LUCKNOW: संयुक्त राष्ट्र से आए प्रतिनिधि लियो हेलर ने भारत के एक दौरे के बाद यहां की जल एवं स्वच्छता नीतियों की आलोचना करते हुए कहा है कि क्रियान्वयन में एक स्पष्ट समग्र मानवाधिकार दृष्टिकोण का अभाव है। उन्होंने कहा है कि शौचालय निर्माण की प्राथमिकता में सभी के लिए पीने के पानी के लक्ष्य को नहीं भूलना चाहिए और ऐसा न हो कि जाने-अनजाने में जाति के आधार पर वंचित समूहों जैसे मैला ढोने की प्रथा में संलग्न लोग या हाशिए पर अल्पसंख्यक समुदाय अथवा ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों का मानवाधिकार उल्लंघन हो। जैसी की अपेक्षा थी सरकार ने उनकी आख्या को खारिज कर दिया है।

किंतु जिस तरह का सोख्ता गड्ढे वाला शौचालय सरकार बनवा रही है उससे भूगर्भ जल के प्रदूषित होने का खतरा है। सोख्ता गड्ढे से भूगर्भ जल स्तर की दूरी कम से कम 2 मीटर होनी चाहिए। किंतु उत्तर प्रदेश व बिहार के तराई क्षेत्र व पश्चिम बंगाल में भी जल स्तर काफी ऊंचा है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद्, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के भूतपूर्व सदस्य सचिव व भारतीय प्रौ़द्योगिकी संस्थान, कानपुर के प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल जो अब स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद हो गए हैं के अनुसार उ.प्र. व बिहार तो पानी पर तैर रहे हैं।

सोख्ता गड्ढे वाला शौचालय हैण्ड पम्प या कुएं से 15-20 मीटर दूर होना चाहिए जो घनी आबादी वाले इलाके में हमेशा सम्भव नहीं होता। शौचालय निर्माण की होड़ में कोई यह नहीं देख रहा कि जो शौचालय बन रहे हैं उनसे क्या खतरा है? देश के पहाड़ी, पत्थरीले इलाके व जहां काली मिट्टी है वहां पानी नहीं सोखा जाएगा। पत्थर में दरारों से होता हुआ शौचालय का गंदा पानी भूगर्भ जल से मिल सकता है। कुल मिलाकर देश का आधे से ज्यादा हिस्सा है जहां सोख्ता गड्ढे वाला शौचालय अनुपयुक्त है। इसलिए भा.प्रौ.सं. कानपुर से पढ़े व फेरोसीमेण्ट प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञ डाॅ अशोक कुमार जैन के अनुसार स्चच्छ भारत अभियान असल में सर्वनाश भारत अभियान साबित होगा और उनका कहना है कि सोख्ता गड्ढे का विकप्ल सेप्टिक टैंक है।

जब यह देखा जाए कि भूगर्भ जल के प्रदूूषित होने का सीधा लाभ किसे मिलेगा - बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली कम्पनियों को - तो मामला और गम्भीर नजर आता है। भारत में बोतलबंद पानी के व्यवसाय के बड़े हिस्से पर पेप्सी व कोका कोला कम्पनियों का कब्जा है।

भारत के वैज्ञानिकों व अभियंताओं की इस विषय पर चुप्पी कुछ समझ से परे है।

सरकार के शौचालय निर्माण के लक्ष्य को पूरा करने का नमूना

सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के रूप में 1999 से 2012 तक निर्मल भारत अभियान चलाया गया जिसका लक्ष्य था 2017 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त कराना। समुदाय की भागीदारी से लोगों के सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन ला ऐसी कोशिश हुई कि लोग शौचालयों का प्रयोग शुरू कर दें। किंतु लखनऊ के पड़ोस के जिले में शौचालयों का जो निर्माण हुआ उनकी गुणवत्ता देख प्रतीत होता है कि अभी हम लक्ष्य से काफी दूर हैं।

