कर्नाटक की गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में

कर्नाटक की गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में

Update: 2018-05-17 17:31 GMT

तमाम नाटकीय उतार-चढ़ावों के बीच बीजेपी के नेता बीएस येदियुरप्पा ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण कर ली है। आने वाले दिनों में वे विधानसभा में अपनी पार्टी का बहुमत साबित कर पाएंगे, ये वक्त बतलाएगा। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई 18 मई को भी जारी रहेगी, जिसमें अदालत यह तय करेगी कि बीएस येदियुरप्पा को कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए पहले बुलाने का राज्यपाल वजुभाई वाला का फैसला, सही है या गलत। विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के लिए बीजेपी को जो इतना लंबा समय दिया गया है, वह कितना सही है ? 15 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही बीजेपी और कांग्रेस एवं जेडीएस सभी सरकार बनाने के दावे कर रहे हैं। जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी ने राज्यपाल से मुलाकात कर, उन्होंने अपने साथ 117 विधायकों का समर्थन होने का दावा किया था, तो बीजेपी जिसके पास सिर्फ 104 सीटें हैं, वह भी अपने पास बहुमत होने की बात कर रही है। प्रदेश की 224 सदस्यीय विधानसभा में 222 सीटों पर हुए चुनाव में बीजेपी को 104, कांग्रेस को 78 और जेडीएस़ को 38 एवं निर्दलीय को 2 सीटें मिली हैं। फिलहाल, बहुमत के लिए जादुई आंकड़ा 112 है, जो कि किसी भी पार्टी को अकेले हासिल नहीं है। त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में राज्यपाल की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी को जो बहुमत के आंकड़े से आठ सीट पीछे है, पहले बुलाया और पन्द्रह दिन के अंदर बहुमत साबित करने को कहा।

राज्यपाल की तरफ से येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता मिलने के बाद कांग्रेस और जेडीएस ने देर रात सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अदालत से गुहार लगाई कि जेडीएस ने राज्यपाल से सरकार बनाने के लिए मिलने का वक्त मांगा था और 115 विधायकों के समर्थन की चिट्ठी भी दी थी, लेकिन राज्यपाल ने उन्हें न्योता न देकर बीजेपी को सरकार बनाने के लिए बुलाया है। लिहाजा शपथ ग्रहण समारोह पर पर रोक लगायी जानी चाहिए या इसे स्थगित किया जाना चाहिए। अपनी इस याचिका में कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन का इल्जाम है कि बीजेपी ने सरकार बनाने के लिए ऐसे किसी बहुमत के आंकड़े वाली चिट्ठी राज्यपाल को नहीं दी है और अगर ऐसी कोई चिट्ठी दी है, तो वो दिखाए। बहरहाल मामले की गंभीरता को समझते हुए शीर्ष अदालत ने आधी रात को मामले की सुनवाई शुरू की। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद न्यायमूर्ति एके सीकरी, न्यायमूर्ति एसके बोबडे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की विशेष पीठ ने कहा कि न्यायालय, बी एस येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण समारोह पर रोक लगाने के संबंध में कोई आदेश नहीं दे रहा है। अगर वह शपथ लेते हैं, तो यह प्रक्रिया न्यायालय के समक्ष इस मामले के अंतिम फैसले का विषय होगा। विशेष पीठ ने केंद्र को येदियुरप्पा द्वारा प्रदेश के राज्यपाल वजुभाई वाला के समक्ष सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए भेजे गए दो पत्र अदालत में पेश करने का आदेश देते हुए कहा कि मामले का फैसला करने के लिए उनका अवलोकन आवश्यक है। इसके साथ ही अदालत ने कनार्टक सरकार तथा येदियुरप्पा को नोटिस जारी करते हुए इस पर जवाब मांगा है और मामले की सुनवाई के लिए 18 मई की तारीख नियत कर दी है।

