आंकड़ों की नजर में भाजपा पर भारी पड़ता महागठबंधन

उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की कवायद जारी

Update: 2018-12-25 13:48 GMT

अब जबकि 2019 का आम चुनाव सामने है, उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटें परिणाम की दृष्टि से अहम साबित होंगी. पिछली बार 2014 के संसदीय चुनावों में इन सीटों मेंसे भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने कुल 72 सीटें जीती थीं. सत्ता पक्ष एवं विपक्ष, दोनों, यह अच्छी तरह जानते हैं कि यहां की जीत अगले लोकसभा का स्वरुप तय करेगी.

लिहाजा, राजनीतिक दलों के बीच आपसी विचार – विमर्श का दौर चरम पर है. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस पार्टी के बीच संभावित विकल्पों पर बातचीत चल रही है. वार्ता एक बार फिर “सब कुछ तय” वाले स्तर से हटकर “हम अभी भी इसे अंतिम रूप देने में लगे हैं” वाले स्तर पर आ गयी है. हालांकि, सभी भागीदार इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि वे एक ठोस और मजबूत गठबंधन बनाने में कामयाब होंगे.

अखिलेश यादव के एक विश्वस्त सहयोगी ने द सिटिज़न को लखनऊ से फ़ोन पर बताया कि अभी तक सीटों की संख्या को लेकर कोई समझौता नहीं हुआ है और न ही इस बारे में जल्द ही कोई घोषणा होने वाली है. मीडिया में चल रही अटकलबाजियों के बीच उन्होंने स्पष्ट किया, “निश्चित रूप से हमारे बीच बातचीत चल रही है. लेकिन फिलहाल हम किसी अंतिम समझौते की घोषणा करने के पक्ष में नहीं हैं. इसके अलावा, कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखने की बात में भी कोई सच्चाई नहीं है.”

एक संयुक्त विपक्ष उत्तर प्रदेश में भाजपा की राह मुश्किल कर देगा. चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 2014 में उत्तर प्रदेश में डाले गये कुल मतों में से भाजपा का हिस्सा 42.63 प्रतिशत था. बसपा को 19.77, कांग्रेस को 7.53 और सपा को 22.20 प्रतिशत मत मिले थे. सपा, बसपा और कांग्रेस को मिले कुल वोटों का जोड़ भाजपा को मिले वोटों से लगभग 7 प्रतिशत ज्यादा था. मतों का अंतर इस बात का सूचक है कि अगर उस वक्त कोई एक गठबंधन होता, तो भाजपा की सीटों की संख्या राज्य में उसे मिली कुल सीटों के मकाबले बहुत ही कम होती.

वास्तविक मत प्रतिशत


एक महागठबंधन होने की स्थिति में प्राप्त होने वाले मतों का प्रतिशत 2014 में


हालांकि, उस वक्त एक काल्पनिक गठबंधन द्वारा छोड़े जाने वाले असर को ठीक – ठीक जानने के लिए हमें सभी 80 सीटों पर नजरें दौड़ानी होगी और उन सीटों पर हार - जीत के अंतर पर गौर करना पड़ेगा. द सिटिज़न को प्राप्त एक आंकड़े के अनुसार, अगर भाजपा और महागठबंधन के बीच दो – ध्रुवीय मुकाबला हुआ होता, तो भाजपा को 80 सीटों में से सिर्फ 26 सीटों पर ही जीत नसीब हुई होती.

अन्य सभी सीटों पर कांग्रेस, बसपा और सपा का संयुक्त मत कुल मतों का 50 प्रतिशत से अधिक था. रोचक बात यह है कि भाजपा की 26 सीटों में से 17 पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हैं, जहां 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण हुआ था.

यही नहीं, इन 26 सीटों में से, जहां पार्टी के पास कुल मतों के 50 प्रतिशत से अधिक मतों के साथ स्पष्ट बहुमत हो सकता था, 3 में हाल ही में हुए उप-चुनावों में विपक्षी दलों को जीत मिली. ये सीट हैं - कैराना, फूलपुर और बीजेपी के लंबे समय तक गढ़ रहे गोरखपुर.

2014 के लोकसभा चुनावों में वास्तविक परिणाम

2014 में महागठबंधन होने की स्थिति में अनुमानित परिणाम


विशेषज्ञों का मानना है कि एक महागठबंधन के सामने होने की स्थिति में 2014 के मुकाबले इस बार भाजपा को और अधिक नुकसान उठाना पड़ सकता है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और बिहार में भाजपा की काफी जमीन खिसक चुकी है. अनुमानित आंकड़ों के हिसाब से भाजपा को उत्तर प्रदेश में 20 से भी कम सीटें मिलने का खतरा है.

संभावित महागठबंधन में अजित सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकदल के शामिल होने पर भाजपा को होनेवाला सीटों का नुकसान और अधिक बढ़ सकता है. गौरतलब है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में लोकदल खासा असर है. इसी इलाके में 2014 में भाजपा काफी मजबूती से उभरी थी और बड़े अंतर से जीती थी.

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के अभय कुमार दूबे का मानना है कि बढ़ता कृषि संकट, दलितों में भाजपा - विरोधी भावना, कुशासन के अन्य पहलू, नोटबंदी तथा विपक्षी दलों का गठबंधन भाजपा के लिए कड़ी चुनौती साबित होंगे.

श्री दूबे ने द सिटिज़न को बताया, “अगर सपा, बसपा, कांग्रेस और आईएनएलडी के बीच एक गठबंधन बनता है, तो उसकी ताकत कुछ ऐसी होगी कि उसे न सिर्फ इन पार्टियों के परंपरागत वोट मिलेंगे बल्कि उनलोगों के वोट भी अच्छी खासी तादाद में हासिल होंगे जो हवा का रुख को देखकर अपना मत तय करते हैं. गठबंधन में कांग्रेस की मौजूदगी उन समुदायों के वोट सुनिश्चित करेगी जो बसपा – सपा के साथ नहीं जुड़ना चाहते. मेरी समझ से इस किस्म का एक गठबंधन 2019 में भाजपा के लिए राज्य में 10 -20 सीटें जीतना भी मुश्किल कर सकता है.”

यो तो चुनाव में अभी कुछ महीने बाकी हैं, लेकिन राजनीति में इसे एक लंबा समय माना जाता है.

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