सुनहले मध्यप्रदेश का सच और विज्ञापन

अखबार के 24 पन्नों में से 23 पन्नों पर चमचमाते विज्ञापन

Update: 2018-06-22 14:47 GMT

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार के लोग यह दावा करते नहीं थकते हैं कि मध्यप्रदेश तरक्की की राह पर चलते हुए बीमारू राज्य के तमगे को काफी पीछे छोड़ चूका है, स्वर्णिम मध्यप्रदेश के दावों, विकास दर के आंकड़ों, सबसे ज्यादा कृषि कर्मण अवार्ड के मेडल और बेहिसाब विज्ञापन के सहारे ये माहौल बनाने की कोशिश की जाती है कि मध्यप्रदेश ने बड़ी तेजी से तरक्की की है. यहां तक कि शिवराज सिंह चौहान की सरकार 'आनंद मंत्रालय' खोलने वाली पहली सरकार भी बन चुकी है.

लेकिन आंकड़े इस बात की चुगली करते हैं कि तथाकथित मध्यप्रदेश माडल के दावे खोखले हैं. जमीनी हालात बता रहे हैं कि तमाम आंकड़ेबाजी और दावों के बावजूद मध्यप्रदेश “बीमारु प्रदेश” के तमगे से बहुत आगे नहीं बढ़ सका है. नीति आयोग ने पिछले साल अक्टूबर में देश के जिन 201 सबसे पिछड़े जिलों की सूची जारी की थी उसमें मध्यप्रदेश तीसरे स्थान पर था. इस सूची में मध्यप्रदेश के 18 जिले शामिल है जो कुपोषण, भुखमरी, बाल व मातृ मृत्यु की ऊँची दरों, बेरोज़गारी, बदलहाल शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं को लेकर देश के बदतर जिलों में शामिल हैं.

इस साल दिसम्बर में भाजपा को सूबे की सत्ता में आये हुए पंद्रह साल पूरे हो जायेंगें. इससे पहले नवंबर में शिवराज सिंह चौहान भी बतौर मुख्यमंत्री अपने 13 साल पूरे कर लेंगें.

मई 2010 में मध्यप्रदेश विधानसभा के विशेष सत्र में मुख्यमंत्री शिवराज ने मध्यप्रदेश के सर्वांगीण और समावेशी विकास के लिये 70 सूत्रीय संकल्प प्रस्‍तुत किया था जिसमें प्रदेश में खेती को लाभ का धंधा बनाने, मूलभूत सेवाओं के विस्तार के साथ अधोसंरचना का निरंतर सुदृढ़ीकरण करने, निवेश का अनुकूल वातावरण निर्मित करने, सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था उपलब्ध करने, सुदृढ़ सुरक्षा एवं कानून व्यवस्था स्थापित करने जैसे बिंदु शामिल थे. आज इस संकल्प को आठ साल पूरे हो चुके हैं लेकिन ये वादों की पोटली बनकर ही रखे हुये हैं.

दावा किया जाता है कि मध्यप्रदेश का जीडीपी 10 प्रतिशत से ऊपर है लेकिन सूबे की माली हालत देखें तो मध्यप्रदेश सरकार पर वर्ष 2001-02 में 23934 करोड़ रूपए का क़र्ज़ था. जो अब बढ़कर 118984 करोड़ रूपए हो गया है. राज्य की अधिकांश जनता आज भी खेती पर ही निर्भर हैं. गैर कृषि क्षेत्र में मप्र की विकास दर 6.7 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत 8 से ऊपर है जाहिर है सूबे की औद्योगिक विकास की गति धीमी है और इसके लिए जरूरत के अनुसार अधोसंरचना नहीं बनायीं जा सकी है. इसी तरह से सांख्यिकी मंत्रालय की हालिया आंकड़े बताते हैं कि सूबे की प्रति व्यक्ति आय अभी भी राष्ट्रीय औसत से आधी है और इसके बढ़ने की रफ्तार बहुत धीमी है. मध्य प्रदेश में पिछले 10 सालों में सूबे में करीब 11 लाख गरीब बढ़े हैं और यहां गरीबी का अनुपात 31.65 प्रतिशत है है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर 21.92 प्रतिशत है.

