भीड़ के ढांचे का सच खुल चुका

भीड़ के ढांचे का सच खुल चुका

Update: 2018-07-20 13:28 GMT

भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी जिस भीड़ ने लगभग अस्सी साल के आर्य समाजी स्वामी अग्निवेशजी पर झारखंड में हमला किया वह भीड़ द्वारा हमले की प्रवृति के विस्तार होने का उदाहरण है।यानी उसका सच खुल चुका है। स्वामी अग्निवेश कोलकाता में प्रोफेसर रहे हैं और हरियाणा सरकार में मंत्री रह चुके हैं।मुसलमानों, ईसाईयों, दलितों के खिलाफ हमले के वक्त जय श्री राम का नारा जिस तरह से भीड़ (एक समूह) लगाती है वही नारा भागवाधारी अग्निवेश पर हमले के वक्त भी भीड़ लगा रही थी। इस हमंले से पहले कोई वाह्टएप द्वारा कोई अफवाह नहीं फैली थी। ना ही गौ मांस का बहाना था। यदि भीड़ द्वारा हमले और हत्याओं की घटनाओं की पड़ताल करें तो उन घटनाओं के लिए कोई न कोई कारण को सामने रख दिया जाता है लेकिन वह छद्म कारण होते हैं।वास्तविक कारण की तरफ न तो सत्ता पक्ष लोगों को ले जाने देना चाहता है और ना ही विपक्ष ही उस तरफ जाना चाहता है।

पहली बात तो भारतीय समाज में भीड़ बनाकर हमले की कोशिशों का ढांचा मौजूद रहा है। इस समझने के लिए दर्जनों उदाहरण हमें देखने को मिल सकते हैं। नवंबर 2017 को जब मैं देवधर गया था ।वहां एक पुरानी कोठी में एक सार्वजनिक कार्यक्रम था। कवि मित्र प्रभात सरसी ने उस कोठी की जो ऐतहासिकता बताई ,उसे फेस बुक पर भी लिखा।1934 में देवघर के वैद्यनाथ मन्दिर(धाम) में हरिजन-प्रवेश के लिये महात्मा गांधी ट्रेन से जसीडीह स्टेशन पर शाम को उतरे थे । सनातनी सैकड़ों की संख्या में लाठियों में बोरे बांध कर जसीडीह स्टेशन पहुंच गये । बोरों को उन्होंने काले रंग से रंग दिया था । बहाना यह था कि वे काला झंडा दिखाएंगे । इससे पहले गिद्धौर के महाराजा ने सनातनी पंडों की एक मीटिंग की सदारत .करते हुए कहा था कि वे अपने सनातनी पंडों के साथ हैं और सनातनियों के निर्णय और आदेश को मानते हुए ये हाथ महात्मा गांधी के विरुद्ध किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनके इस कथन ने आग में घी का काम किया था । महात्मा गांधी की देवघर-यात्रा नहीं होने पाए राजेन्द्र प्रसाद ने इसके लिए स्थानीय कांग्रेसी नेता विनोदानन्द झा पर दवाब डाला था। पर वे हिम्मत नहीं जुटा पाये थे ।

जसीडीह स्टेशन पर रोशनी के नाम पर केवल एक पेट्रोमेक्स की व्यवस्था थी । स्टेशन के बाहर आठ - दस हजार लोगों की जमा हो गयी थी।बड़ी संख्या में संताल नागरिक भी थे जो सुदूर गांवों से महात्मा गांधी को देखने आये हुए थे। स्टेशन से बाहर गांधी जी को देवघर ले जाने के लिये एक ऑस्टिन कार की व्यवस्था की गयी थी । अंधेरे का लाभ उठाकर सनातनियों ने सुरक्षा-घेरे को तोड़ दिया।कार पर लाठियां बरसने लगीं । चारों तरफ के शीशे चकनाचूर हो गये थे । कार पर सवार सभी लोग कमोबेश घायल हो चुके थे । ठक्कर बापा के कान पर एक जोरदार लाठी का प्रहार हुआ था । वे बराबर के लिये एक कान से बहरे हो गये थे ।अगर पांच-सात मिनट और देरी होती तो सनातनियों के हाथों महात्मा गांधी जसीडीह स्टेशन पर ही मार दिये जाते ।कार डाइवर घायलों को किसी तरह देवघर के बम्पास टाउन की बिजली कोठी तक पहुंचने में सफल हो पाया। देवधर में मंदिर प्रवेश रोकने के लिए भीड़ बनाकार हमले की कई घटनाएं हुई हैं।

