कश्मीर के पत्रकार ही जानते हैं सेना की ‘सख्ती’

हुक्म हुआ कि आर्मी वन टन गाड़ी के नीचे सजा के तौर पर हम मुर्गा बन जाए

Update: 2018-08-06 13:43 GMT

शायद 1994 का साल था जब जिला कुपवाड़ा के दूरदराज के इलाके में किसी फौजी ऑपरेशन में कई लोग मारे गए थे। पूरी वादी में कड़ाई से कर्फ्यू लगाया गया था। जम्मू एवं कश्मीर राज्य में पत्रकारिता के कद्दवार शख्स वेद भसीन के साथ काम करते हुए ये तो पता चल गया था कि मीडिया कितना ही विश्वसनीय क्यों न हो लेकिन ग्राउंड रिपोर्टिंग का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

इस घटना की रिपोर्टिंग और खोजबीन के लिए शुजात बुखारी ( जिनकी हत्या 14 जून 2018 को कर दी गई) ने मुझे भी कुपवाड़ा साथ चलने के लिए कहा। एक दोस्त से सुजुकी 800 गाड़ी लेकर और कर्फ्यू पास वगैरह बनवाकर श्रीनगर से हमलोग रवाना हुए। रास्ते में कई जगहों पर सख्त चेकिंग हो रही थी। मगर कर्फ्यू पास और प्रेस के पहचान पत्र के बाद हमें रास्ता मिल जाता था। कोई साठ किलोमीटर का फासला तय करने के बाद सोपोर के करीब कृषि कॉलेज के पास एक ले.कर्नल की अगुवाई वाली एक फौजी टुकड़ी ने हमें गाड़ी से नीचे उतरने के लिए कहा। वह कर्नल बहुत गुस्से में था।

मालूम हुआ कि कुछ घंटे पहले ही यहां एक झड़प हुई थी और इस यूनिट के कई सिपाही मारे गए थे और जख्मी हो गए थे। गाड़ी से नीचे उतरते ही अधिकारी ने कर्फ्यू पास फाड़ डाला और प्रेस के पहचान पत्र को दूर उछाल दिया। फौजियों ने बंदूकें तानी हुई थी। हुक्म हुआ कि आर्मी वन टन गाड़ी के नीचे सजा के तौर पर हम मुर्गा बन जाए। देहाती स्कूलों में टीचर बच्चों को इस तरह की सजाएं देते थे। ट्रक के नीचे कमर झुकाना और पीठ ऊपर करके कानों को हाथ लगाना तकलीफदेह था। शुजात चूंकि लंबा था और इसीलिए यह उसके लिए और भी मुश्किल था। जब भी उसकी पीठ नीचे हो जाती थी सिपाही बंदूकों के बट से उसे पिटते थे। इस हालात में भी तब ये मालूम था कि जिंदगी की चंद घड़िया बची है, शुजात को उस वक्त भी मजाक सूझ रहा था और घान के खेतों की तरफ इशारा करके कह रहा था कि कल जब इन खेतों में गोलियों से छलनी हमारी लाशें पाई जाएंगी और यह खबर श्रीनगर पहुंचेगी तो कौन नेता किस तरह का बयान देगा। मिलिटेंट संगठन, सरकारी बंदूकधारी, हुकूमत और फौज एक दूसरे पर इल्जाम डालेंगी। नेताओं की आवाजों की इस तरह नकल करता था कि मैं उसको अक्सर कहता था कि वह एक्टिंग व स्टैंड अप कॉमेडी में किस्मत अजमाएं। वह सैयद अली गिलानी, मीर वायज फारुक (मीरवायज उमर फारुक) और अन्य नेताओं की नकल करके बता रहा था कि कौन किस तरह हमारे कत्ल की भर्त्सना करेगा। सरकार की क्या प्रतिक्रिया होगी और फिर चंद दिनों में सब भूल जाएंगे।

शाम का धुंधलापन अब दिखने लगा था। हमें ट्रक के नीचे से बाहर आने के लिए कहा गया। अभी हम कमर सीधी कर ही रहे थे कि कर्नल साहब का फरमान आया कि यदि जिंदगी चाहिए तो दस मिनट के अंदर फायरिंग के रेंज से निकल जाओं। पूरे दस मिनट के बाद हम फायर खोल देंगे। जान बचानी है तो दौड़ लगाओ, एक दो तीन... हमने अपने जूतों को हाथों में लेकर धान के खेतों को रौंदते हुए कीचड़ और पानी से जंग करते हुए वडौरा गांव के बाहर एक मकान की तरफ दौड़ लगाई। मकान में दस्तक देने से मालूम हुआ कि गेट बंद हैं। शुजात ने अपने लंबे होने का फायदा उठाकर दीवारें फांद ली। मुझे कई बार कोशिश करनी पड़ी। आखिर दीवार फांदकर दूसरी तरफ जमीन पर गिरा ही था कि उसी जगह जहां से मैं कूदा था तड़तड़ मशीनगन की गोलियों ने दीवार की ईटों को उखाड़ दिया। घर वाले खौफजदा नजरों से हमें देख रहे थे। उनको तो लगा कि हम मिलिटेंट है और फौज हमारे पीछे आ रही थी। अब वे फौज के मकान पर धावा बोलने की आशंका से परेशान थे। हमने उन्हें तसल्ली दी कि हम पत्रकार है लेकिन उनकी परेशानी कम नहीं हो रही थी और वे दुविधा में थे। उनकी आंखों में मौत का खौफ साफ-साफ झलक रहा था। एक बार शुजात ने फिर हाजिर दिमाग का सबूत देते हुए गांव के मुखिया पुश्तैनी) का पता पूछा। मालूम हुआ कि पास का ही मकान है। शुक्र है कि आवाज देने पर वे बाहर आ गए और हमारी दिक्कत सुनने के बाद रात भर घर में पनाह दी। अगले रोज धान के खेतों, सेब के बागानों, नदी, नालों को पार करते हुए फौज को चकमा देते हुए हम सोपोर पहुंचे। जहां तीन दिन रहने के बाद कर्फ्यू में नरमी होते ही हम श्रीनगर के लिए रवाना हो गए। मैं तो दिल्ली वापस आ गया लेकिन बाद मैं मालूम हुआ कि उस वक्त के 15वें कोर के कमांडर जरनल सुंदर राजन पद्मनाभन ने दो हफ्तों के बाद वह गाड़ी वापस दिलवाई थी।

( शोध पत्रिका जन मीडिया के 77 वें अंक में प्रकाशित )

Similar News

From Kamandal To Mandal
Chandni Chowk - Mixed Voices
Haryana - Farmers Hold The Key
Mumbai - Fight To The Finish