3-5 अगस्त 2016 को हरदोई जिले के भरावन विकास खण्ड के ग्राम पंचायत कौड़िया में बनाए गए 576 शौचालयों का सर्वेक्षण किया गया।

मौके पर जो लाभार्थी मिले, जिनके नाम शौचालयों पर अंकित थे एवं ग्राम पंचायत विकास अधिकारी द्वारा जो सूची उपलब्ध कराई गई उनमें काफी अंतर थे।

पंचायत के देहुआ गांव में कागज पर दिखाए गए 32 शौचालयों में से एक भी नहीं बना है।

सिर्फ एक बोरी सींमेण्ट में ही एक शौचालय बनाने की कोशिश की गई है जिसका नतीजा है कि ज्यादातर के प्लास्टर निकल रहे हैं। घटिया गुणवत्ता वाली ईंटों का इस्तेमाल हुआ है। 10 प्रतिशत शौचालयों में छत नहीं है। जिनमें है भी तो आर.सी.सी. की जगह लोहे की चादर डाल दी गई है। आधे से ज्यादा शौचालयों में सिर्फ एक सोख्ता गड्ढा बना है वह भी मानक के अनुसार नहीं। कई की फर्श धंस गई है जिससे पता चलता है कि वह भी मानक के अनुसार नहीं बने। 30 प्रतिशत में सीट ही नहीं बैठाई गई है जिससे उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। आधे शौचालयों के दरवाजे नहीं जिससे महिलाओं के लिए इनका इस्तेमाल करना मुश्किल है। 5 प्रतिशत ही शौचालय इस्तेमाल लायक हैं बाकी 95 प्रतिशत या तो बंद हैं अथवा लकड़ी और गोबर के कंडे रखने के काम आ रहे हैं। कई में टूट-फूट भी दिखाई पड़ती है जिससे निर्माण की घटिया गुणवत्ता की पोल खुलती है।

ग्राम पंचायत के रामनगर गांव में 1, बरउआ में 4, कौड़िया में 93, मण्डौली में 4, कठौनी में 42 शौचालय फर्जी दिखाए गए हैं जबकि वीरपुर में कागज पर जितने दिखाए गए हैं उससे 4 अतिरिक्त बने हैं। कुछ लाभार्थियों के नाम दोहराए गए हैं जिससे लाभार्थियों की संख्या कृत्रिम तरीके से बढ़ गई है।

प्रत्येक शौचालय के लिए रु. 10,000 मिले थे। ऐसा अंदाजा लगाया जा सकता है कि रु. 57,60,000 में से रु. 38,57,000 का गबन हुआ है। जब समाजवादी सरकार के शासन में शिकायत की गई तो पंचायती राज विभाग के संयुक्त सचिव ने 1 सितम्बर 2016 को आख्या दी की शौचालय निर्माण में कोई धन का दुरुपयोग नहीं हुआ है और लक्ष्य पूरा कर लिया गया है। जब सत्ता परिवर्तन के बाद भारतीय जनता पार्टी के शासन में शिकायत की गई तो 27 अक्टूबर 2017 की आख्या में यह बताया गया कि मौके पर 441 शौचालय पाए गए, 56 का पैसा अभी भी ग्राम पंचायत के खाते में है व 79 शौचालय बाढ़ में बह गए अथवा उनकी देखरेख न हो पाने से वे ढह गए। यह आश्चर्य का विषय है कि एक वर्ष पहले बताया जा रहा था कि लक्ष्य पूरा हो चुका है।

3 अगस्त 2017 को एक दूसरे सर्वेक्षण में पाया गया कि मात्र 26 शौचालय प्रयोग में हैं यानी लक्ष्य का मात्र 4.5 प्रतिशत। शेष 380 शौचालय इस्तेमाल करने लायक नहीं। जबकि सरकारी आख्या में इनमें कोई त्रुटि नहीं। यह तो हाल है स्वच्छ भारत अभियान को चलते हुए तीन वर्ष से ज्यादा हो चुकने के बाद।

