लखनऊ कोर्ट ब्लास्ट पर फैसले के तरीके पर हैरानी-

खालिद की हत्या पुलिस कस्टडी में हो चुकी है अब तारिक की हत्या की साजिश का आरोप

Update: 2018-08-28 14:03 GMT

देश की न्यायालय व्यवस्था में यह शिकायत बढ़ती जा रही हैं कि न्यायाधीश न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार फैसले करने के बजाय किसी मुकदमें में पहले से तयशुदा अपने फैसले दे रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मशहूर वकील मुहम्मद शुऐब ने आरोप लगाया कि 2007 के लखनऊ कोर्ट ब्लास्ट मामले में विशेष न्यायाधीश ने आरोपित तारिक कासमी और अख्तर के पक्ष को नहीं सुना और उन्हें दोषी करार देने का फैसला दे दिया। उन्होने इस फैसले के बाद उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को लिखे एक पत्र में यह भी आरोप लगाया है कि तारिक की जेल में हत्या की साजिश की गई है।

लखनऊ कार्ट में ब्लास्ट का इतिहास

23 नवंबर 2007 को लखनऊ कोर्ट परिसर में ब्लास्ट की वारदात के आरोप में तारिक कासमी, खालिद मुजाहिद, सज्जादुर्ररहमान, अख्तर वानी, आफताब आलम अंसारी की गिरफ्तारी हुई थी। जिसमें आफताब आलम अंसारी के खिलाफ साक्ष्य न मिलने पर विवेचना अधिकारी ने उन्हें 22 दिन में क्लीनचिट दे दिया था। वहीं सज्जादुर्ररहमान को जेल कोर्ट ने 14 अप्रैल 2011 को बरी कर दिया था। लखनऊ कोर्ट परिसर में ब्लास्ट की वारदात के बाद निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी को लेकर जब आंदोलन हुआ तब उत्तर प्रदेश सरकार ने तारिक और खालिद की गिरफ्तारी के संबंध में आरडी निमेष आयोग का गठन किया। आयोग ने 2012 में अपनी रिपोर्ट में यूपी एसटीएफ द्वारा की गई गिरफ्तारी को संदिग्ध कहते हुए दोषी पुलिस वालों पर कार्रवाई की सिफारिश की थी। लेकिन आयोग की रिपोर्ट के बाद घटनाक्रम में तेजी आई और खालिद की हिरासत में हत्या कर दी गई। तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह, एडीजी लॉ एण्ड आर्डर बृजलाल जैसे बड़े अधिकारियों समेत आईबी पर हत्या का मुकदमा पंजीकृत हुआ था। गौर तलब है कि 2007 में कोर्ट ब्लास्ट के लिए पुलिस ने हूजी को जिम्मेदार ठहराया गया था तो वहीं सितंबर 2008 बाटला हाउस इनकाउंटर के बाद आईएम को जिम्मेदार ठहराकर पुलिस ने एक ही मामले में दो थ्योरी खड़ी कर दी थी जबकि चार्जशीट तक आ चुकी थी।

तारिक और अख्तर का मामला

दंड प्रक्रिया की धारा 24 सेशन न्यायालय में बहस की प्रक्रिया की व्यवस्था देती है कि साक्ष्य समाप्त होने के बाद अभियोजक मामले का उपसंहार करेगा और अभियुक्त या उसका वकील उत्तर देने का हकदार होगा। इस केस में अभियोजक अधिकतर खामोश रहे हैं और एटीएस के वकीलों ने बहस की। जहां अभियुक्त या उसका वकील कोई विधि प्रश्न उठाता है वहां अभियोजन न्यायाधीश की अनुज्ञा से ऐसे विधि प्रश्नों पर अपना निवेदन कर सकता है। एटीएस के वकील के निवेदन पर 16 अगस्त 2018 को उन्हें उत्तर देने का समय प्रदान करते हुए न्यायालय ने मुकदमे की तारीख 23 अगस्त के लिए तय कर दी।धारा 235 दंड प्रक्रिया संहिता की व्यवस्था के अनुसार बहस एवं विधि प्रश्न सुनने के पश्चात न्यायाधीश मामले में निर्णय देगा ।लेकिन 23 अगस्त को पहले की तरह 11 बजे के बजाय शाम 3.40 बजे स्पेशल जज (एससी/एसटी एक्ट) लखनऊ की न्यायाधीश जेल स्थित कोर्ट में पहुंची और अपने चेंबर में गईं और 4 बजे कोर्ट रुम आकर मोहम्मद मोहम्मद तारिक कासमी अभियुक्त अन्तर्गत अपराध संख्या 547/2007 थाना कैसरबाग लखनऊ को दिनांक 23-08-2018 को सत्र परीक्षण संख्या 913/2008 सपठित सत्र परीक्षण संख्या 1580/2008 में दोष सिद्ध करार दिया और पहले से टाइप शुदा दंड फैसले पर सुनवाई के लिए 27 अगस्त 2018 की तिथि घोषित कर चेंबर में वापस चली गईं। तारिक कासमी और अख्तर के वकील एवं रिहाई मंच के अध्यक्ष के अनुसार लखनऊ के केस में 23 अगस्त 2018 को अकस्मात आया निर्णय न्यायिक प्रक्रिया को दरकिनार करने का एक बेमिसाल उदाहरण है।

