किसानों को चाहिए आत्महत्याएं रोकने वाला बजट

किसानों को चाहिए आत्महत्याएं रोकने वाला बजट

Update: 2018-02-01 12:16 GMT

आमतौर पर बजट, क्या सस्ता हुआ ? क्या महंगा हुआ ? इन्कम टैक्स की सीमा क्या तय की गयी ? इन्हीं संदर्भों में देखा जाता है। अखबार भी अपनी खबरें इसी आधार पर बनाते हैं। आम किसान को आम बजट से कोई लेना-देना नहीं होता। मध्यम वर्ग की निगाह बजट भाषण पर होती है। ऐसी निगाह देश के किसानों ने अब तक बजट पर रखना शुरू किया नहीं है। परंतु इस बार किसान इंतजार कर रहा है कि चुनाव के अंतिम वर्ष में आने वाले बजट में सरकार उसे क्या-क्या देती है ?

सरकार को आर्थिक सर्वे के आधार पर पहले यह स्वीकार करना जरूरी है कि देश असाधारण कृषि संकट में फंसा हुआ है, जिसके चलते गत 20 वर्षों में साढ़े तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आत्महत्या करने का प्रमुख कारण कर्जा होता है। कर्जा होने का प्रमुख कारण खेती में लगातार घाटा होना है। एक ओर किसानी की लागत महंगाई के साथ लगातार बढ़ने के कारण, दूसरी ओर कृषि उतपाद का दाम लगातार घटने के कारण खेती घाटे में जा रही है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए जरूरी है कि एक बार देश भर के सभी किसानों का कर्जा एक साथ खत्म किया जाय।

किसान कर्जा मुक्ति चाहता है। पिछले वर्ष जिन भी राज्यों में चुनाव हुआ उसमें कर्जा माफी महत्वपूर्ण मुद्दा रहा। पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने किसानों की दो लाख रुपये तक की कर्जा माफी की घोषणा की। सरकार भी बना ली। भाजपा ने कर्जा माफी की घोषणा की उत्तर प्रदेश में सरकार बना ली। महाराष्ट्र में किसानों ने आंदोलन किया। 35 हजार करोड़ की कर्जा माफी पायी। राजस्थान में भी यही हुआ। लेकिन कहीं भी किसानों के संपूर्ण कर्जे माफ नहीं किए गए। घोषणाएं पूरी गयीं लेकिन आधी-अधूरी। पिछले साल ही देश के 190 किसान संगठनों ने मिल कर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया तथा देश के किसानों की कर्जा मुक्ति के लिए 19 राज्यों में 10 हजार किलोमीटर की किसान मुक्ति यात्रा की। किसानों की कर्जा मुक्ति और लागत से डेढ़ गुना दाम किसानों को दिलाने के लिए किसान मुक्ति संसद में बिल भी प्रस्तावित किए गए, जिनको लेकर देश भर में पांच सौ किसान मुक्ति सम्मेलन किए जा रहे हैं। कुल मिला कर देश में किसानों की कर्जा मुक्ति के लिए माहौल बना हुआ है। देखना यह है कि वित्त मंत्री किसानों की कर्जा मुक्ति के संबंध में क्या कुछ घोषणा करते हैं।

हाल ही में प्रधानमंत्री जी का एक साक्षात्कार देखा, जिसमें वे बता रहे थे कि एक एक जिले में 100-150 करोड़ रुपये तक फसल बीमा का पैसा बंटा है। उन्होंने बाकायदा कर्नाटक के भाजपा के सांसद और उस लोकसभा क्षेत्र का नाम भी लिया। दूसरी बात उन्होंने यह भी कही कि सोयल हेल्थ कार्ड (मिट्टी स्वास्थ्य परीक्षण) सबको दे दिये गये हैं। अभी 20 दिन तक मैं मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की मुलतापी तहसील में था तथा किसान मुक्ति सम्मेलन में मध्य प्रदेश के कम से कम 25 जिलों के किसानों से भी एक हफ्ते पहले मुलाकात हुई थी। सभी से पूछा, दौरे में भी हर गांव में पूछा। 2014 के बाद किसी को फसल बीमा का एक भी पैसा नहीं मिला तथा मुलतापी में सोयल हेल्थ कार्ड बनाने वालों ने बताया कि पिछले तीन वर्ष से मिट्टी परीक्षण हेतु मिट्टी लाकर रखी है लेकिन अब तक कार्ड नहीं बने हैं।

प्रधानमंत्री भले ही बार-बार दावा कर रहे हों कि फसल बीमा योजना किसानों के लिए सबसे क्रांतिकारी योजना है तथा किसानों को अपने भविष्य की कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है, परंतु देशभर के आंकड़े यह बतलाते हैं कि किसानों से जो राशि बीमा के प्रीमियम के तौर पर ली गयी है, उसका एक चौथाई हिस्सा भी किसानों को मुआवजे के तौर पर नहीं लौटाया गया है। फसल बीमा की प्रीमियम राशि न्यूनतम एक और दो प्रतिशत ही ली जा रही है यह सरकार का दावा है। सरकार को देश के सभी किसानों की सभी फसलों के बीमा की प्रीमियम राशि के भुगतान का प्रावधान बजट में करना चाहिए, ताकि किसानों पर बीमा के प्रीमियम भरने का अतिरिक्त भार न पड़े।

