एक राजनीति की अनेक पार्टियों वाली व्यवस्था की तरफ बढ़ता लोकतंत्र

एक राजनीति की अनेक पार्टियों वाली व्यवस्था की तरफ बढ़ता लोकतंत्र

Update: 2019-04-10 12:48 GMT

इस बदलाव की मुख्य बातें

1. एक दल का उम्मीदवार तो दूसरे दल का चुनाव चिन्ह्

2. एक दल के प्रतिनिधि के नेतृत्व के साथ समझौते के तहत दूसरे दल में रहने पर सहमत

3. गठबंधन के लिए अलग नाम और प्रचार चिन्ह् एवं पार्टी का अलग चुनाव चिन्ह्

उत्तर प्रदेश में चुनावी गठबंधन के लिए साथी का गठन और उसके प्रचार के लिए एक चिन्ह् भारत की चुनावी राजनीति में हो रहे दिलचस्प बदलाव का एक नमूना है।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी , बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन किया है। इसका नया नाम है साथी। यह जानना दिलचस्प है कि साथी का सा तो समाजवादी पार्टी से लिया गया है लेकिन थी अक्षर को बहुजन समाज पार्टी के चुनाव चिन्ह् हाथी से उठाया गया है।

उत्तर प्रदेश में इन पार्टियों के उम्मीदवारों के प्रचार के दौरान यह एक और दिलचस्प नजारा देखने को मिल सकता है कि वे पार्टी के चुनाव चिन्ह् पर मतदाताओं को वोट देने की अपील करेंगे लेकिन प्रचार के लिए दूसरा चिन्ह् भी होगा। इस चिन्ह् के बनने की भी कहानी भारतीय राजनीति के भीतर प्रतीकों के लिए चल रही मारा मारी की ओर संकेत करता है।

साथी का चिन्ह् समाजवादी पार्टी के सायकिल के चक्के और बहुजन समाज पार्टी के हाथी के सूंड से बनाया गया है लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के चुनाव चिन्ह् हैंड पंप के किसी हिस्से को जोड़ने के बजाय सायकिल के चक्के के स्पॉक को हरे रंग से तैयार किया गया है। राष्ट्रीय लोक दल पश्चिम उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश के लिए मुहिम चलाती रही है।हरा गंग हरित का प्रतीक है।

नये नये तरह से शब्दों और चिन्हों को अपने टकसाल में ढालकर अपनी राजनीति का सिक्का चुनावी बाजार में चलाने के कई अनुठे प्रयोग इन दिनों देखने को मिल रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने विधानसभा के चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के पहले अक्षरों से कसाब शब्द तैयार किया था। कसाव को 26/11 के मुंबई हमले के लिए कसूरवार माना जाता है और भारतीय जनता पार्टी कसाब को साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के पक्ष में ध्रुवीकरण के लिए अपने अनुकूल समझती रही है।

भारत में चुनावी राजनीति जिस बारीकी से बदल रही है वह शब्दों व चिन्हों के जरिये प्रगट होती है लेकिन पार्टियों के नेतृत्व जिस तरह किराया खाने वाले मकान मालिक की तरह फैसले कर रहे हैं वह राजनीति का सबसे नया चेहरा हैं।

कर्नाटक में कांग्रेस, जनता दल (एस) और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को सत्तारुढ़ कराने में जनता दल एस के महासचिव दानिश अली की एक भूमिका रही है। वे दो-तीन दिन पहले जनता दल एस से बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो गए। समाचार पत्रों ने दानिश अली के दल छोड़ने की खबरें इस तरह से छापी है कि दानिश अली जनता दल एस के नेतृत्व की सहमति से बसपा में शामिल हुए हैं। जाहिर है कि इसकी जानकारी बसपा नेतृत्व को भी है। एक दल से नाराज होकर दूसरे दलों में जाने की घटनाएं भारतीय राजनीति की सामान्य मानी जाती है। लेकिन एक दल के नेता अपने नेतृत्व और भविष्य के नेतृत्व की सहमति से नई पार्टी में शामिल हो रहे हैं, यह “उत्तर बहुदलीय लोकतंत्र” ( पोस्ट बहुदलीय लोकतंत्र ) की मिसाल है।यह एक राजनीति की अनेक पार्टियों वाली व्यवस्था की तरफ जा रही हैं।