यहां घटना का बहाना मंदिर प्रवेश को रोकना दिखता है। लेकिन इसकी इस तरह से व्याख्या की जा सकती है कि सामाजिक वर्चस्व की यथास्थिति बनाए रखने के लिए भीड़ बनाकर हमले होते रहे हैं। लेकिन समाज में ही इस तरह के हमलों के खिलाफ एक मजबूत ढांचा मौजूद रहा है जो उस भीड़ को विस्तार की जगह पाने से रोकता रहा।याद करें तो 1990 के साम्प्रदायिक उभार के दौर में भी वर्चस्ववादियों द्वारा भीड़ जमा करने और हमले करने की घटनाओं को महज इसीलिए रोका जा सका क्योंकि विपक्ष में उस वक्त इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसी कुछ ऐसी शक्तियां थी जो सड़कों पर उतर कर नारे लगा रही थी – जो दंगा करवाएगा, हमसे नहीं बच पाएगा।

एक बड़े परिपेक्ष्य में समझने के लिए भीड़ द्वारा हमला और हत्या की वारदातों को इस रुप में देखा जाना चाहिए कि सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाली शक्तियों और 1990 के बाद आर्थिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाली शक्तियों ने कैसे भीड़ द्वारा हमले और हत्या के ढांचे को विस्तार दिया है। इन वारदातों के चरित्र को केवल भाजपा और कांग्रेस के बीच फंसाकर रखने से वास्तवकिता पर पर्दा पड़ा रह सकता है। याद करें कि राज्यों में भाजपा और केन्द्र में कांग्रॆस के नेतृत्व वाली सरकारों की मिलीजुले प्रयासों से छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में एक हथियारबंद भीड़ को लगातार विस्तार देने के प्रय़ास हुए।| कभी जन जागरण , कभी सलवा-जुडूम के नाम से। वास्तिवक अर्थौं में खादानों के उपर सदियों से बसे आदिवासियों व उनके शुभचिंतक ईसाईयों को हमले और हत्या की शिकार बनाया जाता रहा। दरअसल यह देखने को मिला कि जिनके खिलाफ हमले और हत्या के लिए भीड़ जुटाई जाती रही है उनका नाम भर बदल दिया गया ताकि .उसमें संवैधानिक तंत्रों की भी भूमिका सुनिश्चित की जा सकें। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में यह नाम माओवाद और हिंसा के रुप में बदलता दिखाई दिया।हर वह संगठन व व्यक्ति माओवादी करार दिया जाने लगा जो आर्थिक लूट के खिलाफ खड़ा हुआ था।इस कड़ी में ब्रह्मदेव शर्मा जिलाधिकारी भी थे जिनका कसूर महज यह था कि वे सामाजिक और आर्थिक वर्स्चव की यथास्थिति के खिलाफ सरकार की योजनाओं को लागू करने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन उन्हें भीड़ द्वारा नंगा किया गया।

केन्द्र में नई आर्थिक नीतियों के पक्षघर मनमोहन सिंह और राज्यों में आर्थिक नीतियों की कट्टर समर्थक भाजपा की सरकारों ने भारतीय समाज में उस ढांचे को राष्ट्र व विकास के नाम तहस नहस कर दिया जो कि भीड़ बनाकार हत्या और हमले के ढांचे की जगह बनने से रोकते रहे हैं।हिन्दूत्व, गौ मांस , अफवाह , राष्ट्र विरोधी आदि जिन कारणों को ऐसी वारदातों के समय विमर्श के लिए पेश किया जाता है उस पूरे विमर्श के दौरान भीड़ द्वारा हमले की वारदातों के क्रमिक विस्तार पर नजरों को फेर लिया जाता है। हमला और हत्या करने के लिए भीड़ जमा करने के ये हथियार जरुर हैं लेकिन वारदात के कारण ये नहीं हैं।भीड़ को संचालित करने वाले वर्चस्व के पक्षधर है और अपनी रणनीतियों से उन्होने हमले के लिए भीड़ के लिए एक माहौल रच दिया है। सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व के गठजोड़ ने पूरे सुरक्षा तंत्र को अपने दिशा निर्देशों और अपने सुरक्षा में लगे रहने के लिए विवश कर दिया है। संवैधानिक तंत्र के खिलाफ जो निराशाजनक भाव विकसित होता है उसकी वजह है कि विपक्ष भी भीड़ द्वारा हमले के ढांचे को संपूर्णत: में तहस नहस करने के लिए सड़कों पर नहीं उतरता है।वह उसे वोट की लड़ाई तक सीमित रखना चाहता है।भाजपा के ऐसे वारदातों में शामिल होने या खामोशी ओढ़ने के हालात पर इसीलिए कोई फर्क भी नहीं पड़ता है।लेकिन इतिहास का एक सच हैं कि भीड़ तो भीड़ होती है और उसके लिए सब बराबर है।

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