समाजवादियों के समक्ष चुनौतियां

समाजवादियों के समक्ष चुनौतियां

Update: 2018-05-22 15:28 GMT

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की 84 वर्ष पहले स्थापना की गई थी। इन वर्षों में अपनी राजनीतिक यात्राओं से गुजरते हुए समाजवादियों के समक्ष आज तमाम सवाल हैं। सबसे पहला सवाल यह है कि समाजवादी 84 वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत प्रभावशाली वैचारिक संगठन बनाने में कामयाब क्यों नहीं हुए ? आचार्य नरेंद्र देव, जेपी, डा लोहिया से लेकर मधु लिमये, मधु दण्डवते, जार्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर, राजनारायण, रविराय, जेएस पटेल जैसे सैकड़ों राष्ट्रीय नेताओं का मार्गदर्शन मिलने के बावजूद समाजवादी विचार समाज और देश में क्यों सिकुडता चला गया ? कांग्रेस पार्टीके भीतर समाजवादियों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी 84 साल पहले बनाई थी, 1948 में अलग हुए। 1967 में 7 राज्यों में संविद सरकारें बनीं। 1977 में पहली गैरकांग्रेस सरकार बनी। उसके बाद कई बार गैरकांग्रेसी गठबंधन की सरकारें केंद्र में बनीं। बिहार और उत्तर प्रदेश में समाजवादियों ने लगातार सरकारें बनवाईं। समाजवादियों को यह भी सोचना होगा कि इन सरकारों ने कितने समाजवादी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया तथा सरकार में रहते हुए संविधान को मजबूती देने के लिए क्या क्या प्रयास किये ? हमें यह स्वीकार करना जरूरी होगा कि हमारे प्रयासों में कमी रही। एकजुटता में

कमी रही। लगातार टूटने और जुटने का सिलसिला चलता रहा। आज तक जो कुछ हुआ उससे आगे कैसे बढ़ा जाए ताकि समतावादी, न्यायपूर्ण समाज की स्थापना हो सके। देश विकास की नयी परिभाषा के साथ आगे बढ़ सके। कम से कम न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति 130 करोड़ नागरिकों की, की जा सके। संवैधानिक अधिकारों को देश के हर नागरिक को दिलाया जा सके। इस सब पर विचार करना सम्मेलन के लिए जरूरी होगा।

आज देश चौतरफा संकट के दौर से गुजर रहा है। राजनीति कुछ कार्पोरेट घरानों एवं समाज में आधिपत्य जमाये सामाजिक समूहों के हाथों में सिमटती जा रही है। अन्याय, अत्याचार, शोषण, लूट और भ्रष्टाचार लगातार बढ़ता जा रहा है। जनता तक सत्ता पहुंचाने का जो सपना आजादी के आंदोलन के दौरान शहीद हुए डेढ़ लाख से अधिक शहीदों और लाखों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा था वह तिरोहित होता जा रहा है।

नरेंद्र मोदी सरकार ने 2014 के चुनाव में अच्छे दिन से लेकर सबका साथ सबका विकास करने का वायदा किया था लेकिन उनकी सरकार की सभी घोषणाएं ढपोलशंखी एवं जुमलेवाजी साबित हुई हैं। किसानों की कर्जामाफी तथा डेढ़ गुना दाम देने का वायदा अभी तक पूरा नहीं हुआ है। 2 करोड़ रोजगार का वायदा करने वाली सरकार 20 लाख रोजगार भी सालाना नहीं दे पा रही है। नोटबंदी के चलते लाखों रोजगार में लगे लोग बेरोजगार हो गये हैं। काला धन वापस लाकर 15 लाख रुपये हर नागरिक के खाते में पहुंचाने का वायदा सरकार भूल चुकी है। महिलाओं के साथ किया गया आरक्षण का वायदा सरकार की नजर से ओझल हो गया है।

सरकार केवल पूरे देश को हिंदू-मुस्लिम के बीच बांटने, पूरे देश में भगवाकरण के काम में जुटी है। समाज के विभिन्न वंचित एवं अल्पसंख्यक समूह तनाव, असुरक्षा तथा हिंसा से पीड़ित हैं। गौ-रक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों की हत्याएं की जा रही हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं तथा संवैधानिक मूल्यों पर लगातार कुठाराघात किया जा रहा है। न्यायपालिका को प्रभावित करने का सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है, जिसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा है। केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दिया है। वायदे के अनुसार आजतक देश में लोकपाल और लोकायुक्तों की नियुक्ति नहीं की गयी है। ललित मोदी, विजय माल्या तथा नीरव मोदी को सुनियोजित तौर पर संरक्षण देकर देश से भगाना यह बताता है कि सरकार केवल कार्पोरेट को देश की आम जनता को लूटने की ही

