क्या कहता है कर्नाटक का जनादेश?

क्या कहता है कर्नाटक का जनादेश?

Update: 2018-05-17 14:02 GMT

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गत 29 अप्रैल को राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित ‘जनाक्रोश रैली’ में बेहद आत्मविश्वासपूर्वक कहा था-अब आगे विधानसभाओं या लोकसभा के जो भी चुनाव होंगे, उनमें कांग्रेस ही जीतेगी, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनता का भरोसा एकदम से तोड़ डाला है। जैसे तब प्रेक्षक इसको लेकर एकराय नहीं थे कि उनका यह आत्मविश्वास देश की जमीनी राजनीतिक सच्चाइयों से जन्मा है या कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने के उद्देश्य से वे सायास उसका प्रदर्शन कर रहे हैं, वैसे ही अब कर्नाटक के मतदाताओं ने राज्य से कांग्रेस की बेदखली का हुक्म देकर भले ही उनके कथन के पहले हिस्से को गलत सिद्ध कर दिया, दूसरे हिस्से के प्रति बेदर्द होने से मना कर दिया है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस करिश्मे के प्रति भी बहुत उत्साह नहीं ही प्रदर्शित किया, जिसके बूते भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह दावा कर रहे थे कि वे राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से 150 जीत लेंगे और उनके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार येद्दियुरप्पा को गुमान हो रहा था कि वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद का ताज 15 मई को ही अपने सिर पर सजा लेंगे।

अब जब मतदाताओं ने उन्हें 150 सीटें देने को कौन कहे, बहुमत का जादुई अंक 113 भी नसीब नहीं होने दिया है, उनके ऐसे ‘कद्रदानों’ को छोड़ दें जो भाजपा की जीत के शुरुआती रुझान नजर आते ही पटाखे फोड़ने और कहने लगे थे कि प्रधानमंत्री ने वाकई कांग्रेस को ‘पीपीपी’ बना दिया, तो निष्पक्ष विश्लेषकों को ऐसी चुनावी नजीरें तलाशना मुश्किल हो रहा है, जिनमें मतदाताओं ने राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी की बेतरह धुलाई की हो, मगर केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति अपना मन साफ न किया हो।

प्रसंगवश, इस चुनाव में भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव में उसे हासिल हुए जनसमर्थन से आगे बढ़ने के मन्सूबों में खोई हुई थी। तब उसे राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से 19 यानी आधी से बहुत अधिक सीटें हासिल हुई थीं, लेकिन इस बार वह आधी से भी कम विस सीटें पर सिमट गई। यह उसके लिए इस अर्थ में लज्जाजनक है कि वह नरेन्द्र मोदी जैसे करिश्माई नेता के बगैर भी राज्य की सत्ता हासिल और संचालित कर चुकी है। इस कारण वहां उसका पुराना आधार भी है। इस बार वह मोदी मैजिक के बावजूद अभूतपूर्व बढ़त नहीं पा सकी तो यह सवाल तो पूछा ही जायेगा कि क्या मोदी का करिश्मा अब चुकने नहीं लगा है?

यहां इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि लोकतंत्र में जीत का कोई विकल्प नहीं होता, और जैसा कि एक विश्लेषक ने लिखा भी है, ‘विनर टेक्स ऑल’ के तहत मान लिया जाता है कि जीतने वाले ने ‘सब सही’ और हारने वाले ने जरूर ‘कुछ गलत’ किया, लेकिन कर्नाटक ने इस जनादेश ने सच पूछिये तो देश की सत्ता की प्रतिद्वंद्विता में शामिल दोनों बड़ी पार्टियों के समक्ष आत्मावलोकन की बड़ी जरूरत पैदा कर दी है। यह और बात है कि हमारी राजनीति जिस तरह विचारधाराओं, नीतियों, सिद्धांतों और उसूलों से दूर हो चली है, उसमें ऐसे आत्मावलोकनों की कोई उम्मीद या सूरत कतई नहीं दिखती। अभी तो इसके उलट परदे के पीछे के घटनाक्रमों से ‘हर हाल में अपनी सरकार’ बनाने के लिए खरीद-फरोख्त व पालाबदल का बाजार गर्म होने के अंदेशे पैर फैलाए हुए हैं। ऐसे में डर लगता है कि नरेन्द्र मोदी के ‘करिश्मे’ को हर तथ्य व तर्क पर भारी बताने वाला कोई ‘विश्लेषक’ किसी दिन यह कहने लगे कि कर्नाटक की जनता ने हमें सबसे बड़ी पार्टी बनाकर मान लिया है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सचमुच जनरल थिमैया व फील्डमार्शल करियप्पा का अपमान किया था और जेल में बंद सरदार भगत सिंह से मिलने नहीं गये थे। यह भी कि कर्नाटक की जनता ने सोनिया के इस कथन से नाराजगी जता दी है कि नरेन्द्र मोदी के भाषणों से पेट नहीं भरता।

