नीतीश ने जो बड़ी चीज गंवाई है, वह है ‘सुशासन बाबू’ की छवि

नीतीश ने जो बड़ी चीज गंवाई है, वह है ‘सुशासन बाबू’ की छवि;

Update: 2018-04-03 15:00 GMT

जनता दल यूनाइटेड के सुप्रीमो और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गत वर्ष जुलाई में अपने उन दिनों के ‘बड़े भाई’ लालू यादव के समूचे परिवार के { जिसके सदस्यों में उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी शामिल थे} ‘व्यापक भ्रष्टाचार’ के बहाने उनके राष्ट्रीय जनता दल और साथ ही कांग्रेस से महागठबंधन तोड़ा और भाजपा से दोबारा गलबहियां करने चले, तो उसके ऐन पहले तक प्रेक्षकों में आमराय थी कि उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं-मतलब, रास्ता साफ और ‘सारे विकल्प’ खुले हुए। यही कारण था कि नीतीश ने यों पाला बदलने के विरुद्ध अपनी पार्टी के शरद यादव व अली अनवर जैसे दिग्गज नेताओं की बगावत की परवाह भी नहीं की थी।

तब शायद ही किसी को इल्म रहा हो कि वे जो भाजपाई लड़डू इस विश्वास के साथ खा रहे हैं कि उनके लिए उसका स्वाद ‘पुराना और जाना-पहचाना’ है, वह जल्दी ही वर्जित फल में बदलकर उनके मुंह का जायका खराब करने लगेगा। इतना ही नहीं, दुश्वारियों के जंगल में ले जाकर ऐसी दलदली भूमि पर खड़ा कर देगा, जहां से पीछे लौटने की राहें तो पहले से ही बन्द होंगी, आगे जाने की सहूलियत भी नहीं होगी। एक ओर कुंआ होगा, दूसरी ओर खाई और बचाने के लिए सिर्फ मुख्यमंत्री पद होगा जबकि गंवाने के लिए अपनी राजनीति की सारी कमाई!

यकीनन, अब ऐसे ही मोड़ पर आ खड़े हुए हैं। राज्य के एक के बाद एक नौ जिलों में हुए दंगों में उन्होंने जो सबसे बड़ी चीज गंवाई है, वह है उनकी ‘सुशासन बाबू’ की छवि। 1989 में हुए भागलपुर के कुख्यात दंगे के बाद से बिहार दंगों या साम्प्रदायिक हिंसा के लिहाज से कमोबेस सुकून में था। वहां नीतीश की सरकार रही हो या लालू-राबड़ी की, सौहार्द बना रहा था। यहां तक कि 1990 में लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोके और 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद भी माहौल नहीं बिगड़ा था।

लेकिन इस बार के दंगों में जिस तरह नीतीश सरकार की गुटों में विभाजित घटक भाजपा के एक गुट की भूमिका सामने आयी, जिसमें और तो और केन्द्रीयमंत्री अश्विनी कुमार चौबे के बेटे अर्जित शास्वत तक शामिल हैं और नीतीश ने जिस तरह उनसे निपटने में खुद को लाचार अनुभव किया, वह अभूतपूर्व है। इस कारण और कि नीतीश की लाचारी ने उन्हें अपने गृह जिले नालंदा को भी हिंसा से नहीं बचाने दिया।

दरअस्ल, भागलपुर के दंगों में ‘आगे-आगे’ चलकर उपद्रवियों का नेतृत्व करने वाले अर्जित शास्वत नये तेजस्वी यादव बन गये { दोनों की ही मूल पहचान नीतीश के सहयोगी दल के नेता के बेटे की है} तो कहते हैं कि नीतीश किंकर्तव्यविमूढ़-से हो गये। इस कारण अ्िरम जमानत अर्जी खारिज और वारंट जारी होने के बाद भी अर्जित पटना की सड़कों पर जुलूस में शामिल होकर मीडिया को इंटरव्यू देते रहे और पुलिस उन्हें हाथ लगाने की हिम्मत नहीं कर पाई। उनके पिता अश्विनी चैबे राज्य के दूसरे केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के साथ खुलकर उनका बचाव करते नीतीश सरकार की भद पिटवाते रहे। इससे विपक्ष को ‘सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का’ जैसी कहावत याद दिलाने का मौका मिला और उसने कहा कि अर्जित की जेब में तो भारत सरकार भी है और नीतीश सरकार भी!

