साम्प्रदायिकता के विरोध में दिखना और साम्प्रदायिक राजनीति के लिए जगह बनाने की प्रयोग स्थली

अनिल चमड़िया

Update: 2019-02-10 10:37 GMT

पश्चिम बंगाल में जब नरेन्द्र मोदी की सरकार ने कोलकाता में शारदा चिटफंड के घोटाले के सिलसिले में सीबीआई की टीम को भेजा और उसके बाद प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सीबीआई के रवैये के खिलाफ घरना पर बैठी तो उसकी व्याख्या केन्द्र और प्रदेश के बीच एक संवैधानिक टकराव के रुप में की गई। इसे केन्द्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी बनाम विपक्ष और खासतौर से तृणमूल कांग्रेस के टकराव के रुप में पेश किया गया। लेकिन पश्चिम बंगाल की राजनीति में गहरी दिलचस्पी रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील अरुण माजी ने 4 फरवरी को उस घटना की तमाम व्याख्यों को दरकिनार करते हुए अपनी फेस बुक पोस्ट में एक बिल्कुल भिन्न प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होने 4 फरवरी को अपने पोस्ट में व्यंग्य में लिखा कि किसी तरह की चिंता करने की जरुर नहीं है। सब कुछ एक तयशुदा मसविदे ( स्क्रिप्ट) के अनुसार हो रहा है । सुप्रीम कोर्ट के जरिये यह सारा कुछ ठंडा पड़ जाएगा।

संसदीय राजनीति पेचिदा होती है और यह और पेचिदा होती चली गई है। मसलन जब आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का फैसला नरेन्द्र मोदी की सरकार ने लिया तो लोकसभा में इस फैसले को संविधान सम्मत नहीं मानने वाले संसद सदस्यों के भाषण और उसके पक्ष में मत करने के बीच तालमेल नहीं दिखता है।दूसरा लोकसभा में किसी पार्टी की एक भूमिका दिखती है तो राज्यसभा में उसके विपरीत भूमिका दिखती है। फिर आरक्षण के लिए 13 प्वाइंट रोस्टर की व्यवस्था लागू करने के फैसले पर राजनीति ने यह सुविधा हासिल करा दी कि वे 10 प्रतिशत के सवर्ण आरक्षण के फैसले पर सवाल पर अपने विरोधाभासी रवैये को ढंक सकते हैं । उन्हें यह राजनीतिक स्तर पर विवाद से बाहर करने में मदद करती है।

पश्चिम बंगाल की राजनीति भी इस तरह की पेचिदगियों से भरी पड़ी है। भारत में साम्प्रदायिकता और विभाजन का गहरा असर पश्चिम बंगाल में रहा है फिर भी वहां साम्प्रदायिक राजनीतिक संगठनों की पैठ नहीं बन सकी है। लेकिन यह दिखता है कि एक विचारधारा के तौर पर साम्प्रदायिकता ने अपना विस्तार किया है।पिछले लगभग बीस वर्षों में साम्प्रदायिकता संसदीय राजनीति में प्रतिस्पर्द्दा के केन्द्र में बना हुआ है।साम्प्रदायकिता केवल भाजपा के खिलाफ लड़ने में ही मौजूद नहीं है बल्कि साम्प्रदायिकता भाजपा के लिए जगह बनाने में भी मौजूद दिखता है।इस तरह साम्प्रदायिकता के खिलाफ और साम्प्रदायिकता के खिलाफ दिखकर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली राजनीति एक बड़ी चुनौती बनी है।

