कुछ दिन पहले वाट्सअप पर एक संदेश मुझे मिला, जिसमें एक नव विवाहित जोड़े की कहानी बयां गयी थी। यह कहानी कुछ इस प्रकार थी कि एक प्रेमी युगल ने लंबे समय के प्रेम के बाद विवाह बंधन में बंधने का निर्णय लिया। दोनों का वैवाहिक जीवन बुहत ही अच्छे से गुजर-बसर हो रहा था। एक दिन अचानक पत्नी को पता चला कि उसे चर्म रोग(त्वचा की बीमारी) हो गया है। इस रोग का नाम सुनते ही पत्नी के पांव तले से जैसे जमीन ही खिसक गयी हो। वह पूरे तरीके से यह सोचकर डर गयी कि जो पति उसकी सुन्दरता के आगे मंत्र-मुग्ध होकर दिनभर बखान करते नहीं थकता, वह पति उसकी खूबसूरती के नहीं होने पर उसे कैसे अपनायेगा और उसे वही प्यार कैसे देगा? लेकिन इसके पहले वह अपने पति को कुछ बता पाती उसे पता चलता है कि उसके पति का एक्सीडेंट हो गया है और उसकी आंखें चली गयी है। अब पत्नी ने पति को कुछ नहीं बताना ही ठीक समझा और वह अपनी पति की आंखें बनकर उसकी सहायता करने लगी। दोनों का जीवन फिर से खुशहाल पटरी पर चलने लगी, लेकिन अचानक एक दिन पत्नी की मृत्यु हो गयी।

पत्नी की मृत्यु के बाद पति शहर छोड़कर जाने का निर्णय लेता है। इस पर पड़ोसी ने पति से पूछा कि “अबतक तो तुम अपनी पत्नी के सहारे जी रहे थे, लेकिन अब बिना आंखों के तुम कैसे जी पाओगे?” इस पर जवाब देते हुये, वह कहता है कि मैं कभी अंधा था ही नहीं। मैंने तो अपनी पत्नी की खुशी के लिये सिर्फ अंधे होने का नाटक किया था, क्योंकि मेरी पत्नी की खूबसूरती चली गयी थी और वह इस रूप में मेरे सामने आकर कभी खुश नहीं रह सकती थी, इसलिए मैंने झूठ बोला क्योंकि मैं उसे हमेशा खुश देखना चाहता था, क्योंकि वे बहुत ही अच्छी थी, उसकी खूबसूरती से मुझे कोई लेना-देना नहीं था।

यह कहानी आज के युवा वर्ग के लिये बहुत ही बड़ा संदेश है जो प्यार हो या विवाह, मन न देखकर तन और रंग को देखकर करते हैं। यह वही युवा हैं जो जब प्यार में होते हैं तो पूरी दुनिया इन्हें खूशनुमा दिखता है और प्यार में जैसे ही खींचतान शुरू हुआ, या यों कह लें कि ’ब्रेकअप’ हुआ तो सीधे आत्महत्या को अपना मुकाम बना लेते हैं। सिर्फ यही नहीं जो लोग प्रेम में यह कहते फिरते हैं कि “तुम्हारे सिवा कुछ न चाहत करेंगे, जबतक जीयेंगे मोहब्बत करेंगे।” ऐसे जोड़े भी अचानक यह कहने लगते हैं कि “मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे, मुझे गम देने वाले तू खुशी को तरसे।” और इसी भावना से ग्रसित युवक-युवतियां कभी-कभी तो एसिड अटैक (तेजाब से हमला) तक को अंजाम दे देते हैं। यह विचारणीय है कि जिसके लिये हम मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं, अपने रिश्ते-नाते, मां-बाप सबको छोड़ने में भी कोई गुरेज नहीं करते, अचानक उसी को मारने-मिटाने के लिए कैसे उतारू हो जाते हैं।

