्रचारित किया जाता रहा पर सच्चाई यह है कि गुजरात में लगातार मुसलमान हाशिये पर धकेले जाते रहे. नौ फीसदी की आबादी को अपनी तरफ करने की जहमत किसी ने नहीं उठाई.

गुजरात में एक कहावत कही जाती है कि पटेलों का कोई पटेल नहीं होता है यानि पटेलों का नेता कोई एक व्यक्ति नहीं हो सकता है. गुजरात के इस चुनाव को राजनीति में इसलिए याद किया जायेगा कि इस चुनाव में दलित–पटेल और ठाकुर जाति के हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवानी जैसे युवा नेतृत्व उभर कर सामने आये. ठाकुर जाति से आने वाले अल्पेश सबसे पहले कांग्रेस में चले गए और उसके ही सिम्बल से चुनाव भी जीते हैं. अल्पेश का कांग्रेस में जाना बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि सामान्यतया गुजरात में कांग्रेस को ठाकुरों की ही पार्टी मानी जाती है. इस तिकड़ी में महत्वपूर्ण रहे हैं- हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी.

चुनाव परिणाम पटेलों को दो वर्गों में बाँट दिया है– शहरी और ग्रामीण. शहर के पटेल तो नाराज थे पर उन्होंने साफ़ कर दिया कि अभी वो गद्दार नहीं हैं यानि उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता भाजपा में बनाये रखा है. चुनाव के ठीक पहले अहमदाबाद में हुई हार्दिक पटेल की रैली से लग रहा था कि भाजपा को नुकसान होगा पर ऐसा नहीं हुआ, पर ग्रामीण पटेल समुदाय का झुकाव कांग्रेस की तरफ रहा है.

उना के दलित आन्दोलन से उभरे जिग्नेश मेवानी ने ‘’गाय की पूंछ तुम रखो हमको हमारी जमीन दो’’ के नारे से आन्दोलन शुरू किया और चुनाव से ठीक पहले वडगाम आरक्षित सीट से स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनावी मैदान में आ गए. जिग्नेश के अपील पर कांग्रेस पार्टी ने कोई उम्मीदवार नही उतारा शायद कांग्रेस को उम्मीद थी दलित वोट इससे उसकी तरफ आ जायेगा.

(अनिल कुमार यादव गिरि विकास संस्थान लखनऊ में कार्यरत है और चुनावी राजनीति के अध्येता हैं( (MediaVigil)

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