छूट नहीं दे रही बल्कि लुटेरों को भगाने के षडयंत्र में भी शामिल है। केंद्र सरकार देश में संघीय ढांचे को कमजोर कर रही है। उसके खिलाफ दक्षिण के राज्यों को एकजुट होकर बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

केंद्र सरकार सुनियोजित तौर पर देश की विविधता को नष्ट करने का प्रयास कर रही है। सम्मेलन मानता है कि बहुलतावाद का सम्मान ही सच्चा लोकतंत्र है। देश की विविधता पर हमला राष्ट्रीय एकता, अखण्डता को कमजोर करने का सुनियोजित षडयंत्र है। सत्तारूढ़ दल संवैधानिक मूल्यों पर लगातार हमला कर रहा है जिसके चलते लोकतंत्र खतरे में है। स्थापना सम्मेलन में आए साथियों ने लोकतंत्र को लाने और बहाल करने के लिए तमाम कुर्बानियां दी हैं। केंद्र सरकार ने समाज में ऐसे समूहों को ताकत दी है जो ऐतिहासिक तौर पर अन्याय से पीड़ित समूहों को इंसान मानने को तैयार नहीं है।

कल होने वाले सम्मेलन में मानवीय मूल्यों का तिरस्कार करने वाले समूहों को चेतावनी दी जानी चाहिए कि सरकार सामाजिक न्याय के रास्ते में बाधा पैदा करना बंद करें। ज्यातिबा फूले, सावित्री बाई फूले, साहूजी महाराज, कबीर, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, बाबा साहेब अम्बेडकर, यूसुफ मेहरअली, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, चौधरी चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भेदभाव रहित समतापूर्ण समाज बनाने के लिए हर कुर्बानी देकर संघर्ष करने की घोषणा भी करनी चाहिए। सम्मेलन में मंडल कमीशन की सभी सिफारिशों को अक्षरशः लागू करने तथा सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने के लिए विभिन्न राज्यों में कार्यक्रम आयोजित करने का ऐलान करना चाहिए।

केंद्र सरकार नकली राष्ट्रवाद के नाम पर नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को नकार रही है। सम्मेलन को सरकार की साजिश को विफल करने तथा जनता को मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ी समस्याओं को लेकर गोलबंद करने का निर्णय लेना चाहिए।

शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ पीने का पानी और रोजगार उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। केंद्र सरकार इन जिम्मेदारियों से पीछे हटती है। उसने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र का पूरी तरह निजीकरण करने का हर संभव प्रयास किया है जिसके चलते आम जनता शिक्षा और स्वास्थ्य की सेवाओं से पहले से अधिक वंचित होती जा रही है। स्वास्थ्य बीमा के नाम पर सरकार वाहवाही लूटना चाहती है लेकिन वास्तकिवता यह है कि जिस तरह से फसल बीमा योजना में 25 हजार करोड़ किसानों से प्रीमियम वसूल कर किसानों को 8 हजार करोड़ ही मुआवजा दिया गया, बाकी पैसा बीमा कंपनियों ने लूट लिया, वही स्वास्थ्य बीमा क्षेत्र में होने जा रहा है।

बेरोजगारी की समस्या को देश के युवाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या मानता है तथा इसे हल कराने के लिए काम के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल कराने हेतु राष्ट्रव्यापी संघर्ष चलाने की घोषणा की जानी चाहिए। चुनाव में पूंजी लगातार हावी होती जा रही है जिसके चलते आम राजनैतिक कार्यकर्ता का चुनाव लड़ना और जीतना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। चुनाव सुधार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। ईवीएम के इस्तेमाल को लेकर पूरा देश आशंकित है। ईवीएम की गिनती पर किसी को भरोसा नहीं है। इस कारण ईवीएम की गिनती के साथ साथ वीवीपीएटी की पर्चियों की भी गिनती करने की मांग किया जाना आवश्यक है, ताकि देश के मतदाताओं का चुनाव प्रक्रिया में विश्वास बहाल हो सके।

