LUCKNOW: 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के बाद जब नरेन्द्र मोदी देश के प्रधान मंत्री बनने का चुनाव लड़ रहे थे तो देश के लोगों को बताया गया कि वे अपने शुरू के दिनों में चाय बेचा करते थे ताकि यह दिखाया जा सके कि वे कहां से कहां पहुंच गए। वडनगर रेलवे स्टेशन वह स्थान चिन्हित किया गया जहां वे चाय बेचा करते थे। भारतीय रेल वडनगर पर पैसा खर्च कर उसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करना चाहती है।

हकीकत यह है कि मोदी ने जवानी के दिनों में कुछ दिनों के लिए अहमदाबाद शहर के गीता मंदिर सड़क परिवहन डिपो पर अपने चाचा की कैन्टीन सम्भाली थी।

अहमदाबाद के एक प्रसिद्ध चैराहे अखबार नगर, जो वर्तमान में देश के दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति व मोदी के चेले और उस समय के विधायक अमित शाह के विधान सभा क्षेत्र में पड़ता है, पर एक बड़े आकार की केटली बनी हुई है जिसे स्थानीय सिलवरओक अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी संस्थान के लोगों ने बनाया है। यह केटली देखने में आकर्षक लगती है लेकिन ध्यान से देखने पर इसका दोष पकड़ में आ जाता है।

इसका हैण्डल ऐसा लगा हुआ है कि आप इसे झुका कर उसमें से चाय नहीं निकाल सकते। आप हैण्डल को चाहे जितना झुका लें केटली का शरीर नहीं झुकेगा। यदि यह केटली हमारे अभियांत्रिकी व प्रौद्योगिकी संस्थानों की काबिलियत की प्रतीक है तो समझा जा सकता है कि हमारे संस्थनों का स्तर क्या है।

केटली का दोषपूर्ण माॅडल नरेन्द्र मोदी की राजनीति की तरह है। देखने में आकर्षक लेकिन उपयोगी नहीं। बल्कि वह किसी काम की नहीं। पहली बार देखने पर वास्तविकता की झलक आती है लेकिन गौर से देखने पर धोखे का एहसास होता है। देखने पर ऐसा लगता है कि शयद इसमें से चाय निकलेगी। किंतु इंतजार करने पर कुछ नहीं होता। क्योंकि वह तो सिर्फ दिखावे की चीज है। लोग इसके आस-पास से गुजर जाते हैं लेकिन कोई टिप्पणी नहीं करता। पता नहीं लोग इसे नजरअंदाज करना चाहते हैं या उन्हें इसके दोष का इल्म है भी या नहीं।

जिसने इसे बनाया क्या वह जनता को बेवकूफ समझता होगा और उसे इस बात का कोई डर नहीं कि जनता उसकी गल्ती पकड़ लेगी तो क्या करेगी? वह जनता की फिक्र नहीं करता। क्या वह सभी लोगो ंको हमेशा हमेशा के लिए बेवकूफ बना सकता है? या फिर जनता को कभी यह एहसास होगा कि यह केटली उसकी बौद्धिक क्षमता का खुलेआम मजाक उड़ा रही है और वह उसे नीचे उतारेगी, नहीं तो कम से कम उसकी त्रुटि को दूर करेगी?

नरेन्द्र मोदी ने कभी कोई चाय नहीं बेची यह तो उससे ही स्पष्ट हो गया था जिस तरह से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अस्पताल के बाहर चाय बेचने वालों को मोदी के अपने संसदीय क्षेत्र के दौरे से पहले ही पुलिस हटा देती थी। चूंकि मोदी का हेलिकाॅप्टर विश्वविद्यालय परिसर के अंदर उतरता था तो चाय बेचने वालों को मोदी के लिए खतरा मान कर उन्हें कई दिनों पहले से ही हटा दिया जाता था। ठेला गुमटी व्यवसाइयों के संगठन के अध्यक्ष चिंतामणि सेठ ने नरेन्द्र मोदी की वाराणसी यात्राओं के दौरान उनकी आजीविका के नुकसान का हिसाब लगा उसका मुआवजा उनके संसदीय क्षेत्र कार्यालय से मांगा था। मोदी के वाराणसी रहते वे अपनी दुकानें नहीं लगा सकते थे।

