जम्मू – कश्मीर के एक प्रमुख राजनीतिक दल, नेशनल कांफ्रेंस, के राज्य प्रवक्ता जुनैद अज़ीम मट्टू ने पीडीपी – भाजपा गठबंधन की सरकार में मंत्री रहे इमरान रेज़ा अंसारी के साथ अपनी एक तस्वीर बेहद ही ‘साधारण’ शीर्षक के साथ अपने ट्विटर हैंडल पर साझा की. उन्होंने इस शीर्षक में लिखा, “बीती रात बरज़ुल्ला (श्रीनगर) में भोज – दोस्तों के साथ और अच्छे भोजन का लुत्फ़ उठाया ! @imranrezaansari.”

पिछले 1 जुलाई को जुनैद मट्टू द्वारा साझा की गयी यह कोई साधारण तस्वीर नहीं थी. एक किस्म का राजनीतिक बयान होने के अलावा इसने कई कयासों को जन्म दिया.

श्री अंसारी पर अपनी ही पार्टी, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), में “बगावत को हवा देने” का आरोप है. पीडीपी फ़िलहाल लोगों और सत्ताधीशों का भरोसा खो चुकी है.

मीडिया से बात करते हुए श्री अंसारी ने कहा, “"न सिर्फ आबिद साहब (आबिद अंसारी, विधायक जादीबल, श्रीनगर) बल्कि तमाम लोग कह रहे हैं कि हमारी सरकार में कई स्वार्थी तत्व घुसपैठ कर चुके थे जो आख़िरकार इसके पतन का कारण बने. हम बार-बार महबूबा जी को बता रहे थे कि पार्टी में कई काली भेड़ें घुस आई हैं, जो उन्हें शर्मिंदा करके ही मानेगी."

उन्होंने आगे जोड़ा, “पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी 'फैमिली डेमोक्रेटिक पार्टी' में तब्दील हो गई और यही कारण है कि लोग भरोसेमंद नहीं रहे.”

इस तथ्य को देखते हुए कि श्री अंसारी खुद एक वंशवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं, उनका तंज एक बड़ा राजनीतिक बयान था. य हां गौर करने लायक बात यह है कि हिन्दू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के साथ पीडीपी का गठबंधन औपचारिक रूप से 19 जून को टूटने से बहुत पहले ही कश्मीर घाटी में यह चर्चा आम हो चुकी थी कि “पीडीपी कई गुटों में बंटी हुई है और इसकी अंदरूनी दरारें इस कदर चौड़ी हो चुकी हैं कि उसे ढकना संभव नहीं है.”

इसलिए, श्री अंसारी द्वारा भूतपूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती पर कसे गये तंज से किसी को भी आश्चर्य नहीं हुआ. अपनी पार्टी और शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ बोलने के लिए पीडीपी नेताओं को बस सिर्फ सही समय का इंतज़ार था.

अंसारी यहीं नहीं रुके.

पीडीपी – भाजपा गठबंधन सरकार में सूचना प्रौद्योगिकी, तकनीकी शिक्षा और युवा मामले एवं खेल मंत्री की जिम्मेदारी निभाने के बाद, श्री अंसारी ने पट्टन विधानसभा क्षेत्र से पीडीपी के विधायक के तौर पर अपनी पार्टी के खिलाफ जमकर भड़ास निकालना जारी रखा.

उन्होंने कहा, “पिछले काफी समय से मैं महबूबा जी को कह रहा था कि हमारा दम घुट रहा है इस पार्टी में. चंद लोगों ने पार्टी को बंधक बना लिया है. इन्हीं लोगों की वजह से महबूबा जी को सत्ता गंवानी पड़ी.”

अपने भाई – बंधुओं को आगे बढ़ाने के लिए महबूबा पर तंज कसते हुए श्री अंसारी ने कहा, “ मरहूम मुफ़्ती साहब ने इस पार्टी की स्थापना की थी. उनका एक सपना था. उन्होंने अपने रिश्तेदारों को पार्टी में कभी बढ़ावा नहीं दिया. लेकिन महबूबा जी द्वारा नेतृत्व संभालने के बाद सब कुछ बदल गया. हमने देखा कि कैसे चाचा, चाची एवं अन्य रिश्तेदारों को बेवजह बढ़ावा और महत्त्व दिया जाने लगा. इन लोगों ने पार्टी को चौपट कर दिया. उन्होंने कश्मीर को तहस – नहस कर दिया.”

