बस्तर और बाजार की जिंदगी

बस्तर और बाजार की जिंदगी

Update: 2018-01-25 13:23 GMT

(दिल्ली में डाक्टरी के पेशे से मुक्त होकर आशु कबीर इन दिनों बस्तर में है। बस्तर और बाजार के जीवन के अंतर्विरोधो को उन्होने शिद्दत से महसूस किया है। इस तीसरी आखिरी किस्त में उनके दिलचस्प अनुभवों को यहां साझा कर रहे हैं। वे बताते है कि वस्तर के लोगों के विकास के नाम पर उनको सभ्य बनाने के नाम पर विभिन्न योजनाओं से कैसे उनका शोषण हो रहा है जब आप उनसे मिलेंगे तो समझ जाएंगे।)

वे अपने साप्ताहिक बाजार में भी किसी तरहं की कोई पॉलीथिन या प्लास्टिक की कोई वस्तु प्रयोग नही करते। पत्ते से बनी पत्तल का प्रयोग करते हैं । खाने को बांट कर खाते हैं । अपनी दिनचर्या में सुबह धान का मांड पीते है जिसे पेज कहा जाता है। उसे लोकी के खाली खोल जिसे तुम्बा कहा जाता है उसमें रखते हैं। उनके पास आधुनिक बाल्टी,मग या कोई और बर्तन नही है। अपना खाना मिट्टी के घड़े को तोड़कर उसके नीचे वाले हिस्से को कढ़ाई के तौर पर प्रयोग किया जाता है। वे किसी प्रकार के गर्म मसाले का प्रयोग नही करते और न ही किसी प्रकार के अन्य सहायक सामग्री का करते हैं। हम लोग विकास की चाह में एक ऐसी दौड़ में शामिल हो गए हैं हम उस जीवन के संदर्भों को ही भूल गए है जहां जिंदगी की ताजगी का एहसास होता है। हम तो सभ्य हैं ज्यादा से ज्यादा संसाधनों पर कब्जा करना हैं और फिर ये भी डर रहता है कि पड़ोस से कोई आकर उसे चुरा न ले तो ताला लगा देते हैं। कुछ विदेशों में बड़े तालों के पीछे छुपा देते हैं जबकि आदिवासियों को किसी से कोई खतरा नही है ।उनके लिए सब कुछ सांझा है सब बांट कर खाना है , किसी का व्यक्तिगत नही इसलिए घर मे ताला नही है और बाजार में तराजू भी नही है ।

समानता के मायनो को भी आदिवासी शायद हमसे बेहतर जानते है और उनका अपने दैनिक जीवन मे पालन भी करते है। हम सभ्य समाज के लोग हर जगह कानूनों के जरिये समस्या का समाधान तलाशते हैं जबकि वे उस स्थिति को ही पैदा नही होने देते जहां उन कानूनों की जरूरत पड़े। ऐसा नही है कि वहां कानून नही है वहां भी कानून है लेकिन वो सिर्फ़ सहयोगी तौर पर न कि एकमात्र हथियार बन जाये।

