घुमन्तु समाज के लोग पूछते हैं उनका मीडिया कौन है बाबू (भाग-1)

अश्विनी

Update: 2019-01-27 12:05 GMT

हाल कr कुछ घटनाएँ जो राष्ट्रीय धारा की मीडिया में जगहं पाने ओर लोगों का ध्यान खींचने में नाकाम रही जिसमे दिसंबर अंत मे राजस्थान के पाली जिले में मोग्या घुमंन्तु समुदाय की महिला मिश्रानी के पास भामाशाह कार्ड न हो की वजह से ईलाज के अभाव में देहांत हो गया।

उसके बाद उससे बड़ी त्रासदी उसके शव को भूमि नसीब नही हो रही थी। आखिर उसको दफनाए कहाँ ? गावँ वाले शमशान भूमि में दफनाने नही देते, फिर प्रशासन के हस्तक्षेप से उसे गोचर भूमि में दफना दिया तो वहां भी ग्रामीणो ने जमकर बवाल किया।

राजस्थान के ही अजमेर जिले में आए दिन नट, भाट ओर भोपा के कच्चे घरोंदों को कभी शहर की सुंदरता तो कभी किसी बड़े नेता की रैली के नाम पर अवैध कब्जे कहकर ढहा दिया जाता है। हाल ही में विधानसभा चुनावों के ठीक पहले मोदी जी रैली के कारण हज़ारों की बस्ती ढहा दिया। लेकिन उनको कहीं स्थान नही।



मध्य प्रेदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने तो सार्वजिनक सभा मे घुमंन्तु को मेहमान ही बता दिया , अर्थात बस थोड़े दिन का निवासी। तो फिर ग्रामीण उनको स्थाई तौर पर रहने कैसे देते और फिर कालबेलिया , बंजारा बस्तियों को उजाड़ने का खेल शुरु हो गया।

घुमंन्तु की यही स्थिति छत्तीसगढ़ , उत्तर प्रेदेश ओर हरियाणा समेत भारत भर में है। आखिर यह कौन लोग हैं जो सदा घूमते रहते हैं ? इनका अतीत क्या है? यह हमारे लिए क्यों मायने रखते हैं? यह लोग अब बसना क्यों चाहते हैं ओर इनको बसने में क्या दिक्कत है?

आखिर घुमंन्तु लोग कोन है ?

घुमंन्तु समाज का नाम लेते ही हमारे सामने एक ऐसे समाज की छवि उभरती है जो निरंन्तर घूमते रहते हैं, बहुत सज- धज कर रहते हैं, जिनकी रंग बिरंगी जीवन शैली है, अपने खास तरीके के लोक गीत ओर परम्पराएं हैं।

लेकिन क्या इनका अतीत महज यह रंग बिरंगी जीवन शैली, नाच गाने ओर करतब दिखाने तक ही सीमित है या इससे हटकर समाज मे इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व रहा है ? जिसे आज हम घुमंन्तु कहते हैं दअरसल ये लोग तो समाज को चलाने वाले ऊंचे दर्जे के लोग रहे हैं। इनकी जीवन शैली बहुत साधारण और जीवन सन्देश बहुत गहरे होते। इनके अतीत की धरोहर इतनी सम्रद्ध है जिसे एक जीवन मे समझ पाना मुमकिन नही है।

यह हमारे लिए क्यों मायने रखते हैं?

हिंदुस्तान की पहचान और खूबसूरती महज इसकी भौगोलिक अवस्थिति या राजे रजवाड़ों के इतिहास की वजह से नही है ओर न ही इसके विशाल आकार और संख्या की वजह से बल्कि हिंदुस्तान की ख़ूबसूरती ओर पहचान का आधार यह रंग बिरंगी संस्कृति है ओर इस संस्कृति की आत्मा यही घुमंन्तु लोग हैं। जो कृषि, व्यापार से लेकर युद्ध, तीज त्योहार, मनोरंजन से लेकर सामाजिक सुधार की कल्पना करना भी संभव नही है। यह लोग तो हमारे विराट सांस्कृतिक धरोहर के प्रतिनिधि हैं। उस बहुरंगी समाज के अनमोल रंग हैं। जिनकी हिम्मत, उम्मीद ओर उमंग से हमे सिखना चाहिए।

यह लोग काम क्या करते थे?

