गंगा पर विमर्श में लोक पक्ष गायब हैं

गंगा पर विमर्श में लोक पक्ष गायब हैं

Update: 2019-01-29 15:29 GMT

गंगा के बारे में जो धारणा भारतीय जनमानस के बड़े हिस्से में सचेतन खड़ी की गई हैं, वह केवल धार्मिकता से जुड़ी है।वह धार्मिकता भी बेहद एकांगी है।इस पूरी धारणा ने मानवीय जीवन और खास तौर से समाज की सामूहिक चेतना को बुरी तरह से खंडित किया है। प्रकृति के साथ जीवन के रिश्तों को समझने व उसे समृद्ध करने की लोक चेतना को बुरी तरह भटकाव में डाला है।

गंगा का महत्व, वह चाहें जिस रूप में व्यक्त किया जाता हो, वह जीवन के उद्दात मुल्यों व उद्देश्यों में ही निहित है। गंगा समस्त जीवन का हिस्सा है।दुनिया की तमाम नदियों के महत्व को मानव सभ्यता ने उनके साथ अपने रिश्ते और अपने अनुभवों से समझा हैं।हर नदी के साथ कई तरह के मिथकों को जोड़ा गया है।उन्हें धार्मिक लोग अपने धर्मों के जरिये महत्ता प्रदान करते हैं।विराट जीवन के और दूसरे जो पक्ष है उन्होने अपने तरीके से नदियों को उसका स्थान दिया है।जो धर्म नहीं मानता उसके लिए भी गंगा व किसी नदी का उतना ही महत्व हैं। जो तटों के किनारे तीर्थ स्थलों पर नहीं जाता उसके लिए भी उतना ही महत्व है। जो कभी गंगा स्नान के लिए नहीं जाते उनके लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। गंगा के महत्व को भारत और आसपास के इलाकों तक के विशाल दायरे में उसके बहाव को हिसाबी किताबी भाषा में भी व्यक्त किया जाता है।लेकिन इस तरह आंकना भी हमारी सीमा है जो कि गंगा की विराट सीमा के मुकाबले बेहद सीमित है।

यह सोचने का बेहद साधारण तरीका हो सकता है कि गंगा तब भी थी जब उद्योग नहीं थे। शहर, नगर नहीं थे। गंगा तब भी थी जब मुगलों का शासन था और उसके बाद अंग्रेजों का शासन रहा। उससे पहले धर्म भी नहीं था।वेद पुराण का या किसी भी धार्मिक ग्रंथ का काल चाहें जितना पुराना हो, वह गंगा जैसी नदियों के काल से पुराना नहीं है। गंगा के बनने का निश्चित काल जो है वह अनुमान पर आधारित हैं। इतना समझना जरूरी है कि मनुष्य और जीवों ने गंगा जैसी नदियों के साथ अपने जीवन और सभ्यता की यात्रा शुरू की। गंगा ने उसकी चेतना को सामूहिकता में गढ़ने में मदद की और समृद्ध भी किया। उसकी भाषा के निर्माण में उसकी गति ने और लहरों ने शब्दों को सृजित किया। गीत और संगीत की धुनें और राग तैयार करने के लिए प्रेरित किया।जो आदिवासी जंगलों की तरफ ढकेल दिए गए उनके नृत्य़ को देखा जाए तो उनमें नदियों की लहरें और भंवरें मिलेंगी।गद्य और पद्य की दो विधाओं के रूप में सृजित करने का ज्ञान दिया जो कि विचारों की गति और भावों की सूचक है। विज्ञान की चेतना का बीज रोपा हैं। उत्साह और भरोसे का भाव विकसित किया। चिंतन और विचार को आकार लेने में मदद की। उसके ठंडक और ताप ने जीवों की सांसों को संचालित में मदद की। गंगा के बारे में बात इसीलिए जरूरी लगता है क्योंकि गंगा को केवल एक संसाधन के रूप में देखने का जो नजरिया विकसित होता चला गया है, वह हमारे रिश्ते को बेहद छोटा कर देता है। उसके सरोकारों को भी बेहद सीमित कर देता है। गंगा के जिस रूप को एक रूढ़ के रूप में हमारे समय और समाज में स्थापित किया गया है उसमें भी यह साफ दिखता है कि रूढ़ को स्थापित करने के लिए ही गतिशील गंगा का इस्तेमाल भर किया है।

खेत खलिहानों तक पानी, पानी का रास्ता, मछुआरों का जीवन, नाविकों का परिवार, ये सब तो गंगा के तटों के पास के सामुदायिक जीवन की तस्वीरों को उकेरते हैं। गंगा के किनारे न जाने कितने धर्मों के लोग रहते हैं और सबके लिए गंगा उनकी दूसरी चीजों की तरह उनके धर्म जैसी ही है।विभिन्न समुदायों के गंगा पर आश्रित होने का यह लेखा जोखा हो सकता है।जीवन की बहुत सारी क्रियाएं गंगा के तट और उसके पानी के जरिये ही पूरी होती है।लेकिन गंगा की उपयोगिता महज इन रूपों में भी नहीं है। यदि केवल गंगा की समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि को लेकर भी किसी विमर्श का आयोजन हम करते हैं तो उसमें समुदायों के जीवन की कोई तस्वीर नहीं उभर पाती है। इस तरह गंगा के विमर्श में समाजशास्त्र भी पीछे छूट जाता है। गंगा की गहरी और लंबी जड़े जीवन की समस्त चेतना के साथ कैसे जुड़ी हुई हैं, इसका कोई आंकड़ा नहीं दिया जा सकता है।

