समय आ गया है जो सच नहीं देखना चाहते है वह दिखाए'

केन्या के ‘आदिवासी’ लेखक न्गूगी के भारत में होने का मतलब

Update: 2018-02-15 12:54 GMT

केन्या के लिजेंड्री लेखक और अनेक अंतरराष्ट्रीय पुस्कारों से सम्मानित न्गूगी व थ्योंगो औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के सबसे चर्चित सिंद्धांतकार और प्रवक्ता हैं। भारतीय साहित्य, जो पिछले कई दशकों से लगातार दलित, आदिवासी और स्त्री सवालों व सृजन से घिरा है, उसके लिए यह अच्छी खबर है कि न्गूगी वा थ्योंगो भारत आ रहे हैं। वे शायद ‘हाशिये का साहित्य’ पर देश में चल रहे विमर्श को सही दिशा में ले जाने में मदद कर सकते हैं। ‘बहुजन साहित्य’ की नई अवधारणा पेश करने वालों को भी उनसे मदद मिल सकती है, बशर्ते वे केन्या के एक ‘आदिवासी’ लेखक को सुनने में दिलचस्पी लें।

न्गूगी 14 फरवरी को कोलकाता में, 16 फरवरी को बैंगलुरू में और 23 फरवरी को भारत की राजधानी दिल्ली में साहित्य और समाज पर अपनी बात रखेंगे।

चूंकि उनके लेखन का केंद्रीय विषयवस्तु औपनिवेशिकता के खिलाफ अफ्रीकी आदिवासी जनता का संघर्ष और सृजन रहा है, इस दृष्टि से वे भारतीय जनता के बहुत करीब हैं। भारतीय समाज और साहित्य में दलित, आदिवासी और स्त्री सवाल वही हैं जिन्हें न्गूगी अफ्रीका के हवाले से बोलते हैं। उनके अनुसार, ‘एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के बीच हमेशा से संबध रहा है, लेकिन हमारे समय में यह संबंध अदृश्य हो गया है। वह इसलिए कि यूरोप इन तीनों के आपसी विमर्शों के बीच अब भी मध्यस्थ बना हुआ है।’ भारतीय और अफ्रीकनों के लंबे संबंधों बीच पले-बढ़े न्गूगी इसीलिए इंसानी समुदायों की एकजूटता और सार्वभैमिकता की पैरवी अपने लेखन में करते हैं। इस अर्थ में न्गूगी का इस समय भारत आना, जब सांप्रदायिक असहिष्णुता चरम पर है, एक महत्वपूर्ण बौद्धिक परिघटना है।

फ्रंटलाइन, 19 मई 2012 के अंक में प्रकाशित अपने लेख ‘एशिया मेरी नजर में’ की शुरुआत ही वे इन पंक्तियों से करते हैं: मैने हमेशा महसूस किया है कि मेरे सामाजिक और बौद्धिक रूपांतरण में यूरोप की भूमिका है। एशिया और लातिन अमेरिका के साथ जिसका कोई अर्थपूर्ण संबंध नहीं रहा है। इसका कारण है कि मैं अंग्रेजी में लिखता हूं। मेरे साहित्यिक नायक अंग्रेजी के हैं। मैं औपनिवेशिक केन्या को भी यूरोप के भूगोल, इतिहास और उसके नजरिए से जानता हूं। यहां तक कि उपनिवेशववाद के खिलाफ चल रहे संघर्ष भी यूरोप की दृष्टि से बाहर नहीं निकल पाते।’

