इस महीने की शुरुआत में अफगानिस्तान के बारे में मास्को में आयोजित रूस समर्थित वार्ता में नयी दिल्ली की भागीदारी की कश्मीर घाटी में व्यापक आलोचना हुई है. घाटी के लोग हुर्रियत कांफ्रेंस एवं अन्य आतंकवादी संगठनों के साथ बातचीत करने के विचार को सिरे से ख़ारिज करने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की निंदा कर रहे हैं.

उत्तरी कश्मीर से आने वाले निर्दलीय विधायक इंजीनियर रशीद ने कहा, “नयी दिल्ली को इस बात का जवाब जरुर देना चाहिए कि अगर वह तालिबान के साथ वार्ता कर सकती है, तो यही काम उन आतंकी संगठनों के साथ क्यों नहीं कर सकती जो कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अपनी जान दे रहे हैं. अफगानिस्तान की चिंता करने से पहले भाजपा को जम्मू – कश्मीर के लोगों की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.”

बीते 9 नवम्बर को अफगानिस्तान के बारे में मास्को में आयोजित एक वार्ता में भारतीय राजनयिकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने भाग लिया. विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने बताया था कि अफगानिस्तान में “शांति एवं समझौते के सभी प्रयासों” का भारत समर्थन करता है जोकि “उस देश की एकता एवं बहुलता को संरक्षित करेगा और वहां सुरक्षा, स्थायित्व एवं समृद्धि सुनिश्चित करेगा.”

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था, “भारत की यह निरंतर नीति रही है कि इस किस्म के प्रयासों की अगुवाई, स्वामित्व एवं नियंत्रण अफगानिस्तान के लोगो के हाथों में होनी चाहिए और इसमें अफगानिस्तान के सरकार की भागीदारी होनी चाहिए. इस बैठक में हमारी भागीदारी गैर – आधिकारिक स्तर पर होगी.”

श्री रशीद का कहना है कि नयी दिल्ली तालिबान समेत “प्रतिरोध की विभिन्न शक्तियों” पर इस्लामिक “अतिवादी” होने का आरोप मढ़ती है. उन्होंने कहा, “नयी दिल्ली उन्हें शांति के लिए एक खतरा बताती है. लेकिन दूसरी तरफ, खुद उनके साथ वार्ता भी करती है और उन वार्ताओं को गैर – अधिकारिक करार देती है.”

राजनीतिक टिप्पणीकार बद्री रैना ने अपने एक लेख में कहा कि यह बेहद “रोचक” है कि “राष्ट्रवादी” भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने अफगानिस्तान में “इस्लामी तालिबान” की वैधानिकता को स्वीकृति दी है. “लेकिन घरेलू मोर्चे पर उसे कश्मीरी असंतुष्टों के साथ बातचीत करने में संकोच होता है.”

सोशल मीडिया में व्यापक रूप से शेयर किये गये अपने लेख में श्री रैना ने लिखा, “हमें इस भुलावे में कतई नहीं रहना चाहिए कि राज्य में दिनेश्वर मिश्र की ईमानदार कोशिशों का मतलब केंद्र सरकार के इस इरादे या इच्छा का एलान है कि वह हुर्रियत या यहां तक ​​कि हिजबुल मुजाहिदीन के साथ वार्ता की मेज पर बैठेगी.”

इससे पहले, उमर अब्दुल्ला ने भी कश्मीर मसले पर हुर्रियत और इस्लामाबाद के साथ वार्ता से इन्कार करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निंदा की थी.

उन्होंने ट्विटर पर लिखा, “ यदि मोदी सरकार को किसी ऐसी वार्ता में “गैर – आधिकारिक” रूप से भागीदार करना स्वीकार्य है जिसमें तालिबान भी शामिल हो, तो जम्मू – कश्मीर में गैर – मुख्यधारा के पक्षकारों के साथ एक “गैर – आधिकारिक” वार्ता क्यों नहीं होनी चाहिए ? जम्मू – कश्मीर की स्वायत्ता में गिरावट और उसकी पुनर्बहाली पर केन्द्रित एक “गैर – आधिकारिक” वार्ता क्यों नहीं?”

हालांकि, मशहूर राजनीतिक विश्लेषक और कश्मीर के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान के डीन प्रोफेसर नूर .ए. बाबा आम चुनावों के लिए एक साल से भी कम का समय बचे होने की स्थिति में कश्मीर पर किसी भी वार्ता की संभावना को ख़ारिज करते हैं.

उन्होंने कहा, “ चूंकि भाजपा के चुनाव प्रचार का पूरा तानाबाना राष्ट्रवाद और हिन्दू गौरव के इर्द – गिर्द सिमटा होता है जिसमें पाकिस्तान को एक दुश्मन मुल्क के तौर पर देखा जाता है, बहुत संभव है कि इस (वार्ता के) प्रस्ताव को उन्होंने (भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने) कम से कम चुनाव खत्म होने तक के लिए टाल दिया हो.”