देश में निराशा का वातावरण फिर से बन रहा है. यूपीए सरकार के दौरान जब निराशापूर्ण परिस्थिति देश में बनी थी तब अन्ना के आन्दोलन ने देशभर में आशा पैदा की थी. भ्रष्ट्राचार मुक्त भारत के आवाहन का नतीजा यह हुआ कि देश के मतदाताओं ने यूपीए सरकार को ही हटा दिया, जिसके 4 वर्षों के कार्यकाल से अब फिर देश की जनता निराश है. इस निराशा को ख़त्म करने कि जिम्मेदारी भी समाजवादियों की है. अन्ना जी ने हालही के दिनों में फिर से आन्दोलन खड़ा करने का प्रयास किया था लेकिन जनता ने साथ नहीं दिया. हालाँकि उन्होंने जो मुद्दे उठाये थे वे जरुरी थे. एक तरह से उन्होंने सरकार को अपने वायदे फिर से याद दिलाने की कोशिश की थी, लेकिन सरकार ने कोई तवज्जो नहीं दी.

मेरा जैसा व्यक्ति निराश नहीं है. क्योंकि मुझे लगता है कि देश में वातावरण बदल रहा है। हाल ही में उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के लोकसभा के चुनाव नतीजों से यह स्पष्ट हो गया है कि देश का मतदाता केंद्र सरकार को बदलना चाहता है।

किसानों के बीच संपूर्ण कर्जामुक्ति और सभी कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य लागत से डेढ़ गुना तय करने के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार व्यापक एकजुटता दिखलाई दे रही है। इसी एकजुटता के चलते सरकार को भू-अधिग्रहण संबंधी अध्यादेशों को वापस लेना पड़ा है। 192 किसान संगठनों ने मिलकर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के माध्यम से दो बिल तैयार कर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन छेड़ा है, जिसका लोकतांत्रिक जनता दल समर्थन करता है। 21 विपक्षी दल पहली बार मिलकर किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।

केंद्र सरकार ने श्रमिकों के द्वारा लंबे संघर्ष बाद हासिल अधिकारों पर घातक हमला करते हुए श्रम कानूनों को कार्पोरेट के पक्ष में बदला है। श्रमिक संगठनों ने भी व्यापक एकजूटता बनाकर केंद्र सरकार को कड़ी चुनौती दी है। समाजवादियों के प्रतिनिधि श्रमिक संगठन हिंद मजदूर सभा द्वारा श्रमिक संगठनों की एकजुटता की अगुआई की जा रही है। सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों को हिंद मजदूर सभा को हर स्तर पर मजबूत करने का संकल्प लेना चाहिए, ताकि मजदूर विरोधी नीतियों को बदला जा सके तथा श्रमिकों का सम्मानजनक एवं सुरक्षित रोजगार बचाया जा सके, साथ ही साथ नये रोजगार के सृजन हेतु नीतियां बनवायी जा सकें।

देश में छात्रों और युवाओं के बीच 1974 के बाद एक बार फिर एकजुटता देखी जा रही है। जेएनयू, एएमयू उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलन को जिस तरह से राष्ट्रविरोधी साबित करने की कोशिश की गयी उसकी निंदा जानी चाहिए तथा छात्र युवा आंदोलन को समर्थन देने का ऐलान भी होना चाहिए.

अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून में संशोधन के खिलाफ हुए राष्ट्रव्यापी विरोध से यह साबित हो गया है कि अब अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग जागरूक होकर संगठन बनाकर संघर्ष करने के लिए मैदान में हैं।

भारत बंद के दौरान देश में हजारों आन्दोलनकारियों पर फर्जी मुकदमे दर्ज किये गए है. केंद्र सरकार और राज्य सरकारें इन मुकदमों को वापस लें इसके लिए भी समाजवादियों को आन्दोलन की घोषणा करनी चाहिए.

समाजवादियों द्वारा अकेले आज कोई परिवर्तन किया जाना भले वह सत्ता-सरकार क्यों न हो संभव नहीं है. इसके लिए वामपंथियों, गांधीवादियों, सर्वोदयी, अम्बेडकरवादियों एवं जन आंदोलन से जुड़ी ताकतों को एकजुट करना तथा व्यापक विपक्षी गठबंधन तैयार करना आवश्यक होगा।
 

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