भारतीय लोगों के संबंध में, विशेषकर औपनिवेशिक दिनों में उनके संघर्ष को, अफ्रीका के निर्माण में भारत गिरमिटिया मजदूरों और उद्यमियों के योगदान की चर्चा उन्होंने विस्तार से की है। उन्होंने बताया है कि औपनिवेशिक दिनों में भारत से ले जाए गए मजदूरों का अफ्रीकन आदिवासी समाज और संस्कृति पर कैसा प्रभाव पड़ा है। उनके अनुसार भारतीय चपाती, पराठा और समोसा रूप बदलकर आम अफ्रीकन की जिंदगी के रोजाना के खानपान में शामिल हो गया है। वहीं, बहुत सारी चीजें भारतीय लोगों ने अफ्रीकन समाज से अपना ली है। पर इसी के साथ वे कहते हैं, ‘यह सद्भाव हमेशा नहीं रहता। भारतीय समाज हम अफ्रीकनों से दूरी बरतता है। शॉपिंग सेंटर के काउंटरों को छोड़कर शायद ही हमारे बीच कोई सामाजिक संपर्क रहा है। व्यापारिक और घरेलू काम के लिए ले जाए गए अफ्रीकियों के साथ नस्लीय उत्पीड़न की घटनाएं ‘दूकानवाला भारतीय’ लोगों के द्वारा अक्सर की जाती है, जिससे तनाव और संघर्ष होता है। ‘नकारा’, ‘कामचोर’ ‘जंगली’ जैसे नस्लीय अपमान वाले कुछ शब्द हमारी मातृभाषा गिकुयु में भी घुस आए हैं। जहां तक मुझे अपने बचपन के दिनों की याद है, ऐसा नस्लीय संघर्ष तब नहीं होता था।’

न्गूगी अपने लेखन में उन सभी प्रभावों की चर्चा करते हैं जो समाज में सायास और अनायास ढंग से चलती है। संगठित और असंगठित दोनों रूपों में। जैसे, ईसाइयत के प्रभाव पर उनकी टिप्पणी है कि अफ्रीकन समाज (जिसमें वे खुद को भी शामिल करते हैं हालांकि वे ईसाई नहीं हैं) चाहे या न चाहे चर्च के प्रभाव से खुद को अलग नहीं कर सकता। अपने एक साक्षात्कार में वह कहते हैं, जब वे लीड्स युनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, तब लिखना उनके लिए एक ‘पश्चताप’ की प्रक्रिया थी। उन दिनों उन्हें महसूस होता था कि उन पर पाप का बोझ है जिसकी सफाई के लिए पश्चाताप आवश्यक है। इस तरह न्गूगी दो भिन्न समाजों के बीच होने वाले सांस्कृतिक सम्मिलन और नस्लीय संघर्ष को वे बहुत बारीकी से पकड़ते हैं। उसके बाहरी और भीतरी, सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों पहलुओं की जांच-पड़ताल आदिवासी दृष्टि से करते हैं।

न्गूगी मात्र एक लेखक नहीं हैं। उनकी लेखकीय पहचान के कई आयाम हैं। वे शिक्षाविद् हैं, बहुत अच्छे अध्यापक हैं, नाटककार हैं, राजनीतिककर्मी हैं। पर उनकी एक खासियत जो उनको समकालीन लेखकों से लग करती है, वह है मातृभाषा के साथ उनका गहरा सरोकार। वे मानते हैं कि कोई भी समुदाय मातृभाषा के बिना जीवित नहीं रह सकता। यह लग सकता है कि इसमें नयी बात क्या है। मातृभाषा की महत्ता तो असंदिग्ध है ही। लेकिन जब आप न्गूगी को पढ़ेंगे तब शायद जान सकेंगे कि मातृभाषा से उनका तात्पर्य क्या है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जब वे नैरोबी युनिवर्सिटी के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए थे तब उन्होंने विभाग के दो सहयोगियों के साथ मिलकर ‘अंग्रेजी विभाग’ का नाम बदलने का जोरदार अभियान चलाया था। उनका प्रस्ताव था कि अफ्रीका को अंग्रेजी विभाग की जरूरत नहीं है। इसका नाम अफ्रीकन भाषा-साहित्य विभाग होना चाहिए। उनके इस प्रस्ताव और अभियान की दुनियाभर में प्रशंसा और निंदा हुई थी। लेकिन उनका अभियान रंग लाया और साहित्य के विभाग से अंग्रेजी नाम हटा लेना पड़ा। हालांकि 1970 में इस जीत के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने विभाग से इस्तीफा दे दिया क्योंकि नाम बदलने के बावजूद विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम वही था। जबकि वे चाहते थे कि शेक्सपीयर की जगह पाठ्यक्रम में अफ्रीकी साहित्य और साहित्यकारों को पढ़ाया जाना चाहिए। मातृभाषा और देशी साहित्य के सवाल पर अपने सृजन-संघर्ष की यात्रा में उन्होंने कई बार ऐसा किया है।