“पीडीपी और मह्बूबा मुफ़्ती की असफलता” के बारे में खुलकर बोलने वालों में इमरान रेज़ा अंसारी एकमात्र पीडीपी विधायक नहीं हैं.

जादीबल के विधायक आबिद अंसारी ने भी अपनी नाखुशी का इजहार किया है.

इस अभियान में शिरकत करने वालों में नया नाम तंगमर्ग के पीडीपी विधायक मोहम्मद अब्बास वानी का है. उन्होंने भी अपने मतभेदों का खुलासा किया है.

एक स्थानीय समाचार एजेंसी केएनएस (कश्मीर न्यूज़ सर्विस) के मुताबिक, श्री वानी ने कहा कि “मैं इमरान रेज़ा अंसारी के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़ा हूं.”

पीडीपी के खिलाफ श्री अंसारी के बयानों का समर्थन करते हुए श्री वानी ने दावा किया कि पिछले विधानसभा चुनावों में कई सीटों पर पार्टी को जीत दिलाने में इमरान अंसारी का काफी योगदान था. लेकिन किसी ने भी उनके योगदानों की कद्र नहीं की.

इस बात की काफी चर्चा है कि राजनीतिक स्तर पर “कश्मीर के लोगों को बेदख़ल करने” की नीयत से भाजपा कश्मीर घाटी के क्षेत्रीय राजनैतिक ताकतों के बीच दरारों को बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश कर रही है.

नेशनल कांफ्रेंस द्वारा जम्मू – कश्मीर विधानसभा में जून 2000 में स्वायत्ता संबंधी प्रस्ताव कराने के एक साल पहले मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने पीडीपी का गठन किया था.

कश्मीर घाटी के कई प्रमुख विश्लेषकों का मानना हैं कि “कश्मीरियों को राजनीतिक रूप से बेदखल करने की एक घृणित योजना के तहत पीडीपी का गठन किया गया था ताकि जम्मू-कश्मीर से कोई भी अकेली क्षेत्रीय राजनीतिक शक्ति लोकतंत्र के मंदिर से चुनावी वैधता पाकर दिल्ली को ब्लैकमेल करने की स्थिति में न आ पाये.”

जम्मू – कश्मीर की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस, ने 26 जून 2000 को राज्य की विधानसभा में स्वायत्ता संबंधी एक प्रस्ताव पारित कराया था. राज्य स्वायत्ता समिति (एसएसी) की रिपोर्ट और सिफारिशों को स्वीकार करने के बाद इस प्रस्ताव को ध्वनिमत से पारित कराया गया था.

इस प्रस्ताव के तहत नेशनल कांफ्रेंस द्वारा मांगी गई वृहद स्वायत्तता का तात्पर्य 1953 से पहले की उस संवैधानिक स्थिति से था जब भारत केवल रक्षा, संचार, विदेशी मामलों और मुद्रा को नियंत्रित करता था.

यहां याद रखने लायक बात यह है कि जम्मू – कश्मीर का अपना एक अलग संविधान और झंडा भी है.

वर्ष 2000 के नेशनल कांफ्रेंस के स्वायत्तता प्रस्ताव ने भाजपा को “सदमे” में डाल दिया था.

भारत के भूतपूर्व उप – प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा “माई कंट्री, माई लाइफ” के “डीलिंग विथ द कश्मीर इशू” शीर्षक अध्याय में नेशनल कांफ्रेंस के स्वायत्तता प्रस्ताव की चर्चा करते हुए लिखा है, “ वाजपेयी सरकार के शासनकाल के दौरान 26 जून 2000 को समूचा राष्ट्र चौंक उठा जब जम्मू – कश्मीर विधानसभा ने राज्य स्वायत्ता समिति (एसएसी) की एक रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए केंद्र से इसे तत्काल लागू करने को कहा. एसएसी ने अपनी सिफारिशों में जम्मू – कश्मीर के संबंध में संवैधानिक प्रावधानों को 1953 से पहले की स्थिति में ले जाने को कहा था जिसमें रक्षा, विदेशी मामलों, मुद्रा और संचार को छोड़कर शासन के सभी विषयों को राज्य को सुपुर्द करना था.”