सूत्रबद्ध रूप से ये कहना चाहिए कि जब किसी भी चीज को महज एक संसाधन मान लिया जाता है तो उस चीज के रूप और महत्व को उस समय का समाज अपने तरीके से स्थापित करता है। समाज से भी मेरा मतलब साफ है कि समाज में जिन मुल्यों, विचारों, सरोकारों का वर्चस्व है और उसका प्रतिनिधित्व करने वाले वर्गों से हैं। गंगा के जिस रूप को और उसके जिस महत्व को यहां स्थापित किया गया है वह लोक चेतना का हिस्सा नहीं है। उसकी धूरी भी लोक हित नहीं है।यह संसाधन के रूप में दो तरह की आधुनिकता के दावेदारों के इस्तेमाल की जगह भर हो गई है।धार्मिक आस्था. कर्मकांड व अंधविश्वास को आधुनिकता की शब्दावली से परिभाषित करने वाला एक ढांचा है और दूसरा उद्योग के जरिये विकास को ही आधुनिकता कहने वाला एक ढांचा है।

आज गंगा को जो लोग बचाने की बात कर रहे हैं, उनका सरोकार क्या है, इसे आज के संदर्भ में समझने की जरूरत हैं। हम सब जानते हैं कि गंगा के पानी के पवित्र होने, गंदा होने, प्रदुषित होने , उसके सिकुड़ने की व्यथा बेहद नई हैं। खासतौर से शहरों का औधोगिक समाज के आधार पर अंधाधुन विकास और मशीनी व रसायनयुक्त औधोगिक विस्तार के साथ ही गंगा, जमुना आदि नदियों को समाज के बड़े हिस्से से काटने की प्रक्रिया शुरू की गई। गंगा क्रम्रश: मैली होती चली गई है तो इसकी वजह असमानता पर आधारित नगरीय सभ्यता का पुराने अर्थो में विकराल होते जाना हैं।महानगरीय सभ्यता ने नया किनारा ढूंढ लिया है और वह मैट्रो हैं।उसके लिए गंगा व दूसरी नादियां महज संसाधन ही सकती है।यानी गंगा में जिस तरह से मैलापन बढ़ता चला गया है वह नगरीय व्यवस्था का है जिसकी गति वर्चस्व की विचारधारा तय करती है। दूसरी तरफ समाज के बड़े हिस्से को उससे काटने का और तटों से पीछे धकेलने का एक लंबा सिलसिला दिखाई देता है और उसके साथ ही उसकी एक धार्मिक पहचान स्थापित करने की योजना भी दिखती है।समाज के बड़े हिस्से से उसका कटाव और उसकी धार्मिक पहचान को स्थापित करने की कोशिश दो साथ साथ चलने वाली समानांतर प्रक्रिया है।इस तरह की प्रक्रिया भारतीय जीवन के विभिन्न पहलूओं में दिखती है।

कहने की कोशिश यह है कि दुनिया में जिस तरह से संसाधनों को अतिक्रमित करने की योजना को अमल में लाया जा रहा है, नदियों के बारे में भी जो दृष्टिकोण हैं, वह उससे भिन्न नहीं है। इसके विस्तार में जाने की जरूरत है।आखिर गंगा को लेकर नई योजनाओं का आदर्श कौन है? जहां नदियों, उसके पानी और तटों को केवल संसाधन के रूप में देखा जाता है। लोक के दर्शन में प्रकृति का मनुष्य और दूसरे जीवों के लिए संसाधन का भाव नहीं होता है। लेकिन जीवन के विविध पहलूओं को महज संसाधन समझ लेने के इस दौरे में हम यदि गंगा व दूसरी नदियों को एक संसाधन के रूप में देखें और उस पर नियंत्रण व अधिकार की नीति की भी समीक्षा करें तो यह बात साफ होती है कि आम जन को उससे वंचित करने की कोशिश की जा रही है। संसाधनों पर नियंत्रण के लिए धर्म और दूसरी तरह की आस्थाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है।धर्म को जबरन लोक से जोड़ने की कोशिश होती है।लोक का दर्शन धर्म नहीं है। संसदीय राजनीति के संदर्भ में कहें तो बहुसंख्यक भावनाओं का दोहन करने की कोशिश की जा रही है।

गंगा के बारे में चिंताओं का स्वर राजनीतिक ही रहा है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिस तरह का उन्मादी साम्प्रदायिक वातावरण देखने को मिला उसी के बीच ऐतहासिक बहुमत से केन्द्र की सत्ता में आए राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान शुरू किया। घोषित मकसद गंगा की सफाई बताया गया था।गंगा की सफाई को लेकर फिर से चर्चा चल रही है।राजीव गांधी की तरह सत्ता में पहुंची नई सरकार ने तो गंगा मंत्रालय तक बना दिया है।लेकिन सफाई सिर्फ लोक चेतना के दोहन का हथियार हैं। वास्तविकता इसके उपर नियंत्रण की नीति से जुड़ी है।

गंगा के साथ जो लोगों के भरोसे,विश्वास का रिश्ता रहा है, उसे कैसे सतह पर लाया जाए यह हमारा उद्देश्य होना चाहिए। गंगा पर अधिकार की चेतना एक राजनीतिक दृष्टि से जुड़ती है।लोक मानवीयता और जीवन के संपूर्ण पक्षों की भाषा से निर्मित एक चेतना है।उस चेतना में जो अपने पराये का बोध विकसित किया गया है और लगातार किया जा रहा है, उसकी धूरी में राजनीति और वर्चस्व है।गंगा की पूरी बहस को नई शब्दावलियों व भाषाओं से जोड़ने की जरूरत है।गंगा के लिए पैसा विश्वबैंक का और संसदीय व्यवस्था में उसकी परियोजना को लागू करने की भाषा बहुसंख्यक धार्मिकता से जुड़ी भर हो तो गंगा अविरल नहीं बह सकती हैं।
 

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