यह लोग इतिहास के प्रसंगों, हमारी समृध परम्परा, रंग बिरंगी जीवन शैली को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लेकर जाते रहे हैं । इनका काम महज खेल तमाशा ओर करतब दिखाना ही नही रह बल्कि परिवहन, व्यापार और समाज सुधार की अग्रिम पंक्ति के लोग रहें हैं। इनकी हमारे साथ बेहतरीन जुगलबंदी हुआ करती थी। भले ही इनके पास कोई डिग्री या पद नही था लेकिन इनके द्वारा किया गया काम तो हमारे सृजित ज्ञान की अथाह पूंजी है। इस ज्ञान को किसी डिप्लोमा ओर सर्टिफिकेट कोर्स में नही सीखा जा सकता। त्रासदी की बात यह है हम उसे सीखना ओर आगे बढ़ाना तो दूर रहा, हम उसे संभाल भी नही पा रहे हैं। बल्कि हमने उसे ऊंट , सारंगी ओर करतब दिखाने वालों में समेट दिया है।

इनकी जनांकिय स्थिति कैसी है?

2011 की जनगणना के अनुसार पूरे भारत में घुमंन्तु समाज के अंतर्गत 840 समुदाय ओर अकेले राजस्थान में 52 समुदाय आते हैं। जिसमे नट, भाट, भोपा, बंजारा, कालबेलिया, गड़िया लुहार, दाड़ी, गवारिया, बाजीगर, कलंदर, बहरूपिया, जोगी, बावरिया, मारवाड़िया, साठिया ओर रैबारी प्रमुख समाज हैं।

कुछ रिसर्चर और इतिहासकारों का मानना है कि अफ्रीका और यूरोप के जिप्सी समाज इनसे जुड़े रहे हैं। जिन्हें पहले सौदागर कहा जाता था जो ऊंट ,गधे, बैल गाड़ी ओर खच्चर की मदद से व्यापार किया करते थे। यह सभी समुदाय किसान के हितेषी ओर ग्रामीण समाज के सहयोगी हुआ करते थे।



बंजारे, अरब से अरबी कपड़े, मुल्तान से मुल्तानी मिट्टी और गुजरात के तटीय इलाकों से नमक गधों पर लादकर, उनकी अलग अलग खेप( झुंड) भारत के अलग अलग हिस्से की यात्रा करते। राजस्थान के रेतीले मरुस्थली भाग से गुजरते हुए पानी के स्त्रोत के रूप में बावड़ी , जोहड़, टांकों का निर्माण किया । इनके पास कोई अभियंता की डिग्री नही थी लेकिन इनके द्वारा निर्मित बावडिया ओर टांके उत्कृष्टता के नमूने है जो न केवल जल की आपूर्ति की बल्कि जल का पुर्नचक्रण भी किया। ये लोग व्यापार के ज़रिए दो संस्कृति को जोड़ने का काम करते थे।

गवारीन, ग्रामीण समाज की महिलाओं की जरूरतों को पूरा करती, वो अपने सर पर बड़ा सा टोकरा रखकर जैसे ही गांव में पहुँचती , महिलओं का चेहरा खुशी से खिल उठता। क्योंकि गवारीन के पास महिलाओं के अंग वस्त्र, सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री और कड़े होते। उस समय तक पुरुष यह समान नही लाता था और महिला की बाजार तक पहुच नही थी। वो केवल समान ही देकर नही जाती बल्कि उनको यह भी बताती की शहर की महिलाएं कैसे रहती हैं ? उनका खाना पीना ओर पहनावा कैसा है? महिलाएं बड़े चाव से उसकी बातों को सुनती क्योंकि उनके लिए अभी दूर की बात थी। बावरिया हाथ की चक्की के पाटों को राहता उनको खुरदरा बनाता, सब्जी चीरने के दंराते को तीखा बनाता। क्या यह केवल दुकानदारी है या उससे कहीं आगे की बात है?