इसके बाद 4 जुलाई 2000 को केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने जम्मू – कश्मीर विधानसभा द्वारा पारित नेशनल कांफ्रेंस के स्वायत्तता प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया.

उसी दिन, आडवाणी ने कड़ा रवैया अख्तियार करते हुए मीडिया को बताया था कि जम्मू – कश्मीर विधानसभा के स्वायत्ता प्रस्ताव को स्वीकार करने का मतलब “घड़ी को वापस उल्टी दिशा दिशा में घुमाना” होता.

“जम्मू – कश्मीर को वृहद स्वायत्ता” प्रदान करने से संबंधित एसएसी की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए जब नेशनल कांफ्रेंस ने इस प्रस्ताव को ध्वनिमत से पारित कराया था, तो सम्पूर्ण विपक्ष ने सदन का बहिष्कार किया था.

यह एक अलग बात है कि नेशनल कांफ्रेंस ने भी अंत में सत्ता के लालच में स्वायत्ता के मसले को दफना दिया और इस मांग को नारेबाजी के स्तर पर सिमटाने के लिए राजी हो गया.

जब दिल्ली में एनडीए की अगुवाई वाली सरकार ने नेशनल कांफ्रेंस के स्वायत्तता प्रस्ताव को बेरहमी से ख़ारिज कर दिया, तो नेशनल कांफ्रेंस के विधायकों ने एकजुट होकर सामूहिक इस्तीफा नहीं दिया.

इस बारे में और खुलासा करते हुए आडवाणी ने अपनी आत्मकथा “माई कंट्री, माई लाइफ” में लिखा, “यह एक ऐसा मौका था जब अटलजी और मुझे राज्य के मुख्यमंत्री डॉ फारूक अब्दुल्ला के प्रति दृढ़ता दिखानी थी. डॉ अब्दुल्ला की पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस, दरअसल केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए का हिस्सा थी. हमने डॉ अब्दुल्ला को सलाह दी कि वो एसएसी की रिपोर्ट के कार्यान्वन के लिए दबाव न डालें.”

जब फारूक अब्दुल्ला को “झुकने” के लिए कहा गया, वो “रेंगने” लगे.

खैर जो भी हो, पीडीपी की छवि एक ऐसी पार्टी की है जिसके पास न तो मजबूत आधार है और न ही प्रभावशाली कैडर. पार्टी चंद प्रभावशाली व्यावसायिक परिवारों और मुफ्ती के वफादारों का एक ढीला – ढाला समूह है.

जनवरी 2016 में मुफ्ती सईद की मौत के तुरंत बाद और जब महबूबा मुफ्ती अभी भी अपने पिता के निधन के गम में डूबी हुई थीं, तो पीडीपी नेताओं का एक समूह सरकार के गठन की सौदेबाजी करने के लिए नई दिल्ली पहुंचा था. उस विद्रोही समूह में मुख्यमंत्री पद के कम से कम दो संभावित दावेदार थे जिन्हें एक अखबार द्वारा "बिशप" के रूप में वर्णित किया गया था.

यह कोई रहस्य नहीं है कि दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले के राजपोरा के विधायक हसीब द्रबू को पीडीपी द्वारा वित्त मंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया गया था. एक अन्य कैबिनेट मंत्री अल्ताफ बुखारी, जो एक प्रभावशाली व्यवसायी हैं, भी पार्टी के खिलाफ अपने विद्रोह के लिए जाने जाते हैं.

इसलिए, अंसारी की अगुवाई में होना वाले इस ताज़ा विद्रोह में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है.

पीडीपी शायद ताश के पत्तों की तरह ढह रही है!