भारत सरकार माडल कान्ट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट लेकर आ रही है। भारत सरकार को यह चिंता है कि देश में 86 प्रतिशत किसानों के पास 1 हेक्टेयर से कम जमीन है। छोटा रकवा होने के कारण खेती में घाटा हो रहा है। इस कारण वह खेती को कंपनियों को सौंपना चाहती है। सरकार बजट सत्र में इस एक्ट को पारित कराने की तैयारी कर रही है। सरकार का ध्यान उत्पादन पर है। लेकिन उत्पादक पर नहीं है। देश के किसानों ने अधिकतम उत्पादन दिया है। लेकिन सरकार उसको एकनॉलेज करने तक को तैयार नहीं है। मिसाल के तौर पर मुलतापी में एक हेक्टेयर में 60 क्विंटल मक्का का उत्पादन हो रहा है। लेकिन सरकार भावांतर योजना में मक्का का औसत प्रति हेक्टेयर 19 क्विंटल 54 किलो ही लगा रही है। भावांतर योजना का प्रदेश के 10 प्रतिशत किसानों को भी लाभ नहीं मिला है, परंतु हो सकता है, यह योजना केंद्र सरकार के बजट में स्थान पा जाए। यदि ऐसा होता है तो यह किसानों के आंख में धूल झोंकने के बराबर होगा। सीधा-सीधा कानून बनना चाहिए। समर्थन मूल्य से नीचे खरीद करने पर व्यापारियों के लाइसेंस निरस्त किए जाएंगे तथा मुकदमें दर्ज किए जाएंगे।

प्रधानमंत्री ने किसानों की आमदनी दुगुना करने का लक्ष्य बार बार दोहराया है। लेकिन वास्तिविकता यह है कि देश के 18 राज्यों में किसानों की औसत आमदनी 1700 रुपये है। सरकार तब भी उन्हंे गरीब मानने को तैयार नहीं है। दुनिया में 120 रुपये प्रतिदिन से कम आय होने पर किसी भी व्यक्ति को अति गरीब माने जाने का प्रावधान है। लेकिन भारत सरकार उसकी अनदेखी कर रही है। सरकार यदि लक्ष्य पूरा भी करती है तो 3400 रुपये प्रतिमाह तक किसानों की आमदनी पहुंचेगी। जबकि जरूरत के हिसाब से एक परिवार को चलाने के लिए न्यूनतम 18000 रुपये प्रतिमाह की आवश्यकता होती है। अभी स्थिति यह है कि किसानों की वास्तविक आय में लगातार कमी आ रही है। म प्र में सोयाबीन 2001 में साढ़े चार से 5000 रुपये क्विंटल तक बिका था जबकि म प्र में ही भावांतर योजना शुरू होने के साथ ही व्यापारियों दाम इतने अधिक गिरा दिए कि किसानों को सोयाबीन 1500 से 2500 रुपये के बीच बेचना पड़ा। हालांकि भावांतर योजना के समाप्त होने के बाद यह रेट बढ़ गया। लेकिन जब सरकार ने ही 3050 का समर्थन मूल्य घोषित किया है तो समझा जा सकता है कि किसान को प्रति क्विंटल 17 साल बाद डेढ़ से दो हजार रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है।

यदि केंद्र सरकार अपने लक्ष्य पर कायम रहते हुए किसानों की आमदनी दुगुना करने का लक्ष्य हासिल करना चाहती है तब उसे समर्थन मूलय को दुगुना करना होगा, या फिर किसानों की प्रतिमाह केंद्र सरकार के सबसे छोटे कर्मचारी को मिलने वाले वेतन 25000 रुपये प्रतिमाह की आय को सुनिश्चित करने का बजट में प्रावधान करना होगा। ऐसी योजना बनाती सरकार दिख नहीं रही है।

किसानों को सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना भी एक अहम मुद्दा है। किसानों की पेंशन को लेकर उड़ीसा सहित देश के कई इलाकों में आंदोलन चल रहे हैं। कुछ राज्य सरकारों ने किसान पेंशन की घोषणा भी की है। आम बजट में किसानों के लिए प्रतिमाह 5000 रुपये की पेंशन का इंतजाम कर सरकार कम बजट में वाहवाही हासिल कर सकती है। परंतु सरकार जब लगातार कल्याणकारी योजनाओं का बजट कम करती जा रही है तब उससे यह अपेक्षा करना भी दूर की कोडी होगी।

भंडारण किसानों की बड़ी समस्या है, जिसके चलते उसे अपना कृषि उत्पाद औने-पोने दामों पर व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। भंडारण व्यवस्था के अभाव में किसान कभी टमाटर, कभी आलू, कभी प्याज सड़क पर फेंकने को मजबूर होता है। भंडारण की व्यवस्था हेतु पंचायत स्तर पर कोल्ड स्टोरेज बनाने की आवश्यकता है। कोल्ड स्टोरेज के निर्माण के लिए सीधे केंद्र सरकार द्वारा पंचायत स्तर पर किसानों की सहकारी समितियों को बजट उपलब्ध कराना चाहिए।

