शिवराज विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे लेकिन सदन नहीं चलाएंगे

भाजपा जन संसद को महत्व नहीं देती

Update: 2018-08-27 12:14 GMT

भाजपा शासन के दौरान मध्यप्रदेश में विधानसभा की महत्ता और प्रासंगिकता कम होती गयी है, विधानसभा सत्रों की अवधि लगातार कम हुई है,सरकार द्वारा मनमाने तरीके से बीच में ही सत्र को खत्म कर दिया जाता रहा है और विधानसभा में पूछे गये मुश्किल सवालों को “जानकारी एकत्रित की जा रही है” जैसे जुमलों से टाले जाने का चलन बढ़ा है. पिछले दिनों मौजूदा विधानसभा का आखिरी सत्र मात्र पांच दिन के लिए तय किया गया था और इसे मात्र दो दिन में ही स्थगित कर दिया गया.

ऐसा लगता है शिवराज सिंह की सरकार विधायिका के इस बुनियादी विकल्प को ही खत्म कर देना चाहती है कि कोई उससे सवाल पूछे और उसे इसका जवाब देना पड़े. विपक्ष द्वारा सदन में सवाल पूछने,अविश्वास प्रस्ताव रखने जैसे प्रावधान हमारे लोकतंत्र के आधार है लेकिन मध्यप्रदेश में विधानसभा की ताकत को कम करने और जन-प्रतिनिधियों के विशेषाधिकारों को सीमित करने के दो बड़े प्रयास हो चुके हैं जो लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ है.

पहला मामला बीते 21 मार्च 2018 विधानसभा सत्र खत्म होने के दिन का है जिसमें प्रदेश के संसदीय कार्य विभाग द्वारा सभी विभागों को एक परिपत्र जारी किया गया था जिसमें साफ निर्देश दिया गया था कि सम्बंधित विभाग मंत्रियों से विधानसभा में पूछे गये ऐसे किसी प्रश्न का कोई उत्तर न दिलवायें जिससे उनकी जवाबदेही तय होती हो. परिपत्र का मजमून कुछ इस तरह से है “विभागीय अधिकारी प्रश्नों के उत्तरों की संरचना, प्रश्नों की अंतर्वस्तु की गहराई से विवेचना करें तो आश्वासनों की व्यापक संख्या में काफी कमी आ सकती है. मंत्रियों को प्रत्येक विषय पर आश्वासन देने में बड़ी सतर्कता बरतना होती है, यदि किसी विषय पर आश्वासन दे दिया जाए तो यथाशीघ्र उसका परिपालन भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए अतः अपेक्षा की जाती है कि नियमावली के अनुबंध डी में आश्वासनों के वाक्य तथा रूप की सूची दी गई है, यह शब्दावली उदाहरण स्वरूप है, विधानसभा सचिवालय सदन की दैनिक कार्यवाही में से इसके आधार पर आश्वासनों का निःस्सारण करता है अतः विधानसभा सचिवालय को भेजे जाने वाले उत्तर/जानकारी को तैयार करते समय इस शब्दावली को ध्यान में रखा जाए तो अनावश्यक आश्वासन नहीं बनेंगे.” जवाब देते समय जिन 34 शब्दावलियों से बचने की हिदायत दी गयी है उनमें “मैं उसकी छानबीन करूंगा”, “मैं इस पर विचार करूंगा”, “सुझाव पर विचार किया जाएगा”, “रियायतें दे दी जायेंगी”, “विधिवत कार्यवाही की जाएगी” आदि शब्दावली शामिल हैं. नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने इसे सरकार द्वारा लोकतंत्र का गला घोंटने, विपक्ष की आवाज दबाने और विधानसभा का महत्व खत्म करने की साजिश बताया है और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान से इस परिपत्र को वापस लेने की मांग की है.

इससे पहले मध्यप्रदेश विधानसभा का 2018 के बजट सत्र में ही शिवराज सरकार द्वारा विधानसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन संबंधी नियमावली में संशोधन किया गया था जो सीधे तौर पर सदन में विधायको के सवाल पूछने के अधिकार को सीमित करने की कोशिश तो थी ही साथ ही इसमें पहली बार सत्तापक्ष को सदन में “विश्वास प्रस्ताव” लाने का प्रावधान किया गया था जिसके अनुसार अगर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही प्रस्ताव लाते हैं तो इसमें वरीयता सत्तापक्ष द्वारा लाए जाने वाले “विश्वास प्रस्ताव” को ही दी जाएगी और उसके बाद में विपक्ष के “अविश्वास प्रस्ताव” पर विचार किया जाएगा. इसी तरह किये गये संशोधनों के तहत ये प्रावधान किया गया था कि विधयाक किसी अति विशिष्ट और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की सुरक्षा के संबंध में हुये खर्च और ऐसे किसी भी मसले पर जिसकी जांच किसी समिति में चल रही हो और प्रतिवेदन पटल पर नही रखा गया हो, के बारे में सवाल नही पूछ सकते हैं. प्रदेश में विघटनकारी, अलगाववादी संगठनों की गतिविधियों के संबंध में भी विधायकों द्वारा जानकारियां मांगने पर पाबंदी लगायी गयी थी. कुल मिलाकर यह एक ऐसा काला कानून था जिससे विपक्ष की भूमिका बहुत सीमित हो जाती. इन नियमों को विपक्ष, मीडिया और सिविल सोसाइटी के दबाव में अंततः शिवराज सरकार को स्थगित करने को मजबूर होना पड़ा है.
 

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