मध्यप्रदेश में कुपोषण से मर रहे बच्चों का जिम्मेदार कौन?

विधानसभा चुनाव सिर पर; लेकिन किसी भी पार्टी का ध्यान इस समस्या पर नहीं

Update: 2018-10-30 15:12 GMT

मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने को है. जैसे जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, प्रदेश का राजनीतिक माहौल भी गर्म होता नजर आ रहा है. सभी राजनीतिक दल जनता को आकर्षित कर अपनी ओर करने में लगी हुई हैं. भारतीय राजनीति में एक परम्परा रही है कि चुनाव के नजदीक आते ही राजनीतिक पार्टियों को मुद्दे भी याद आने शुरू हो जाते हैं और चुनाव के बाद उनकी आंखों पर पट्टियां बंध सी जाती हैं. ठीक इसी प्रकार का कुछ माहौल अभी मध्यप्रदेश में देखने को मिल रहा है. सभी पार्टिया विभिन्न समस्याओं जैसे बिजली, सड़क, किसान, गरीबी, आरक्षण इत्यादि पर चर्चा कर रही हैं. परन्तु दुखद बात यह है कि मध्यप्रदेश राज्य की जो सबसे बड़ी समस्या है उस पर तो किसी भी पार्टी का ध्यान ही नहीं जा रहा है. हम उन गरीब बच्चों की बात कर रहे है जिन्हें राजनेता चुनाव प्रचार के वक़्त गोद में उठाकर जनता को दिखाने का प्रयास करते है कि वो उनके साथ है. आज इन बच्चों का जीवन खतरे में है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में प्रतिदिन कुपोषण के कारण 92 बच्चों की जान चली जाती है. इनमें से ज्यादातर बच्चे एक से पाँच वर्ष के हैं. कई तो माँ के गर्भ में ही अपना दम तोड़ देते है. महिला और बाल विकास विभाग द्वारा इस संबंध में विधानसभा में एक रिपोर्ट भी पेश किया गया है. एक दावे के मुताबिक जनवरी 2016 से जनवरी 2018 के बीच राज्य में लगभग 57000 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हुई. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मसार करने वाली बात तो यह है कि राज्य के श्योपूर जिले को भारत का इथोपिया भी कहा जाता है. वर्ष 2016 के सितंबर में श्योपूर जिले में कुल 116 बच्चों की मृत्यु कुपोषण के कारण हुई थी.

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रदेश की जनता केवल मुख्यमंत्री ही नहीं मानती है बल्कि उन्हें मामा जी के रिश्ते से भी नवाजा गया है. परन्तु मामा जी का ध्यान इतनी बड़ी समस्या पर क्यो नहीं जा रहा है, यह सोचने वाली बात है. कुपोषण से लड़ने के लिए सरकार ने कई योजनाएं भी चला रखी थी, लेकिन खबरों के मुताबिक सारी योजनाएं विफल होती नजर आ रही हैं.

कुपोषण का मुख्य कारण है पोषण की कमी होना जोकि गरीबी और लाचारी के कारण उत्पन्न होती है. बीते वर्ष भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि प्रदेश की 32 फीसदी बच्चों तक आंगनबाड़ी तथा तथा अन्य माध्यमों से वितरित पोषक आहार नहीं पहुँचता है.

कुपोषण समाप्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि राज्य को 1,36,000 आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है. परन्तु प्रदेश में केवल 96,000 केंद्र ही हैं. अगर सुप्रीम कोर्ट के गणित को मौजूदा आंगनबाड़ी केंद्रों की संख्या से जोड़कर समझा जाये तो पता चलेगा कि सरकार लाखों बच्चों तक अबतक पहुंच भी नहीं पायी है. कुपोषण की समस्या मध्य प्रदेश के लिए कोई नई बात नहीं है. लेकिन वर्तमान स्थिति पहले के मुकाबले बेहद ही बुरी है.

राज्य को कुपोषण से मुक्त करने के लिए वर्ष 2010 में 'अटल बिहारी वाजपेयी बाल आरोग्य एवं पोषण मिशन’ लाया गया था. इसके तहत गर्भवती महिलाओं को गर्भावस्था के दूसरे एवं तीसरे तिमाही तक एक समय का भोजन प्रदेश के विभिन्न आंगनबाड़ी केंद्रों पर उपलब्ध करवाना था.परन्तु यह योजना भी पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पायी. ठीक दो वर्ष पहले जब मीडिया और विपक्ष द्वारा शिवराज सरकार को इस मुद्दे पर घेरा जाने लगा तो उन्होंने वादा किया था कि वे इस मुद्दे पर श्वेत- पत्र लाएंगे. श्वेत – पत्र के जरिए सरकार इस मुद्दे की गहराई तक जाती तथा अपनी सफलता एवं विफलता तथा इसके बजट पर अपना ब्योरा देती. लेकिन आज दो वर्ष बीत चुके हैं, न ही सरकार श्वेत - पत्र लेकर आयी और न ही कुपोषण का प्रकोप थमा. अगर यही स्थिति बरकार रही तो यह मुद्दा पूरे देश के लिए चिंता का विषय बन सकता है.

वैसे तो विपक्षी दलों ने गरीब एवं आदिवासियों के साथ मिलकर सरकार के खिलाफ इस मुद्दे पर कई आंदोलन किये, लेकिन अब देखना यह है कि आने वाले चुनाव में सरकार इसे अपना चुनावी मुद्दा बनाती है या इससे कन्नी काटती है.

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