मध्य प्रेदेश में भोपाल के नजदीक रहने वाली सोना गवारीन ने बताया कि अब बेलदारी पर जाती हैं। पारंपरिक काम तो कब का समाप्त हो गया लेकिन उस टोकरे को अभी भी सेहज कर रखा हुआ है इससे हमारी आत्मा जुड़ी हुई है। अब हमारा समान कोन खरीदेगा अब समान की बड़ी बड़ी दुकानें(मॉल) ओर ब्यूटी पार्लर आ गए। अब हमारी जरूरत समाप्त हो गई।

राजस्थान, उत्तर प्रेदेश, हरियाणा, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्य प्रेदेश ओर महाराष्ट्र की तरफ निरंतर यात्रा करने वाले नट ओर भाट का अस्तित्व लंबे समय से कायम है। ये लोग तो समाज सुधार की अग्रिम पंक्ति के लोग रहे हैं। नट ओर भाट साथ साथ गाँवों की यात्रा करते सभी के गावँ बंटे होते, हर दिन शाम को गावँ की चौपाल में नटनी, ढपली की थाप पर कभी रस्सी पर चलती तो कभी आग के गोले से कूदती। ओर भाट सांग करता, नाटक दिखाता जो हमे अंदर तक झकझोर देते उनका विषय कोई सामाजिक कुरुति या किसी ऐतिहासिक घटना को बताना होता।

पुस्कर(राजस्थान) के लखन भाट जिसकी उम्र करीब 80 साल रही होगी उन्होंने बताया कि एक समय था जब हम गावँ की सीमा पर पहुचते तो गावँ में जैसे बहार का जाती थी। गावँ नाई हमे अंदर लेकर जाता, जहां आगे बढ़कर गावँ की महिलाएं हमारी पूजा करती हमारा बहुत सम्मान होता था लेकिन आज तो हमे कोई देखना भी पसंद नही करता। जिस समय महिला चारदीवारी से बाहर नही निकल सकती थी उस समय नटनी ढपली की थाप पर रस्सी पर चलने ओर भाट के नाटक को कैसे महज करतब कहा जा सकता है?



भोपा सारंगी की धुन पर पाबूजी की फड़ बाचता, फड एक कपड़ा होता है जिसपर विभिन्न आकृतियाँ चित्रित होटी हैं। जिन्हें देखकर वो कथा सुनाता जिसे आधुनिक समय मे स्टोरी टेलिंग कहा जाता है। आख्यान सुनाता, धार्मिक जागरण करवाता, इनको पवित्र लोग माना जाता, नए घर मे प्रेवेश का मुख्य आधार यही समाज हुआ करता। इनके द्वारा बनाए गए फूस के घोडे कला, मनोरंजन और धार्मिक पवित्रता के प्रतीक होते। अजमेर के कायड़ चौराहे के भोपा बस्ती की महिला पूजा ने बताया कि हमारे पूरे टोलों से एक भी बच्चा स्कूल नही जाता, न भामाशाह कार्ड है, न कोई पेंशन न मनरेगा । हमारे बच्चों का ओर हमारा क्या होगा? चितौड़गढ़ के चाँदमल भोपा सारंगी की धुन पर एक लोक गीत गा रहे थे" हो री सजनी सावरियों बालम आयो" चाँदमल ने बताया कि इस गीत में प्रेयसी के लिए यह संदेश है कि तेरा प्रियतम आ गया है ओर वो तेरा इंतज़ार कर रहा है लेकिन तेरे माता पिता निष्ठर हैं तो उन्हें सोते हुए छोड़कर भाग जा। यह लोक गीत उस धरती पर है जहाँ महिला पैदा होते ही मर दी जाती थी ।आज भी उसे 18 वर्ष से पहले ही ब्याह देते हैं।

न जाने क्यों उसको देखकर ओर सुनकर ऐसा लग की कला का तकनीकी पक्ष कुछ भी हो लेकिन उसका मर्म मुक्ति है और यदि कला में मुक्ति की धुन नही है केवल सौंदर्य है तो वो कला नही लस्ट है।

चाँदमल ने बताया कि आज इसमें कोई रुचि नही लेता पहले टेलीविजन ओर अब मोबाइल ने हमे अपने लोगों से अलग कर दिया जबकि लोगों को अपने अतीत से दूर कर दिया।

जारी है …

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