सभ्य समाज कन्या भ्रूण हत्या का सबसे बड़ा पोषक है, जो जितना पढ़ा लिखा है वो उतना ही इसमें संलिप्त है । हम विचारों के स्तर पर स्त्रियों को पुरुष के बराबर मानने को तैयार नही हैं। हम बात करते हैं कि नारीवाद का तीसरा चरण है, दलितों के विमर्श का भी तीसरा चरण है जबकि यहां सब कुछ बराबर है। कोई छोटा बड़ा नही है । कामकाज में कोई अलगाव नही है बल्कि महिलाओं के पास ज्यादा अधिकार नजर आते हैं । महुवा ओर सेल्फी को बनाने से लेकर उसको बाजार में बेचने ओर पीने तक। किसी प्रकार से किसी बच्चे या बूढ़े के साथ कोई शोषण नही होता ।ये लोग सभी की स्वतंत्रता के पक्षधर रहे हैं और इसे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में जीते हैं। हमारे सभ्य समाज मे महिला चाहे कितने ही बड़े पद पर हो उसे हर दिन ये एहसास करवाया जाता है कि तुम लड़के के पीछे हो आगे नही। फिर चाहे वो महिला शिक्षिका से लेकर बड़ी अधिकारी ही क्यों न हो।पहले उसकी पढ़ाई पर खर्च, पालन पोषण करना फिर शादी में इतना बड़ा दहेज। स्थिति तो यहां तक पहुंच गई कि दिखाने के लिए अपने दहेज की गाड़ी को स्टेज के पास लगा देते हैं और इसे हमने एक नॉर्म बना लिया कि ऐसा तो होता ही है। इससे अन्य लोगों पर उस गाड़ी या अन्य दहेज का क्या असर पड़ रहा है ये हम सोचना ही नही चाहते। हमारे यहां झाड़ू से लेकर पोछा लगाने, खाना बनाने या गाय का दूध निकालने का सब काम केवल महिलाएं ही करती है जबकि वनवासियों में ऐसा नही है। वहां सब बराबर हैं । जन्म से ही बच्चों में फर्क नही करते। सब मिलकर काम करते हैं।

आदिवासियों में सत्ता को लेकर किसी प्रकार का कोई संघर्ष नही चलता इसलिए उस समाज मे झूठ धोखेबाजी का कोई स्थान नही है । सभ्य समाज मे सत्ता की चाह सबसे बड़ी है , केवल सत्ता की चाह में , हर तरीके से भ्रष्टाचार , अलगाव , सामाजिक वंचना होती है। व्यक्तिगत संबंधो में भी भ्रष्टाचार है। जबकि इनके जीवन में इसकी कहीं कोई जगह नही हैं ।उल्टा हम उनके विकास के नाम पर उनको सभ्य बनाने के नाम पर विभिन्न योजनाओं से कैसे उनका शोषण हो रहा है जब आप उनसे मिलेंगे तो समझ जाएंगे।वो आपको शिकायत भी नही करेंगे। बस आप उस खेल को समझने का प्रयास कीजियेगा जो पढ़े लिखे लोग उनके साथ खेल रहे हैं ।

राशन देने के नाम पर मिट्टी का तेल 4 महीने में एक बार। चिन्नी कभी कभार चने का कुछ पता नही। इंदिरा आवास योजना में कच्ची मिट्टी की ईंटे लगाकर बाहर से रंग कर दिया। मनरेगा की मजदूरी 15 दिन में मिल जानी चाहिए। सिद्धि खाते में आती है ।उसका 6 महीने से कुछ पता नही। कहते है मजदूरी आगे से नही आई। पता नही कहाँ से चलकर आ रही है। 1 रुपए किलो अनाज का तो पता नही , लेकिन जो अनाज बांटने का काम करता है वो चंद दिनों में स्कार्पियो गाड़ी खरीद लेता है। जहां लोकल मीडिया के लोग रोड बनाने के ठेके लेते है ओर बड़े मीडिया समूह की तो खदानें ही है यहां पर । कोई कलेक्टरेट में किराये पर अपनी गाड़ी लगाता है तो कोई मध्यान भोजन को बिना डकार लिए निग़ल जाता है।

उनकी के जंगल के उत्पादों को ओने - पोने दामों पर खरीद कर फिर वापस उन्ही वनवासियों को देकर उसे साफ करवाकर बाहर भेज दिया जाता है।नक्सलियों के नाम पर विरोध के स्वर को हमेशा के लिए शांत कर दिया जाता है । और अदिवासियों के जीवन की विडंबना देखिए उनके चेहरे पे कोई सिकन का भाव नही ।कोई आपसे शिकायत नही, ये है बड़ा दिल ।जब आप कभी ऐसे सफर से लौटेंगे तो शायद जीवन के संदर्भ को समझ पाएंगे और जीवन के मायनों की तलाश कर पाएंगे।
 

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