हमारे संविधान में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की नियुक्ति के बारे में कहा गया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल उनकी नियुक्ति करेंगे। राज्यपाल को फैसला लेने में अपने विवेक और विशेषाधिकार का इस्तेमाल करने की पूरी छूट है। राज्यपाल को ऐसे व्यक्ति में विश्वास करना होता है जिसे सदन में बहुमत मिलने की संभावना है। ऐसे में राज्यपाल अपनी समझ के अनुसार बहुमत हासिल करने के लिए किसी को बुला सकता है। जहां तक बात सबसे बड़े दल को न्यौता देने की है, तो संविधान में इसका कहीं उल्लेख नहीं है। संविधान में सिर्फ इतना उल्लेख है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेंगे। सिर्फ बड़े दल को ही न्यौता दिया गया है, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। कभी सबसे बड़े दल को मौका दिया गया है, तो कभी सबसे बड़े गठबंधन को मौका दिया गया है। कई बार छोटे दलों को भी मौका दिया गया है। परंपरा यह रही है कि राज्यपाल त्रिशंकु विधानसभा होने की स्थिति में सबसे बड़े दल या चुनाव पूर्व बने सबसे बड़े गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता देते हैं। अगर चुनाव के बाद कोई दो दल मिलकर ये कहें कि उनके पास बहुमत है, तो ऐेसे में राज्यपाल के पास कोई विशेषाधिकार नहीं रह जाता है कि वो बहुमत का दावा करने वाली पार्टी को छोड़कर उस पार्टी के पास जाएं, जो कि सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।

कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस के पास बहुमत है। कहने को ये एक अनैतिक गठजोड़ है, लेकिन ये पूरी तरह से संवैधानिक है। और ऐसे में राज्यपाल के पास ये अधिकार नहीं है कि वह एचडी कुमारस्वामी को सरकार बनाने के लिए न बुलाएं। साल 2006 में ऐसे ही एक मिलते-जुलते मामले में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस सभरवाल ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि अगर एक राजनीतिक दल दूसरे राजनीतिक दलों या विधायकों के समर्थन के साथ सरकार बनाने का दावा करता है और राज्यपाल को स्थिर सरकार बनाने के लिए बहुमत के लिए संतुष्ट करता है, तो राज्यपाल सरकार बनाने से इनकार नहीं कर सकता और बहुमत के उसके दावे को अपने इस आकलन के आधार पर खारिज नहीं कर सकता है कि वो बहुमत अवैध या अनैतिक तौर से हासिल किया गया है। ऐसा कोई भी अधिकार राज्यपाल के पास नहीं है। ऐसा अधिकार बहुमत के राज वाले लोकतांत्रिक सिद्धांत के खिलाफ होगा।

फिर चुनाव बाद गठबंधन को सरकार गठन के लिए सबसे पहले आमंत्रित करने के देश में कई मामले हैं। मसलन साल 2002 में जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के 28 विधायक जीते, लेकिन राज्यपाल ने पीडीपी और कांग्रेस के 15 और 21 विधायकों वाले गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। यही नहीं साल 2013 में दिल्ली में बीजेपी ने 31 सीटें जीतीं, लेकिन 28 विधायकों वाली आप पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब पिछले साल मार्च में 40 सदस्यीय गोवा विधानसभा में 18 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन राज्यपाल ने बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को आमंत्रित किया। इसी दरमियान 60 सदस्यीय मणिपुर विधानसभा में कांग्रेस के 28 विधायक जीते और भाजपा के 21 विधायक जीते, लेकिन राज्यपाल ने चुनाव बाद गठबंधन के आधार पर बीजेपी नीत गठबंधन को सरकार बनाने का न्योता दिया और वहां बीजेपी की सरकार बनी। मेघालय में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी लेकिन राज्यपाल ने सरकार बनाने के लिए बीजेपी और उसके साथी दलों को बुलाया। जाहिर है कि जब इन राज्यों में राज्यपालों ने सरकार बनाने के लिए सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित नहीं किया, तो फिर कर्नाटक में राज्यपाल द्वारा कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन को दरकिनार कर बीजेपी को आमंत्रित करना, उनके फैसले को सवालों के घेरे में लाता है। राज्यपाल वजुभाई वाला का ये फैसला, न सिर्फ नैतिकता और शुचिता के लिहाज से, जिसका कि बीजेपी अक्सर दावा करती है, बल्कि संवैधानिक दृष्टि से भी गलत है। राज्यपाल का फैसला पूरी तरह से असंवैधानिक और अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल है। सच बात तो यह है कि कर्नाटक में बीजेपी, सारी संवैधानिक मर्यादाएं और नैतिकता को ताक पर रखकर सत्ता हथियाने की कोशिशें कर रही है। राज्यपाल वजुभाई वाला, जिनके पास लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की जिम्मेदारी है, वे इसकी रक्षा करने के बजाय केंद्र में सत्तारूढ़ दल के प्रहरी की भूमिका निभा रहे हैं।
 

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