हर हाल में ‘कर्नाटक फतह’ के लिए प्रधानमंत्री ने जिस तरह झूठों और धमकियों का सहारा ले अपनी विश्वसनीयता तक को नये सिरे से दांव पर लगा दिया था, नेपाल जाकर विदेशनीति के साथ हिन्दुत्व का घालमेल करने से भी नहीं चूक थे, इमोशनल अत्याचार के लिए ‘सीता माता’ के मायके जनकपुर से ससुराल अयोध्या तक मैत्री बस का एलान किया था, साथ ही उनके लोग अलीगढ़ मुस्लिम विवि छात्रसंघ भवन में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर के बहाने कर्नाटकवासियों को उनके जैसे ही ‘संदेश’ भेज रहे थे और कांग्रेस की ओर से उनका जिस शैली में जवाब दिया गया था, उससे नतीजे आने के पूर्व ही कई हलकों में पूछा जाने लगा था कि कुछ भी न बचा जब शेष अंत में जाकर, विजयी होगा संतुष्ट तत्व क्या पाकर? यह सवाल अभी तक अनसुना और अनुत्तरित है।

तिस पर भूमंडलीकरण के पिछले ढाई दशकों में इतना ही नहीं हुआ है कि देश को प्रबंधन के तर्क से चलाया जाने लगा है। चुनाव भी अब प्रबंधन के ही तर्क से लड़े और जीते जाते हैं। इस लिहाज से भाजपा ने गुजरात में अपनी सरकार बचाकर और कर्नाटक में कांग्रेस को बेदखल कराकर जो सबसे बड़ी चीज सिद्ध की है, वह यही कि उसका चुनाव प्रचार व प्रबंधन कांग्रेस से कई गुना बेहतर है। वह उससे बेहतर जानती है कि चुनाव कैसे लड़े और जीते जाते हैं। आज हालत यह है कि कांग्रेस को देश और ज्यादातर राज्यों से अपदस्थ करने में सफल हो जाने के बावजूद वह उससे अपना नीतिगत अलगाव नहीं सिद्ध कर पा रही, तो कांग्रेस उसकी चुनाव प्रबंधन की महारत का तोड़ नहीं ढूढ़ पा रही। जब भी कोई चुनाव आता है, भाजपा, जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वह राजनीतिक फंट है, उसका व उसके आनुषंगिक संगठनों का मिला जुला चुनाव प्रबंधन तंत्र सक्रिय हो जाता है और अपने शुभचिंतक मीडिया की मार्फत सारी बहसों को अपनी जमीन पर खींच लाता है।

कांग्रेस इस स्थिति को खत्म किये बिना भाजपा से पार नहीं पा सकती। भले ही अपनी इस हार का गम कम करने के लिए याद कर सकती हो कि कर्नाटक की जनता ने 1988 के बाद से किसी भी पार्टी को लगातार दो बार सत्ता में नहीं आने दिया है। इतना ही नहीं, देश में 2014 के बाद से जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं, अधिकतर में सत्ताधारी पार्टियां हारी हैं।

हां, इस जनादेश को 2019 के लोकसभा चुनावों की संभावनाओं के आकलन के लिए भी इस्तेमाल किया ही जायेगा। चंूकि यह दो टूक नहीं है, इसलिए इसके आधार पर ‘मोदी की लोकप्रियता अब एकदम से घट गयी’, ‘दक्षिण भारत उत्तर भारत से अलग है’ और ‘राहुल अब पूरी तरह निखर गये हैं’ जैसे निष्कर्षों को दूर तक ले जाना संभव नहीं होगा। हां, 2019 के लिए विपक्षी एकता की जरूरत अब पहले से ज्यादा महसूस की जायेगी क्योंकि साफ हो चुका है कि कर्नाटक में जद (एस), जो शुरू से ही खुद को किंगमेकर बताता रहा था, और कांग्रेस के बीच एका से नतीजे कुछ और हो सकते थे। इसके बावजूद कर्नाटक के मतदाताओं का संदेश यही है कि अब न भाजपा अपराजेय है, न ही नरेन्द्र मोदी की आखिरी पलों में नतीजे पलट देने की शक्ति ही सुरक्षित है। लेकिन कांग्रेस को उसके कब्जे वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को लेकर किसी गफलत में नहीं रहना चाहिए।

इसलिए कि अपने प्रतिद्वंद्वियों की भ्रष्टताओं का लाभ वह उन ‘अपनों’ के कारण नहीं ले पाती जिनकी करनी से वह क्रासपार्टी मुद्दा हो गया है, जबकि देश के मतदाता कई बार जता चुके हैं कि कोई भाजपा से डराकर उनपर लदा नहीं रह सकता और वे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किसी पार्टी की बदगुमानियों के पोषण के लिए नहीं बने। जिसे भी उनका विश्वास चाहिए हो उसे उनकी कसौटी पर खरा उतरना होगा।
 

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