शिवराज सिंह चौहान दावा करना नहीं भूलते कि उनकी सरकार ने खेती को फायदे का धंधा बना दिया है और इसके लिये मध्यप्रदेश सरकार लगातार पांच वर्षों से कृषि कर्मण का मेडल हासिल करती आ रही है लेकिन राज्य में किसानों के आत्महत्याओं के आंकड़े परेशान करने वाले हैं. इस साल मार्च में केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा लोकसभा में जो जानकारी दी गयी है उसके अनुसार 2013 के बाद से मध्यप्रदेश में लगातार किसानों की खुदकुशी के मामले बढ़े हैं, साल 2013 में 1090, 2014 में 1198, 2015 में 1290 और 2016 में 1321 किसानों ने आत्महत्या की है.

मध्यप्रदेश की मानव विकास सूचकांकों को देखें तो आंकड़े शर्मिंदा करने वाले हैं. कुछ साल पहले एम.डी.जी. की रिपोर्ट आयी थी जिसके अनुसार मानव विकास सूचकांकों में प्रदेश के पिछड़े होने का प्रमुख कारण सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र की लगातार की गयी अनदेखी है. राज्य सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में कम निवेश करती है, रिपोर्ट के अनुसार म.प्र सामाजिक क्षेत्रों में अपने बजट का 39 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च करता है जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 42 प्रतिशत है.

शायद यही वजह है कि आज भी मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर में पहले और कुपोषण में दूसरे नंबर पर बना हुआ है. इसके लिये तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों और पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 (2015- 16) के अनुसार राज्य में 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और ताजा स्थिति ये है कि वर्तमान में मध्यप्रदेश में कुपोषण की वजहों से हर रोज अपनी जान गवाने वाले बच्चों की औसत संख्या 92 हो गई है जबकि 2016 में यह आंकड़ा 74 ही था.

शिशु मृत्यु दर के मामले में मध्यप्रदेश लगातार एक दशक से अधिक समय से पूरे देश में पहले स्थान पर बना हुआ है. एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है जहाँ 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है. इसी तरह से 49.2 फीसदी लड़कों और 30 प्रतिशत लड़कियों का वजन भी औसत से कम है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 के अनुसार 5 साल से कम उम्र के हर 100 बच्चों में से लगभग 40 बच्चों का विकास ठीक से नही हो पाता है, इसी तरह से 5 साल से कम उम्र के लगभग 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं और केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण हो पाता है.

महिलाओं की बात करें तो प्रदेश में केवल 16.2 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव पूर्ण देखरेख मिल पाती है. जिसकी वजह से यहां हर एक लाख गर्भवती महिलाओं में से 221 को प्रसव के वक्त जान से हाथ धोना पड़ता है. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 167 है यहाँ उपरोक्त स्थितियों का मुख्य कारण बड़ी संख्या में डाक्टरों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का जर्जर होना है जैसे म.प्र. में कुल 334 बाल रोग विशेषज्ञ होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 85 ही पदस्थ हैं. दरअसल कुपोषण की जड़ें गरीबी, बीमारी, भूखमरी और जीवन के बुनियादी जरूरतों के अभाव में है. अभाव और भूखमरी की मार सबसे ज्यादा बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ती है.

