अब जबकि अधिकांश एक्जिट पोलों ने भाजपा के नेतृत्ववाले एनडीए के लिए स्पष्ट बहुमत की भविष्यवाणी कर दी है, कश्मीर में, जहां एक बेहद तीखा चुनाव अभियान देखने को मिला था, चुनाव नतीजों का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है. खासकर उन तीन सीटों का, जहां के नतीजे आने वाले दिनों में घाटी के राजनीतिक परिदृश्य की रुपरेखा तय करेंगे.

उत्तरी कश्मीर संसदीय सीट और दक्षिण कश्मीर की अनंतनाग संसदीय सीट के नतीजे घाटी की राजनीति के लिए अहम होंगे. उत्तरी कश्मीर संसदीय सीट से पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन अपनी जीत की उम्मीद कर रहे हैं. जबकि अनंतनाग संसदीय सीट का नतीजा पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष के तौर पर महबूबा मुफ़्ती का राजनीतिक भविष्य तय कर देगा. महबूबा इस सीट से उम्मीदवार हैं.

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार अगर पीडीपी की अध्यक्ष महबूबा चुनाव हारती हैं, तो पार्टी नेताओं की ओर से उनपर पद छोड़ने का दबाव बढ़ जायेगा. प्रेक्षकों का कहना है, “अगर वो पार्टी नेताओं के दबाव का प्रतिरोध करती हैं, तो पार्टी में भगदड़ बढ़ेगी.”

पिछले साल, शिया नेता इमरान रेज़ा अंसारी और पत्रकार शुजात बुखारी के भाई बशारत बुखारी समेत पीडीपी के पांच कद्दावर चेहरों ने पार्टी को अलविदा कह दिया था. श्री अंसारी जहां पीपुल्स कांफ्रेंस में शामिल हो गये, श्री बुखारी ने नेशनल कांफ्रेंस का दामन थाम लिया.

विगत 14 फरवरी को पुलवामा में हुए आत्मघाती आतंकवादी हमले, जिसमें सीआरपीएफ के 49 जवान मारे गये थे और दर्जनों घायल हुए थे, ने कश्मीर को भाजपा के चुनावी अभियान का मुख्य बिन्दु बना दिया.

श्रीनगर के प्रख्यात राजनीतिक विश्लेषक आशिक हुसैन ने कहा, “अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जीतते हैं, तो उनकी यह जीत पुलवामा आतंकवादी हमले की बदौलत होगी. इस हमले ने विकास के बजाय सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाने में उनकी मदद की.”

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार अगर भाजपा सत्ता में लौटती है, तो इस सीमावर्ती राज्य में राष्ट्रपति शासन को आगे जारी रखा जायेगा. कनफ्लिक्ट स्टडीज के प्रोफेसर एवं शोधकर्ता उमर गुल ने कहा, “एक विरोधी विचार वाली राज्य सरकार के साथ काम करने के बजाय वे (भाजपा) इस राज्य पर सीधा शासन करना पसंद करेंगे. हालांकि, राज्य में विधानसभा चुनाव को ज्यादा दिनों तक नहीं टाला जा सकेगा.”

जम्मू – कश्मीर में पिछले साल 19 जून को पीडीपी – भाजपा गठबंधन सरकार के गिर जाने के बाद से कोई निर्वाचित सरकार नहीं है. गठबंधन सरकार का पतन दोनों पार्टियों के बीच कई मुद्दों पर तीखी झड़प और मतभेद के बाद हुआ था.

यो तो क्षेत्रीय पार्टियों ने राज्य में जल्द से जल्द विधानसभा चुनाव कराने की मांग की है, लेकिन घाटी में व्यापक पैमाने पर विधि – व्यवस्था में गड़बड़ी की आशंका के मद्देनजर इसे टाला गया है.

लोकसभा चुनावों के दौरान देशभर में सुरक्षा जरूरतों को देखते हुए कश्मीर घाटी में तैनाती के लिए पर्याप्त सुरक्षा बल उपलब्ध नहीं थे. दक्षिण कश्मीर में हिंसा की छिटपुट घटनाओं के बीच कश्मीर घाटी में 18 फीसदी से भी कम मतदान हुआ.

नाम न छापने की शर्त पर एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक ने कहा, “किसी भी सूरत में अमरनाथ यात्रा से पहले राज्य विधानसभा के चुनाव संभव नजर नहीं आते. हालांकि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार राज्य में वातावरण बदलने के प्रयास के तहत विकास की कुछ अहम पहलकदमी कर सकती है.”

विधानसभा चुनावों में देरी से सज्जाद लोन के नेतृत्व वाली पीपुल्स कांफ्रेंस समेत कश्मीर में भाजपा की सहयोगी दलों को फायदा होगा. पिछले कुछ महीनों में पीपुल्स कांफ्रेंस की ताक़त में लगातार इज़ाफा हुआ है.

प्रेक्षकों का कहना है, “ अगर उत्तरी कश्मीर सीट पर पीपुल्स कांफ्रेंस की जीत होती है, तो जम्मू – कश्मीर की सत्ता मे लौटने की भाजपा की योजना को बल मिलेगा. उबलती हुई परिस्थिति में, चुनाव बहिष्कार से सिर्फ इन्हीं दोनों दलों को फायदा होना है.”