उपर्युक्त भ्रष्टाचार का एक अप्रत्यक्ष लाभ यह है कि भूगर्भ जल प्रदूषित होने से बचा हुआ है।

स्वच्छ भारत में सफाईकर्मियों के साथ कैसा व्यवहार

लखनऊ के गोमती नगर में एक सरकारी अस्पताल है डाॅ राम मनोहर लोहिया चिकित्सालय। इसमें एक ठेकेदार अपनाटेक कंसलटेंसीज प्राइवेट लिमिटेड के माध्यम से वार्ड व्वाय या आया, वाहन चालक व सफाईकर्मी रखे गए हैं। सिवाय इसके कि इन कर्मचारियों का वेतन ठेकेदार देता है ये सभी सरकारी अस्पताल की सेवा में वैसे ही लगे हैं जैसा कि यहां काम करने वाले डाॅक्टर व नर्स। इनमें से 24 लोगों को तो अस्पताल परिसर पर ही आवास मिल गया। किंतु 14 अभागे लोग परिसर पर ही झुग्गी डाल कर रहे थे। अचानक उन्हीं के ठेकेदार ने जिला प्रशासन के कहने पर उनको यह नोटिस दे दिया है कि वे परिसर खाली करें अन्यथा उन्हें जबरन हटाया जाएगा। पुलिस भी आकर चेतावनी दे गई है।

गौरतलब यह है कि 24 लोग जो परिसर पर आवास पा चुके हैं उनमें सिर्फ एक सफाईकर्मी है जबकि 14 लोग जो झुग्गी में रह रहे हैं उनमें 10 सफाई कर्मी हैं जो ज्यादातर वाल्मीकि बिरादरी के हैं। अब ये उस तरह के सफाई करने वाले नहीं जो अखबारों के लिए झाड़ू पकड़ कर फोटो खिंचवाते हैं। इनका फोटो खींचे का भी कौन? ये असल में सफाई करते हैं। स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने से पहले भी करते थे, अभी भी यही कर रहे हैं और जब स्वच्छ भारत अभियान नहीं रहेगा तो भी यही सफाई करेंगे। यह कैसी विडम्बना है कि हम उनसे अस्पताल की सफाई तो कराना चाहते हैं लेकिन उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते। ठेकेदारी प्रथा में सरकार ने अपना हाथ झटक लिया है। वे कहां रहेंगे, उनके बच्चे कहां पढेंगे इससे न तो सरकार को मतलब है न ही ठेकेदार को। सिर्फ सात से नौ हजार तनख्वाह पाने वाले ये लोग यदि अपनी आय का एक तिहाई किराए पर ही खर्च कर देंगे तो उनके बच्चों की शिक्षा का क्या होगा? यदि ये अस्पताल परिसर से हटाए जाते हैं और रहने के लिए कहीं दूर चले जाते हैं तो इनके बच्चे जिन विद्यालयों में फिलहाल पढ़ रहे हैं उनकी पढ़ाई शैक्षणिक सत्र के बीच में ही छूट जाएगी। क्या प्रशासन चाहता है कि सफाईकर्मियों के बच्चे शिक्षा से वंचित रह कर अपने माता-पिता के ही पेशे में लगंे जिसमें अपमान के सिवाय कुछ भी नहीं?

कायदे से यदि सरकार उनसे काम ले रही है वह भी अस्पताल जैसी महत्वपूर्ण जगह पर तो यह सरकार की जिम्मेदारी है कि उन्हें रहने की जगह मुहइया कराए अथवा ठेकेदार यह जिम्मेदारी ले। नरेन्द्र मोदी सरकार जो स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर सेस ले रही है उसे ही सफाईकर्मियों के कल्याणार्थ खर्च किया जा सकता है।

उपरोक्त प्रकरण से स्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के बाद भी सफाईकर्मियों की स्थिति या समाज जैसा व्यवहार उनसे करता था उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। पहले भी उनके साथ भेदभाव होता था और अभी भी हो रहा है।

(संदीप पाण्डेय is a reputed activist based in Lucknow, and recipient of the Magsaysay award)