मैं अक्सर यह सोचती हूँ कि जिस रिश्ते की शुरूआत ही हम परायी भाषा के माध्यम से अर्थात् ”आई लव यू“ कहकर करते हों, क्या वहां अपनेपन का एहसास आ सकता है? और जब अपनत्व का भाव नहीं होगा, तो वहां हम किसी-न-किसी स्वार्थ से ही जुड़ पायेंगे और जिस दिन स्वार्थ पूरा नहीं होगा, उस दिन रिश्ते की आहूति देने में क्षणभर भी नहीं लगेगा। अगर हम थोड़े प्राचीन इतिहास पर नजर दौड़ायें तो हम पाते है कि प्रेम को तो सिर्फ एहसास किया जा सकता है, बयां नहीं। इसलिए कहा गया है कि “एक एहसास है ये रूह से महसूस करो।” इस एहसास को शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता है।

यदि हम मिथक की बात करें तो यह वह देश है, जहां कृष्ण और राधा की पूजा की जाती है, कृष्ण और रूक्मिणी की पूजा कहीं नहीं देखी जाती है, जबकि दोनों पति-पत्नी के रूप में मिथकों में दर्ज हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम को निस्वार्थ प्रेम की मूर्ति समझा जाता है जिसे प्रेम में लीन हर व्यक्ति पूजना चाहता है तो फिर ऐसे देश में प्रेम में हिंसा कैसे हो सकता है? प्रेम करने वाले लोग इतने हिंसात्मक कैसे हो जाते हैं?

हमारे देश और आस-पास के लोग जो प्रेम में लीन है, उन्हें ये समझना होगा कि प्रेम कभी कुछ लेता नहीं है, बल्कि सदैव देता है। प्रेम में डूबा व्यक्ति अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिये तैयार रहता है। वहां धन-दौलत, शादी, शारीरिक आकर्षण आदि जैसी चीजें कभी कोई महत्व रख ही नहीं सकता है और अगर ऐसा होता है तो वहां प्रेम कम और स्वार्थ ज्यादा होगा, जो पूरा नहीं होने पर एसिड अटैक से अंजाम तक पहुंचाया जायेगा।

वर्तमान समय में युवाओं पर ’वेलेंटाइन डे’ के लिए जिस तरह की हवा लगी है ,वह निश्चय ही सोचने पर बाध्य करता है। यह प्रेम को सिर्फ प्रेमी युगल तक बांध देते हैं और फुहड़ता को भी उचित ठहराने लगता है। साथ ही बाजादवाद की मांग को भी पूरा करते हैं। लेकिन प्रेम का असली रूप यह नहीं हो सकता। प्रेम में डूबा व्यक्ति हमेशा आगे बढ़ता रहा है, उसका पतन शायद ही कभी हुआ है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य पर हम यदि नजर दौड़ाये तो नजारा कुछ और ही होता है। अब प्रेम में डूबा व्यक्ति सबकुछ भूलकर प्रेम में ही रहना चाहता है और वह यह भूल जाता है कि प्यार का विस्तार जिंदगी के साथ जुड़े विविध सरोकारों के साथ ही होता है।

हमारे देश में प्रेम के एक दिवस के रूप में ’वेलेंटाइन डे’ को तो अपना लिया गया लेकिन इसके संदर्भ को नहीं अपनाया गया। कहीं प्रेम के नाम पर लोग हिंसा करते हैं तो कहीं ’वेलेंटाइन डे’ को सभ्यता-संस्कृति के लिए नुकसान बताकर सभ्यता-संस्कृति के ठेकेदार हिंसात्मक रूप धारण कर लेते हैं, और संत वेलेंटाइन की प्रासंगिकता और संदर्भों की आहूति देने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं, जिसके कारण यह प्रेम दिवस हिंसात्मक दिवस के रूप में भी उभरने लगा है। जहां मन-से-मन का प्रेम वंचित होता जा रहा है और हम मन को न देखकर बाकी सबकुछ देख रहे हैं, जो प्रेम का एक विकृत रूप लगने लगता है।

(लेखिका गुरू घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय बिलासपुर (छ.ग.) में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की सहायक प्राध्यापक हैं।)