प्रेस कॉफ्रेंस

लखनऊ कोर्ट ब्लास्ट पर आए फैसले के बाद रिहाई मंच ने यूपी प्रेस क्लब लखनऊ में प्रेस वार्ता की। फैसले पर बात करते हुए न्यायिक जवाबदेही के सवाल पर देशभर के पूर्व न्यायाधीश व प्रशासनिक अधिकारियों, वरिष्ठ अधिवक्ताओं और कानूनविदों से विमर्श कर इस मामले पर उच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित कराने का निर्णय किया गया है। 2008 से चल रहे इस मुकदमें में तत्कालीन न्यायाधीश के सामने अप्रैल माह में बहस लगभग समाप्त हो चुकी थी लेकिन एटीएस की ओर से बचाव पक्ष की बहस का जवाब देने के लिए बार-बार तारीखें लेने की प्रवृति सक्रिय रही । उसी दौरान तत्कालीन न्यायाधीश का स्थानांतरण लखनऊ में ही दूसरे न्यायालय में कर दिया गया। मौजूदा न्यायाधीश महोदया ने 26 अप्रैल को कार्यभार ग्रहण किया। उसी दिन बचाव पक्ष द्वारा जिला एवं सत्र न्यायाधीश लखनऊ के सामने प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर न्याय में विलंब रोकने के उद्देश्य से केस को पूर्व न्यायाधीश के समक्ष स्थानांतरित करने का अनुरोध किया गया। लेकिन न्यायाधीश ने प्रार्थना पत्र की सुनवाई एक महीने के लिए टाल दी। इस बीच मौजूदा नए न्यायाधीश इस मुकदमें में बहस सुनती रही लेकिन मजेदार बात यह है कि मुकदमें को स्थानांतरित करने का प्रार्थना पत्र आज भी लंबित है जिसमें सुनवाई की अग्रिम तिथि 7 सितंबर 2018 नियत है।

एटीएस द्वारा मुकदमें लंबा खींचने का ट्रेंड

मुहम्मद शुऐब के अनुसार एटीएस मुकदमों को लंबा खींचती है। एटीएस एक-एक गवाह प्रस्तुत करने में महीनों का समय लगाती है। सीआरपीएफ कैंप समेत कई मामलों में तो मुकदमों में तेजी लाने के लिए अभियुक्तों को हाईकोर्ट तक जाना पड़ा था। तब भी उसकी कार्यपद्धति में कोई बदलाव नहीं आया। आतंकवाद के मामलों में अदालती अनुभवों को रखते हुए वे कहते हैं कि बारांबकी में निर्णय सुनाते समय वहां के न्यायाधीश ने ईमानदारी बरती थी- स्वीकार किया था कि बहुत मजबूरी में उन्हें वह निर्णय पारित करना पड़ा। फैजाबाद न्यायालय में भी श्री आरके गौतम गवाहों के बयान कराते समय उनके द्वारा दिए गए बयान को अभियोजन के पक्ष में लिखाने का प्रयास करते रहते थे।दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 479 के तहत प्रार्थना पत्र देकर कहा गया कि वह उक्त मुकदमें में व्यक्तिगत रुप से हितबद्ध है और मुकदमा अपने पास से हटा लें। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया।

