गेहूं और चावल से न पानी बचेगा और न पोषण मिलेगा

6 प्रमुख फसलों, धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार और रागी का अध्ययन

Update: 2018-07-17 16:00 GMT

भारत को यदि भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेंहू और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी. इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता. एक किलोग्राम चावल पैदा करने में 3000 से 5000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है, जबकि एक किलोग्राम गेहूं उपजाने में 900 से 1200 लीटर पानी खर्च होता है. यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित आबादी हमारे देश में है और हम तेजी से पानी की कमी की तरफ भी बढ़ रहे है. नदियाँ सूख रहीं हैं और देश के अधिकतर हिस्से का भूजल वर्ष 2030 तक इतना नीचे पहुँच जाएगा जहाँ से इसे निकालना कठिन होगा. देश के अधिकतर हिस्सों में बारिश भी पहले के मुकाबले कम होने लगी है. यह निष्कर्ष कोलंबिया यूनिवर्सिटी के द अर्थ इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल ने अपने अध्ययन से निकाला है, और इनका शोधपत्र साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के जुलाई अंक में प्रकाशित किया गया है. इस दल ने भारत में उपजाई जाने वाली 6 प्रमुख अनाज के फसलों, धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार और रागी का अध्ययन किया.

हमारे देश में वर्त्तमान में भी पानी की कमी है और कुपोषण की गंभीर समस्या है. वर्ष 2050 तक आबादी लगभग 40 करोड़ और बढ़ चुकी होगी. वर्त्तमान में लगभग एक-तिहाई आबादी खून की कमी से ग्रस्त है. हरित क्रांति के पहले तक गेंहूँ और चावल के अतिरिक्त बाजरा, ज्वार, मक्का और रागी जैसी फसलों की खेती भी भरपूर की जाती थी. इन्हें मोटा अनाज कहते थे और एक बड़ी आबादी, विशेषकर गरीब आबादी, का नियमित आहार थे. 1960 की हरित क्रांति के बाद कृषि में सारा जोर धान और गेंहूँ पर दिया जाने लगा, शेष अनाज उपेक्षित रह गए. हरित क्रांति के बहुत फायदे थे पर इसका बुरा असर जल संसाधनों के अत्यधिक दोहन और ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन पर भी पड़ा. साथ ही भूमि और जल संसाधन रासायनिक ऊर्वरक और कीटनाशकों से प्रदूषित होते गए. अब फिर से मक्का, बाजरा और रागी का बाज़ार पनपने लगा है, पर अब ये विशेष व्यंजन बनाने के काम आते हैं और अमीरों की प्लेट में ही सजते हैं.

डॉ कैले डेविस के अनुसार चावल और गेंहूँ पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्यों कि भारत उन देशों में शुमार है जहाँ तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है, और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा. धान के बदले ज्वार, बाजरा या रागी की पैदावार की जाए तो सिंचाई के पानी में लगभग 33 प्रतिशत की कमी लाई जा सकती है. पूरे देश में पानी की जितनी खपत है, उसमें 80 प्रतिशत से अधिक सिंचाई के काम आता है, यह हालत तब है जबकि देश के बड़े भाग में आज भी सिंचाई की सुविधा नहीं है. दूसरी तरफ वर्ष 2050 तक देश में पानी की भयानक कमी होने की पूरी संभावना है. सिंचाई की सुविधा केवल पानी के उपयोग तक ही सीमित नहीं है, बाँध, नहरें और बहुचर्चित नदियों को जोड़ने की परियोजना सभी पर्यावरण के लिए बहुत घातक हैं.

डॉ कैले डेविस के शोधपत्र के अनुसार चावल और गेंहूँ के साथ ही रागी, बाजरा और ज्वार जैसे परम्परागत फसलों पर अधिक ध्यान देने और पैदावार बढ़ाने की जरूरत है. इससे सिंचाई के पानी के बचत के साथ ही भोजन में कैलोरी, प्रोटीन, आयरन और जिंक की उपलब्धता बढ़ेगी. अनुमान है कि आयरन में लगभग 27 प्रतिशत और जिंक में 13 प्रतिशत तक की बृद्धि हो जायेगी. इस दल का एक सुझाव यह भी है कि सरकार को अनाजों के पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में मोटे अनाजों को भी शामिल करना चाहिए.

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