क्या यह सम्भव है कि जिस व्यक्ति ने सही में चाय बेची होती तो वह दूसरे चाय बेचने वालों के प्रति इतना संवेदनहीन होता? चिंतामणि सेठ को अपने ज्ञापन का नरेन्द्र मोदी के स्थानीय कार्यालय से कोई जवाब नहीं मिला। उल्टे पुलिस का दमन और तेज हो गया। आमतौर पर मोदी के वाराणसी से प्रस्थान के बाद वे अपने ठेले-दुकानें पुनः लगा लेते थे। किंतु योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह मुश्किल हो गया। एक बार उनकी दुकानें हटाईं गईं तो फिर उन्हें दोबारा नहीं लगाने दिया गया। अतः दुकानदारों को धरना प्रदर्शन करना पड़ा। चाय बेचने वालों का भविष्य वाराणसी में अनिश्चित हो गया है और मोदी-योगी शासन में वे पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गए हैं।

नरेन्द्र मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार में यह भी वायदा किया था कि जैसे अहमदाबाद में उन्होंने साबरमती नदी की सफाई की है वैसी ही वाराणसी में गंगा की करेंगे। साढ़े तीन वर्ष से ज्यादा का समय बीत चुका है। शहर के सीवर का पानी बिना परिष्कृत किए भी गंगा में डाला जा रहा है। अभी नितिन गडकरी विदेश से गंगा की सफाई के लिए धन एकत्र करने गए थे।

अहमदाबाद शहर में प्रवेश से पहले साबरमती का पानी एकदम सूख गया है। नहीं में एक बूंद पानी नहीं। सरकार की तरफ से नदी को जीवित करने का कोई प्रयास नहीं चल रहा। सरकार ने आसान रास्ता ढूंढ निकाला है। नर्मदा नहर से, जो पूर्व में योजना में शामिल नहीं था, पानी लाकर साबरमती में अहमदाबाद शहर की 10-11 किलोमीटर की लम्बाई में डाल दिया है जिससे शहर में आभास होता है जैसे नदी लबालब भरी हो। परन्तु यह बहता हुआ पानी नहीं है। गुजरात सरकार ने नदी को एक लम्बे सरोवर में तब्दील कर दिया है। शहर के दूसरे छोर पर अहमदाबाद के सारे कारखानों का गन्दा पानी नदी में डाल दिया जाता है जिससे यहां उसका रंग काला हो गया है। यहां भी कोई परिष्करण नहीं किया जा रहा। नदी कराह रही है किंतु उसे साफ करने की कोई योजना नहीं है।

अखबार नगर चैराहे की केटली और साबरमती नदी जो मोदी के विकास के माॅडल की प्रतीक हैं की पोल खुल गई है। इतने सालों तक इंतजार करने के बाद और यह उम्मीद पालने के बाद की कोई जादू होगा अब लोगों का धैर्य जवाब दे गया है। गुजरात में नरेन्द्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद पहली बार सवाल खड़े किए जा रहे हैं। नवजवानों का समूह हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर व जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में भाजपा से टक्कर ले रहा है और नरेन्द्र मोदी या भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं जो लोगों को आकर्षित कर रहा हो।

ऐसा लग रहा है कि प्रतीकों की राजनीति के दिन पूरे हुए। जहां से यह राजनीति शुरू हुई थी वहीं से इसके दफन की तैयारी दिखाई पड़ती है।

(संदीप पाण्डेय is a Magsaysay awardee, and well known activist based in Lucknow)