फिलहाल सरकार का नजरिया किसानों की हर तरह की सब्सिडी खत्म करने का है। डीजल और पेट्रोल की सब्सिडी समाप्त की जा चुकी है। केवल कैरोसिन आयल की सब्सिडी जारी है। जरूरत किसानों की सेहत सुधारने के लिए सब्सिडी बढ़ाने की है। किसानी की लागत में बिजली और डीजल का खर्चा काफी अधिक होता है। यह जरूरी है कि देशभर के किसानों को पंजाब की तरह निःशुल्क बिजली मुहैया कराई जाय, तथा बिजली की कीमत की भरपाई सभी राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा की जाय। इसी तरह का मसला डीजल का है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में डीजल और पेट्रोल की कीमत कम होने के बावजूद भारतीय उपभोक्ताओं को उसका लाभ कंपनियों द्वारा नहीं दिया गया है। केंद्र और राज्य सरकारें अलग अलग किस्म के टैक्स डीजल और पेट्रोल पर लगाती हैं, जिसके चलते पेट्रोल और डीजल के दाम दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत में बहुत अधिक हो जाते हैं। किसानों को आधे दाम पर प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता के मुताबिक डीजल उपलबध कराया जाना चाहिए, जैसा कि बिहार में किया जा चुका है।

सवाल यह उठता है कि इतना पैसा आयेगा कहां से ? इसका एक ही जवाब है- कार्पोरेट टैक्स तथा पैत्रिक सम्पत्ति से। सरकार लगातार कार्पोरेट टैक्स घटाती चली जा रही है। केंद्र सरकार ने गत 3 वर्षों में कार्पोरेट को 14 लाख करोड़ की छूट दी है। आजादी के बाद 48 लाख करोड़ की छूट दी गयी है। उद्योगपतियों का लाखों करोड़ रुपया नान परफोर्मिंग एसेट (एनपीए) के नाम पर माफ कर दिया गया है। 2014 में बैंकों को 2 लाख 80 हजार करोड़ रुपया तथा दिसंबर 2017 में 80 हजार करोड़ रुपया बैंकों को उपलब्ध कराया गया, ताकि उन्हें डूबने से बचाया जा सके। सरकार को कार्पोरेट टैक्स 50 प्रतिशत करना चाहिए तथा नीतिगत तौर पर यह फैसला लेना चाहिए कि जिन भी कार्पोरेट पर एक करोड़ भी बकाया है उनसे पहले पूरी बकाया राशि वसूल की जाएगी, उनकी सम्पत्ति की नीलामी-कुर्की की जाएगी। वह पैसा किसानों के कल्याण में खर्च किया जाएगा। इसके बाद ही नये कर्जे दिए जाएंगे।

आर्थिक अपराध करने वालों पर बड़ी जुर्माना राशि लगाने की जरूरत है। इसी तरह भ्रष्टाचार साबित होने पर भ्रष्ट व्यक्ति की पूरी संपत्ति नीलामी-कुर्की करने का एक कानून बना कर लाखों करोड़ रुपया सरकार अर्जित कर सकती है तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश भी लगा सकती है। पेशेवर अपराधियों को आजीवन कारावास तथा फांसी की सजा होने पर उनकी संपत्ति नीलाम और कुर्क करने का प्रावधान करके भी संसाधन जुटाए जा सकते हैं।

किसानोन्मुखी बजट तभी बनाया जा सकता है जब राजनैतिक इच्छाशक्ति हो। दिखावे के लिए तो इस बार किसानोन्मुखी बजट बनना तय ही है। चुनाव के एक वर्ष पहले का बजट होने के कारण सरकार की यह मजबूरी है कि वह इस बजट में किसानों को प्राथमिकता देता दिखलाई पड़े। लेकिन यह आंकड़ेबाजी तक सीमित रहेगा तो उसका कोई लाभ सरकार को चुनाव में नहीं मिल सकेगा। ऐसा बजट जिससे किसानों की आत्महत्या रुक सके। किसानी छोड़ कर जाने वाले युवा, खेती की ओर पुनः आकर्षित हो सकें, यह तभी संभव होगा जब खेती पर निर्भर 65 प्रतिशत आबादी को उसके अनुपात में बजट उपलब्ध कराया जाएगा, तभी किसानों की दृष्टि से बजट को न्यायपूर्ण कहा जा सकेगा।

आजादी के बाद से ही किसानों का अलग से बजट पेश करने की शुरूआत की गयी होती तो किसान-किसानी और गांव के सवालों पर सरकारों का बेहतर फोकस हो सकता था।

(डा. सुनीलम पूर्व विधायक, किसान संघर्ष समिति)

Similar News

Ab Ki Baar, Kaun Sarkar?
The Role Of Leadership
The Terror Of Technology
The 3 Men With A Spine
The Grand Indian Fiesta