इस संदर्भ में भारत न्गूगी से क्या ले सकता है, इस पर भारतीय समाज और साहित्य को जरूर विचार करना चाहिए। विशेष कर के बुद्धिजीवियों, अकादमिकों, साहित्यकारों और हमारे राजनीतिज्ञों को। जो मातृभाषा और देशज-जनपदीय साहित्य के बारे में यदा-कदा बोलते तो हैं, पर लेखन, पठन-पाठन और सार्वजनिक वाचन में उसे कभी महत्व नहीं देते। न्गूगी के अनुसार ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक कि हम अपने विमर्शों से उस मध्यस्थ को बाहर निकाल नहीं फेंकते, जिसे औपनिवेशिक मानसिक गुलामी कहते हैं। खास तौर पर स्कूल और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से जिनमें पाश्चात्य बौद्धिकता का आतंक बुरी तरह से पसरा हुआ है।

अगर आदिवासी साहित्य में आदिवासियों को, दलित साहित्य में दलितों को, स्त्री साहित्य में स्त्रियों को, भोजपुरी में भोजपुरी साहित्य, मैथिली में मैथिली सांहित्य को नहीं पढ़ाया जाता है, फिर इसका क्या महत्व है। कालिदास संस्कृत में भी, हिंदी में भी और बांग्ला या तमिल में भी। इसी तरह शेक्सपीयर अंग्रेजी में भी, हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में भी। जनता की ज्ञान परंपरा को किसी और का बंधुआ बनाने की बजाय हर भाषा-साहित्य को स्वयत्तता हो, और उन्हें भाषिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता मिले, देश की बहुसांस्कृतिक परंपरा के लिए जरूरी है। इसके अभाव में ही भारत दिनोंदिन असहिष्णु होता जा रहा है। यह कितना भयावह है इसका अंदाजा तब लगता है जब हम सरकार के दो प्रमुख साहित्यिक उपक्रमों नेशनल बुक ट्रस्ट या फिर साहित्य अकादमी के प्रकाशनों को देखते हैं। देशी भाषाओं के साहित्य का मतलब या तो लोकगीत व कहानियां हैं या फिर कुछ की जीवनियां। आदिवासी और जनपदीय भाषाओं का समकालीन साहित्य एकसिरे से इनके प्रकाशनों में गायब है। यह बहुत चिंताजनक है कि हिंदी और अंग्रेजी में पढ़ा जा चुका साहित्य फिर-फिर से संताली, बोड़ो और मैथिली में ‘अनुवाद’ के नाम पर धड़ल्ले से छापा जा रहा है। अनुवाद की रूरत संताली, बोड़ो, मैथिली आदि को है कि उसे हिंदी-अंग्रेजी का साहित्य जगत समझे। कालिदास, शेक्सपीयर, टैगोर आदि विश्वसाहित्य में राजनीतिक-सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए कुछ इस तरह से ‘सेफ’ कर दिए गये हैं कि भोजपुरी के भिखारी ठाकुर और संताली के रघुनाथ मुर्मू दोनों ‘अनसेफ’ बने हुए हैं। इसलिए न्गूगी की यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘समय आ गया है जब हम अदृश्य को दृश्यगत बनाएं जिससे दुनिया और महत्वपूर्ण, और अर्थवान बने।’
 

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