पश्चिम बंगाल की राजनीति का अगामी लोकसभा के चुनाव के मद्देनजर संसदीय पार्टियों की भूमिका का विश्लेषण किया जाना चाहिए।पश्चिम बंगाल में दूसरे राज्यों की तरह राजनीतिक गतिविधियां तेज हुई है। यह बात लगभग तय है कि अगामी लोकसभा का चुनाव पार्टियों का मोर्चा लड़ेगी।लेकिन जिस तरह पहले मोर्चा बनते रहे है, उससे भिन्न मोर्चाबद्ध राजनीति इस बार होगी। इस बार पार्टियों के बीच केन्द्रीय स्तर पर कोई मोर्चा या गठबंधन नहीं होगा बल्कि राज्यों के स्तर पर मोर्चा या गठबंधन बनाने की तैयारी में राजनीतिक पार्टियां लगी हुई है। हर राज्य में इसी दृष्टि से राजनीतिक पार्टियां कसरत कर रही है कि उन्हें संभावित मोर्चे या गठबंधन में एक दूसरे के मुकाबले ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल हो सके। पश्चिम बंगाल में शक्ति प्रदर्शन के इरादे से ही ममता बनर्जी ने भी अपनी रैली की और भाजपा एवं सीपीएम के नेतृत्व में भी रैली हुई।निश्चित रुप से यह दावा किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम के नेतृत्व वाली रैली पिछले किसी भी रैली के मुकाबले बड़ी रैली थी। हाल के राजनीतिक घटना क्रम भी बताते हैं कि ममता बनर्जी जिन्हें अपना वोट बैंक मान रही थी वह कमजोर हुआ है।पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी केन्द्र में सत्तारुढ़ भाजपा के खिलाफ दिखती है और उस राज्य में दूसरी पार्टियां कांग्रेस और वाम मार्चा भी उसके खिलाफ है। लेकिन जाहिर है कि संसदीय राजनीति में भाजपा का ही विरोध पश्चिम बंगाल में भी चुनावी गठबंधन का आधार नहीं बन सकता है क्योंकि राज्य में भाजपा विरोधी पार्टियों के बीच भी राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा है।ममता बनर्जी को अपना दबदबा बनाकर रखना है और केन्द्र की राजनीति के लिए अपनी भूमिका के महत्व को सुनिश्चित करना है।

यदि वोटों के प्रतिशत के हिसाव से देखें तो पिछले चुनाव में यह स्थिति उभरकर सामने आती है।तृणमूल कांग्रेस के 34 संसद सदस्य है और भाजपा एवं सीपीएम के दो दो सदस्य एवं कांग्रेस के 4 सदस्य है।मामता बनर्जी को 2014 में 39.3 प्रतिशत मत मिले थे जबकि वाम मोर्चे को 29.5 प्रतिशत मत मिलें थे। कांग्रेस को 9.6 प्रतिशत और भाजपा को 16.9 प्रतिशत मत मिलें।लेकिन ममता बनर्जी के कार्यकाल में यह एक हैरान करने वाली स्थिति यह भी देखने को मिलती है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी के रुप में दिखनी लगी है और सीपीएम एवं कांग्रेस उसकी मुख्य प्रतिद्दंदी के रुप में नहीं दिखती है।यह प्रश्न उठता रहा है कि क्या ममता बनर्जी भी चाहती है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा उनके मुकाबले मुख्य विपक्षी पार्टी के रुप में नजर आए?

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अपनी इस स्थिति को लेकर साफ है कि वे केन्द्रीय स्तर पर महागठबंधन में कांग्रेस को अलग करके एक मोर्चा बनाने पर जोर देती रही है। तेलंगाना और दिल्ली के राजनीतिक नेतृत्व के साथ उनकी नजदीकी का कारण भी यही है कि इन राज्यों के नेतृत्व की तरह ही पश्चिम बंगाल की भी स्थिति है।इस संभावना के आलोक में एक सवाल खड़ा किया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में यदि माकपा (सीपीएम) समेत वाम मोर्चा और कांग्रेस चुनावी गठबंधन कर लें तो क्या ममता बनर्जी भाजपा विरोध के नाम पर पर अपने वोट बैंक को पहले की तरह एकजूट रख सकती है ? सीपीएम की रैली के बाद कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल की संभावनाओं पर बात भी चल रही है और पिछले विधानसभा के चुनावों में उनके बीच यह तालमेल बना भी हुआ था। कांग्रेस और खासतौर से राहुल गांधी के नेतृत्व को सीपीएम से कोई चुनौती नहीं मिलती दिखती है।

पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए भी यह जरुरी है कि वह ममता बनर्जी की ‘साम्प्रदायिकता ' को अपनी मौजूदगी की अनिवार्यता का एहसास लोगों के बीच तेज करें और ममता के लिए यह जरुरी है कि वह भाजपा और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की साम्प्रदायिकता का विरोध में दिखती रहें।
 

Similar News

Uncle Sam Has Grown Many Ears
When Gandhi Examined a Bill
Why the Opposition Lost
Why Modi Won