एनडीए का सिकुड़ता कुनबा

चंद्रबाबू नायडू की तर्ज पर उपेन्द्र कुशवाहा भी एनडीए से बाहर

Update: 2018-12-11 17:07 GMT

वह जा रहा है, जा रहा है और आखिरकार चला ही गया. केन्द्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने अन्य पिछड़े वर्गों के हितों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाते हुए सोमवार को भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को अलविदा कह दिया. तेलुगू देशम और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बाद एनडीए को छोड़ने वाली यह तीसरी पार्टी है,

सूत्रों का कहना है कि पुराने जनता दल के सदस्य रहे रामविलास पासवान को भी अयोध्या मंदिर की “आंच” महसूस होने लगी है. पहले दलितों के प्रदर्शन और अब राममंदिर आंदोलन की पुनर्वापसी के बाद केन्द्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया श्री पासवान को भाजपा के साथ गठबंधन सहज नहीं लग रहा है.

श्री कुशवाहा कांग्रेस की निगरानी में बनने वाले विपक्षी दलों के गठबंधन के साथ गलबहियां डाल रहे हैं. उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात करने में कोई देरी नहीं की. विपक्षी दलों को एक करने का भार तेलुगू देशम के नेता और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर छोड़ा गया है और वो सबों को विपक्षी खेमे में एकसाथ लाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी जम्मू – कश्मीर सरकार और एनडीए से अलग हो गयी. उसके बाद से सुश्री मुफ़्ती भाजपा और केंद्र सरकार की एक मुखर आलोचक के तौर पर उभरी हैं.

भाजपा को अपने एक अन्य सहयोगी, शिव सेना, के हाथो भी तकलीफ झेलनी पड़ रही है. शिवसेना उसकी नीतियों की आलोचना करने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है. हाल में उसने अयोध्या मंदिर मसले पर चुप्पी साधने के लिए प्रधानमंत्री पर तंज कसा. और वह 11 दिसम्बर को विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद भाजपा और एनडीए के बारे में अपना रुख साफ़ करने वाली है.

अयोध्या भाजपा के लिए एक परेशानी वाला मुद्दा बन गया है. इस मसले पर सरकार के रवैये को लेकर जनता दल (यू) और नीतीश कुमार खामोश हैं. इस बात के संकेत हैं कि सरकार द्वारा मंदिर के मुद्दे पर आगे बढ़ने की स्थिति में बिहार के मुख्यमंत्री अपने रुख पर पुनर्विचार कर सकते हैं. श्री कुमार ने एक संभावित सुलह के लिए कांग्रेस से संपर्क किया था, लेकिन वह अभी तक अधर में ही है. हालांकि, इसे उनकी पार्टी की ओर से उस राजनीतिक परिदृश्य के बारे में पर्याप्त संकेत के रूप में देखा गया जिसके बारे में नीतीश कुमार भी शोर करते रहे हैं.

के. चन्द्रशेखर राव की अगुवाई वाले तेलंगाना राष्ट्र समिति ने हाल में एनडीए में शामिल होने के भाजपा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया. भाजपा की तरफ से श्री राव को एक संभावित सहयोगी के तौर पर देखा जा रहा था, लेकिन उन्होंने असदुद्दीन ओवैसी के साथ जाना पसंद किया. और वे इस साथी को छोड़ने को जरा भी इच्छुक नहीं हैं. भाजपा ने कहा है कि वह टीआरएस के साथ गठबंधन करना पसंद करेगी बशर्ते वो ओवैसी का साथ छोड़े. यह अलग बात है कि अभी तक इसके कोई संकेत नहीं दिखायी दिये हैं. निश्चित रूप से, इन सवालों का जवाब विधानसभा चुनावों के परिणामों पर निर्भर करेगा.

प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के शक्तिशाली अध्यक्ष अमित शाह को दक्षिण के राज्यों में अपना सहयोगी तलाशने में मुश्किल हो रही है. अन्नाद्रमुक भी औपचारिक रूप से भगवा पार्टी की सहयोगी नहीं बनी है. भाजपा ने जद (एस) – कांग्रेस गठबंधन के हाथो कर्नाटक गवां दिया है. वह केरल में वामपंथी किले में पर्याप्त सेंध लगाने में कामयब नहीं हो पायी है. और अब हिंदीपट्टी के उत्तर प्रदेश में बसपा –सपा गठबंधन, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस से उसे तगड़ी चनौती का सामना पड़ रहा है.

आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, जिन्होंने शायद पहली बार वृहद विपक्षी एकता की बैठक में हिस्सा लिया, भाजपा को दिल्ली में अपनी जीत दोहराने से रोकने के लिए पूरी तरह से कमर कसे हुए हैं. नागरिकता के मुद्दे पर असम में असम गण परिषद अलग हो गयी है. कुल मिलाकर, पूरी तरह से एक अनिश्चित तस्वीर. हालांकि, भाजपा को भरोसा है कि प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में वह इन चुनौतियों से पार पा लेगी.
 

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