दानिश अली का नेतृत्वों की सहमति और स्वीकृति से अपने नाम के साथ नई पार्टी के जोड़ने की एक मिसाल अपवाद नहीं है। यह एक सामान्य सहमति और स्वीकृति के रुप में सामने आ रही है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने पत्रकारों को यह जानकारी देकर चौंका दिया था कि उन्होने अपने नेतृत्व वाले जनता दल यूनाईटेड में प्रशांत किशोर को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के कहने पर शामिल किया है। प्रशांत किशोर के बारे में यह प्रचार किया जाता है कि वे चुनावी जंग में जिस पार्टी के साथ होते हैं उसके लिए प्रचार का ऐसा रंग ढंग तैयार करते हैं कि उस पार्टी को सफलता मिलने की संभावना होती है। नीतिश कुमार ने प्रशांत किशोर को जनता दल यूनाईटेड का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मनोनीत किया है।

भारतीय राजनीति में यह देखा जाता है कि एक दल के भीतर पूंजीवादी, समाजवादी साम्प्रदायिक, धर्म निरपेक्ष आदि विचारधाराओं के ग्रुप सक्रिय रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के भीतर राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ अपने प्रचारक की तैनाती करती है। मसलन इस वक्त राम माधव को भाजपा में संघ का प्रतिनिघि माना जाता है।

भारत की राजनीति में यह भी देखा गया है कि एक दल के भीतर असंतुष्ट ग्रुप दल के बाहर किसी सामाजिक, जातिगत व धार्मिक संगठन व संस्था के जरिये अपना आधार तैयार करने में सक्रिय रहा है। लेकिन राजीव गांधी की सरकार द्वारा दल बदल रोकथाम कानून बनाए जाने के बाद संसदीय राजनीति में नई तरह की विकृतियां सामने आई है। इन विकृतियों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है। पार्टियों में कई सत्ता के केन्द्र होते थे। पार्टियों में एक मात्र नेतृत्व होते हैं और उनकी सहमति और समझौते से उनके मातहत रहने वाले राजनीतिज्ञ दूसरे दलों में रह सकते हैं।

चुनावी राजनीति के बीच एक यह भी एक नई संस्कृति बन रही है कि उम्मीदवार को किसी और दल का हो सकता है और चुनाव चिन्ह् किसी और दल का हो सकता है। उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा क्षेत्र के लिए हुए उप चुनाव में समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह् पर तब्बसुम हसन को उतारा गया था। तब्बसुम हसन की उम्मीदवारी का प्रस्ताव राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी की ओर से आया था। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कई राज्यों में गठबंधन के लिए यह शर्त रखी जा रही है कि एक दल चुनाव चिन्ह् देगा तो दूसरा दल अपना उम्मीदवार दे सकता है।बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व ने गठबंधन के लिए शरद यादव के सामने यह शर्त रखी है कि वे उसके चुनाव चिन्ह् पर चुनाव लड़े जबकि शरद यादव ने जनता दल यूनाईटेड से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई है और उसका चुनाव चिन्ह् वाद्ययंत्र दुदुंभी है।महाराष्ट्र में प्रकाश अम्बेडकर के सामने भी राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी की कांग्रेस ने ऐसी ही शर्ते रखी है। गठबंधन की राजनीति में यह एक नई संस्कृति देखने को मिल रही है। यह संस्कृति एक दल के उम्मीदवार और दूसरे दल के चुनाव चिन्ह् होने के हालात में एक दूसरे के साथ रहने के लिए बाध्य करने के इरादे की देन है। दूसरे दल का उम्मीदवार जिस दल के चुनाव चिन्ह् पर चुनाव लड़ता है उसे दलबदल कानून के तहत चुनाव चिन्ह् वाले दल के व्हीप और निर्देशों का पालन करने की बाध्यता होती है।
 

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