यह तब था जब नीतीश कानून व्यवस्था को लेकर कोई समझौता न करने का एलान करते नहीं थक रहे थे। जब तक वे अर्जित को गिरफ्तार करवाते, जितना भी नुकसान होना था, हो चुका था और डैमेजकंट्रोल की कोई गुंजायश नहीं बची थी। वह आगे भी नहीं बचने वाली क्योंकि अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के युग से आगे निकल आयी नरेन्द्र मोदी व अमित शाह की भाजपा 22 मार्च को बिहार दिवस पर पटना के गांधी मैदान में उनके द्वारा ‘हाथ जोड़कर’ की गयी यह कातर प्रार्थना भी सुनने को तैयार नहीं कि न झगड़ा लगाने वालों के जाल में फंसे और न किसी कां फंसाये।

साफ कहें तो मोदी व शाह की जोड़ी ने अपने बिहार के कार्यकर्ताओं को यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है कि नीतीश के वे दिन हवा हो चुके, जब वे जरा-सी बात को लेकर भाजपा नेताओं को दिया गया भोज रद्द कर उन्हें अपमानित करने पर उतर आतेे थे। भाजपा के लिहाज से यह जताना जरूरी भी था, क्योंकि राज्य में जो हालात हैं, उनमें नीतीश को पीछे किये बिना वह ‘तीसरी’ होने का कलंक शायद ही धो सके। चूंकि आगे का रास्ता उसे नीतीश की पार्टी की संभावनाओं के पार जाकर ही तय करना है इसलिए वह नीतीश को ‘अपने झुंड से बिछड़े बंदर’ जैसा बना डालने में कुछ भी उठा नहीं रख रही। उसकी सुविधा यह है कि अब उसके पास उनसे बड़े बड़े राजनीतिक बाजीगर हंै।

याद कीजिए, भाजपा से दूसरे रास के बाद से पहले नीतीश प्रधानमंत्री पद के विपक्ष के संभावित प्रत्याशी थे यानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विकल्प। सो, भाजपा के बिहार के नेताओं की तो उनकी निगाह में कोई हैसियत ही नहीं थी और वे नरेन्द्र मोदी तक को नहीं सटियाते थे। लेकिन अब ऐसे दुर्दिन हैं कि वे उन्हीं की दया पर निर्भर हैं। पहले प्रेक्षक कहते थे कि चतुर नरेन्द्र मोदी नीतीश को 2019 के लोकसभा चुनाव में भरपूर इस्तेमाल कर अपना निष्कंटक राज सुनिश्चित करने के बाद किनारे लगायेंगे, लेकिन अब लगता है कि मोदी पहले ही इसकी शुरुआत कर चके हैं। तभी तो गत वर्ष सितम्बर में हुए केन्द्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में उन्होंने नीतीश के जदयू को पूछा तक नहीं, हालांकि उसने उसमें शामिल होने वाले अपने नेताओं के नाम तक तय कर लिये थे। उस वक्त भाजपा के राज्य के नेता अपनी खुशी छिपा नहीं पाये थे। उनका मानना था कि ऐसा करके मोदी ने यह संदेश दिया कि अब नीतीश नई भाजपा के साथ डील कर रहे हैं, जहां वे नहीं, कार्यकर्ता और पार्टी सर्वोपरि हैं।

अब जानकार कहते हैं कि बिहार में जो कुछ हो रहा है, वह 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी है। नीतीश इसमें भाजपा व राजद दोनों से पिछड़ रहे हैं क्योंकि अपनी दो बड़ी गलतियों की फांस में हैं। पहली और सबसे बड़ी यह कि बार-बार पाले बदलते हुए उन्होंने समझ लिया था कि राजनीतिक अवसरवाद की सुविधाएं उन्हें हमेशा मुफ्त मिला करेंगी, जबकि यह सम्भव ही नहीं था। इसीलिए पहले राजद ने उनसे कीमत वसूलनी चाही और उन्होंने वह नहीं चुकाई तो अब भाजपा वसूल रही है-खुल्लमखुल्ला। याद रखना चाहिए कि लालू ने भी नीतीश को गले लगाकर बड़ा नहीं किया छोटा भाई ही बनाया था। हां, विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी के दूसरे नम्बर पर आने के बाद भी ‘कृपापूर्वक’ मुख्यमंत्री बना दिया था। अब भाजपा की कृपा से वे लालू के जेल में और उनके पूरे परिवार के भ्रष्टाचार के शिकंजे में फंसे होने के बावजूद राज्य की अररिया लोकसभा व दो विधानसभा सीटों के उपचुनाव में राजद का विजय रथ नहीं रोक पाये। कारण यह कि उनका शराबबंदी का नशा भी, कहते हैं कि राज्य के दलितों-पिछड़ों, अल्पसंख्यकों व गरीबों पर भारी पड़ रहा है और वे उनसे बुरी तरह नाराज हैं।

नीतीश ने दूसरी गलती पहले राजद और अब भाजपा जैसे ‘दुश्मनों’ को दोस्त बनाते वक्त अपेक्षित सतर्कता न बरत कर की। इसीलिए दुहूं भांति उर दारुण दाहूं या कि सांप छदूदर की गति को प्राप्त हो गये हैं और उनकी भविष्य की राजनीति पर सवाल खड़े हो रहे हैं, जबकि दूर की सोच रही भाजपा उनके कहने से न कानून का सम्मान करने को तैयार है, न गठबंधन धर्म का पालन करने को। प्रेक्षकों की मानें तो गुजरात के वक्त से ही वह साम्प्रदायिक हिंसा व दंगों का लाभ उठाने में सिद्धहस्त है, जबकि दूसरी पार्टियां इस खेल में उसकी जितनी पारंगत नहीं हैं। नीतीश की पार्टी भी नहीं। सो, भाजपा आगे उसका क्या हाल करती है, देखना दिलचस्प होगा।
 

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