स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो नीति आयोग द्वारा हेल्थी स्टेट्स प्रोग्रेसिवट इंडिया नाम से जारी की गयी रिपोर्ट में मध्यप्रदेश को 17वें स्थान मिला है और इस मामले में उसे 100 में से मात्र 40.09 अंक मिले है, रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश के अस्पतालों में कुल जरूरत की अपेक्षा 58.34 प्रतिशत डॉक्टर ही हैं. बालिका शिशु जन्मदर में भी भारी गिरावट हुयी है रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में 2014-15 में प्रति हजार लड़कों पर 927 थी, जो 2015-16 में घटकर 919 रह गई. यह स्थिति तब है जब यहां लाडली लक्ष्मी जैसी बहु प्रचारित योजनायें चलाई जा रही हैं.

शिक्षा की स्थिति देखें तो पिछले साल के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार मध्यप्रदेश में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से चार प्रतिशत कम है और सूबे की चालीस प्रतिशत महिलायें तो अभी भी असाक्षर हैं. 2017 के आखिरी महीनों में जारी की गयी आरटीआई पर कैग की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के स्कूल छोड़ने के मामले में मध्य प्रदेश का देश में चौथा स्थान है, रिपोर्ट में बताया है कि सत्र 2013 से 2016 के बीच स्कूलों में बच्चों के दाखिले में सात से दस लाख की गिरावट पाई गई है. इसी तरह से प्रदेश के सरकारी स्कूलों में में करीब 30 हजार शिक्षकों के पद खाली है जिसका असर बच्चों की शिक्षा पर देखने को मिल रहा है और यहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बड़ी तेजी से घट रही है.

मध्यप्रदेश की लगभग 21 प्रतिशत जनसँख्या आदिवासी है और इस बदहाली का असर भी उन्हीं पर सबसे ज्यादा है. दिनांक 11 मई 2018 को दैनिक समाचार पत्र पत्रिका में प्रकाशित खबर के अनुसार मध्यप्रदेश सरकार पिछले करीब डेढ़ दशक (2003-04 से 2018-19 ) के बीच अनुसूचित जाति जनजाति वर्ग के विकास के नाम पर 2215.07 अरब रूपये खर्च कर चुकी है लेकिन इसके बावजूद भी उनकी बड़ी आबादी भुखमरी,कुपोषण,गरीबी,बीमारी और जीवन जीने के बुनियादी सुविधाओं से महरूम है .

सूबे में दलित समुदाय की स्थिति क्या है इसको एक हालिया घटना से समझा जा सकता है बीते 16 अप्रैल को उज्जैन जिले के अंतर्गत आने वाले महिदपुर तहसील के एसडीएम ने सभी पंचायतों को आदेश जारी किया था कि वे अपने क्षेत्र में किसी भी दलित परिवार के यहां होने वाली शादी की सूचना कम से कम तीन दिन पहले नज़दीकी पुलिस थाने को दें जिससे बारात के दौरान पुलिस सुरक्षा का इंतज़ाम किया जा सके. हालांकि बाद में विरोध को देखते हुये जिला कलेक्टर द्वारा एसडीएम के इस आदेश को निरस्त कर दिया गया. लेकिन उपरोक्त घटना बताती है कि मध्यप्रदेश में दलितों को अपने ही परिवार में शादी जैसे मौकों पर भी पुलिस प्रोटेक्शन की जरूरत है.

मानव विकास और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में सूबे की यह बदरंग तस्वीर बताती है कि स्वर्णिम मध्यप्रदेश के दावे कितने हवाई हैं. बेशर्मी का आलम ये है कि शिवराजसिंह की सरकार खुद अपने विज्ञापन पर पानी की तरह पैसा बहा रही है. बीते 26 अप्रैल तो हद ही हो गयी जब एक अखबार के 24 पन्नों में से 23 पन्नों पर सरकार बहादुर ने अपनी योजनाओ, उपलब्धियों का बखान करते विज्ञापन छपवा डाले. इन में एक सम्पादकीय नुमा विज्ञापन भी था जिसे अखबार के स्थानीय संपादक द्वारा लिखा गया था और इसका शीर्षक था “देश को गति देती मध्य प्रदेश की योजनाएं”.

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