फैसले पर अन्य लोगों की प्रतिक्रिया

लखनऊ कोर्ट ब्लास्ट पर फैसले के बाद पूर्व आईजी एसआर दारापुरी ने कहा कि उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अयोग अध्यक्ष और पूर्व एडीजी ऑ एण्ड आर्डर बृजलाल द्वारा आधिकारिक रुप से इस फैसले के बाद विज्ञप्ति जारी करने पर सवाल उठाया। क्योंकि बृजलाल इस मुकदमें में एक हितबद्ध पक्षकार हैं जिन्हें आरडी निमेश आयोग ने दोषी पाया। उनके खिलाफ खालिद मुजाहिद की हत्या का आरोप भी विचाराधीन है। खालिद की हत्या की विवेचना के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में भी याचिका विचाराधीन है और बाराबंकी न्यायालय में हत्या के केस में प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट अब तक स्वीकार नहीं की गई है। उन्होंने कहा कि इस मामले में बृजलाल समेत विक्रम सिंह, अमिताभ यश, मनोज कुमार झा जैसे वरिष्ठ अधिकारियों पर सवाल उठे हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता अरुन्धति धुरु कहती हैं कि न्यायिक प्रक्रिया को पूरा किए बगैर फैसले की प्रवृति बढ़ने से पूरा लोकतांत्रिक ढांचा खतरे में आ जाएगा।वकील रणधीर सिंह सुमन ने कहा कि बृजलाल जो खालिद मुजाहिद हत्या मामले में नामजद अभियुक्त हैं उनको प्रदेश अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग का अध्यक्ष कैसे बनाया गया है। जबकि सामान्य व्यक्ति जिसपर छोटी-मोटी धारा लगी होती है उसको वीजा पासपोर्ट नहीं मिलता। मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित संदीप पाण्डेय ने कहा कि बृजलाल के कार्यकाल में आतंकवाद के आरोपों में पकड़े गए निर्दोष नागरिकों को बाद में अदालतों से दोषमुक्त करार दिया गया और कचहरी धमाकों के लेकर शुरु से ही बहुत से सवाल उठते रहे हैं। 2008 में इन मुकदमों को लड़ने से रोकने के लिए मुहम्मद शुऐब पर जानलेवा हमला भी कोर्ट परिसरों में हुआ। तब इन मुकदमों की जेल की चारदिवारी के भीतर सुनवाई होने लगी।

मीडिया के जरिये मुकदमें को प्रभावित करने की कोशिश इस मामले की बहस पूरी होने के बाद न्यायाधीश का ट्रांसफर हो गया और जब दूसरे न्यायाधीश को इस मुकदमें की सुनवाई करने की जिम्मेदारी दी गई , इसी दौरान मीडिया में खबरें आईं कि लखनऊ बलास्ट के आरोप में जेल में बंद अभियुक्त नाभा जेल जैसी कोई बड़ी वारदात करना चाहते थे और इसलिए इन्हें दूसरी जेलों में स्थानांतरित किया जाएगा। जबकि अभियुक्तगण लगातार जेल में हो रहे उत्पीड़न की शिकायत कर रहे थे।

जेल में तारिक की हत्या की साजिश का आरोप

मोहम्मद तारिक कासमी द्वारा वरिष्ठ अधीक्षक जिला जेल लखनऊ की शिकायत उच्च अधिकारियों को किए जाने के कारण पहले उसे लखनऊ जेल में प्रताड़ित किया जाता रहा और बाद में उसका स्थानांतरण जिला जेल बाराबंकी में कर दिया गया जहां भी वह अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करता। वकील मोहम्मद शुएब ने पुलिस महानिदेशक को एक पत्र लिखकर आरोप लगाया है कि उन्हें विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि लखनऊ जेल के अंदर मोहम्मद तारिक कासमी की हत्या की योजना तैयार की गई है। इसलिए आवश्यक है कि अविलंब इस मामले में त्वरित कार्रवाई कर मोहम्मद तारिक का जीवन बचाया जाए। चूंकि आरडी निमेष जांच कमीशन रिपोर्ट की दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिशों से पुलिस अधिकारियों का एक वर्ग तारिक कासमी की जान लेना चाहता है और इससे पहले उसके सहअभियुक्त खालिद मुजाहिद की हत्या फैजाबाद जेल से लखनऊ जेल लाते समय पुलिस कस्टडी में की जा चुकी है जिसकी विवेचना लंबित है। बंदी मोहम्मद अख्तर की भी उचित सुरक्षा की व्यवस्था की जाए।
 

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