पता नहीं मुझे अपने गांव की यह बहुत ही पुरानी कहानी क्यों बार-बार याद आती रहती है.

एक बार किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से उनकी पत्नी ने कहा कि फलां आदमी हमारे घर में बचपन से काम करते आ रहा है और उस आदमी का पूरा परिवार हमारी सेवा में लगा रहता है, क्यों नहीं आप उसे कहीं सरकारी नौकरी लगवा देते हैं? चतुर्थ श्रेणी में उस सज्जन के लिए नौकरी लगवाना बहुत मुश्किल काम नहीं था. उन्होंने अपनी पत्नी से कहा- देखिए, नौकरी तो किसी तरह से लगवा दी जाएगी, लेकिन जिसकी सिफारिश आप कर रही हैं, वह हमारे मान-सम्मान को काफी क्षति पहुंचाएगा, इसके बारे में सोच लीजिए.

पत्नी को समझाने के लिए उन्होंने एक कहानी भी सुनायी. कहानी कुछ इस तरह थी- एक सज्जन ने आकर किसी गणमान्य व्यक्ति को बताया कि वह आदमी रास्ते पर बैठकर आपको मां-बहन की गालियाँ दे रहा है, ऐसा क्या कर दिया है आपने कि वह इतना नाराज है? वह व्यक्ति काफी सोचकर बताया “अपकार तो छोड़िए, मैंने कभी उस व्यक्ति का उपकार भी नहीं किया है और जब मैंने किसी का उपकार ही नहीं किया है वह मुझे कैसे गाली दे सकता है? किसी को गाली देने के लिए अनिवार्य शर्त यह है कि कभी न कभी आपने उसके ऊपर उपकार किया हो! और यह तय है कि मैंने उसके उपर कोई उपकार नहीं किया है. इसलिए, वह मुझे नहीं, किसी और को गाली दे रहा होगा.”

सूचना देनेवाला व्यक्ति चला गया लेकिन वह परेशान था कि आखिर वह उसे गाली क्यों दे रहा था? बहुत देर सोचने के बाद उसे कुछ याद आया और वह दौड़ा-दौड़ा उस आदमी के पास पहुंचा जिसने उन्हें गाली देने की जानकारी दी थी. वहां पहुंचकर उस सज्जन ने बताया, ‘अरे भाई, मैंने आपसे गलत कहा था कि वह मुझे नहीं किसी और को गाली दे रहा होगा. वास्तव में वह मुझे ही गाली दे रहा था. इसका कारण यह है कि वर्षों पहले जब उसकी बेटी की बारात वापस जा रही थी तो मैंने ही किसी तरह मान मनौव्वल करके उनकी बेटी की शादी टूटने से रुकवाई थी और बचे हुए दहेज का इंतजाम भी किया था!’

पत्नी भोली तो थी ही, उनमें इंसानियत भी बची हुई थी. वह जिद पर अड़ी रहीं कि मान-सम्मान को मारिए गोली….इतने दिनों के सेवा का फल तो उस व्यक्ति को मिलना ही चाहिए! खैर, पति के सिफारिश से उस सज्जन को कहीं सरकारी नौकरी मिल गई.

प्रसंग राज्य सभा से शरद यादव की सदस्यता खत्‍म करने का है. जिस शरद यादव की राज्य सभा की सदस्यता खत्‍म की गई है, उसके बारे में सुशासन बाबू नीतीश कुमार के खेमे के लोगों ने प्रचारित किया है- ‘शरद यादव अवसरवादी और बिना उसूल के आदमी हैं. शरद यादव पद के लिए कोई भी समझौता कर सकते हैं!’ अब नीतीश कुमार व उनके लोगों को कौन बताए अगर पद की ही बात होती तो जिस दिन नीतीश कुमार एनडीए छोड़ रहे थे, उस समय शरद यादव एनडीए नहीं छोड़ना चाहते थे (जो गलत था, क्योंकि मेरा निजी तौर पर मानना है कि बीजेपी के साथ किसी भी तरह का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष गठबंधन सामाजिक न्याय के साथ धोखा है) क्योंकि वह उसके ‘को-कन्वेनर’ थे. जबकि बीजेपी और प्रधानसेवक को शरद यादव जैसे लोगों की बहुत ही ज्यादा जरूरत थी क्योंकि दोनों को लेजिटमेसी चाहिए थी. शरद यादव के व्यक्तिगत संबधों और मर्यादा के कारण उन्हें बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं का समर्थन भी था और वे चाहते थे कि जेडीयू किसी भी परिस्थिति में एनडीए ना छोड़े. अंत-अंत तक बीजेपी चाह रही थी कि कम से कम शरद यादव तो उसके साथ ही बना रहे. अगर वह बीजेपी के साथ रहे होते तो मंत्री पक्का बने होते. खैर, नीतीश तो उसी ‘बेईमान व भ्रष्ट’ लालू के समर्थन से कुछ दिनों के बाद फिर-फिर से मुख्यमंत्री बने रह गए. और आज शरद यादव को राज्यसभा से नीतीश ने बेदखल कर दिया (आगे का मामला कानूनी बारीकी का है कि शरदजी का निष्कासन विधि सम्मत है या नहीं, लेकिन अनैतिक है).

जो लोग शरद व नीतीश की यारी के बारे में जानते हैं वे आपको बता सकते हैं कि शरद यादव ने नीतीश की कितनी मदद की है. दोनों को बहुत ही नजदीक से जानने वाले एक व्यक्ति का कहना थाः नहीं कुछ तो शरद यादव ने कम से कम एक हजार से अधिक बार नीतीश को 50 रूपए से लेकर दो सौ रुपए तक की राशि देकर मदद की होगी. पहले मुझे भी उधार देने वाली बात हास्यास्पद लगी थी लेकिन उनके कुछ तर्कों के सारी बातें साफ हो गई. हकीकत उनकी बातों की पुष्टि कर रहा था.

नीतीश जनता पार्टी की लहर (1977) में चुनाव हार गए थे. इतना ही नहीं, वह 1980 में भी चरण सिंह वाली पार्टी लोकदल से कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में लड़ा चुनाव हार गए थे. नीतीश का राजनीतिक व्यक्तित्व सवालों के घेरे में था. कर्पूरी ठाकुर उसे ‘कपटी इंसान’ कहता था जबकि चरण सिंह ‘खुदगर्ज व एहसान-फरामोश’ व्यक्ति मानता था. फिर भी शरद यादव ने उसे किसी न किसी रूप में लोकदल में सांगठनिक पद पर बनाए रखा. इसके चलते पहली बार वह 1985 में विधायक बने.

1989 के लोकसभा चुनाव में शरद यादव ने देवीलाल से कहकर लोकसभा का टिकट दिलवाया और उसी के बाद नीतीश, वीपी सिंह के कैबिनेट में राज्यमंत्री बने। इसमें भी शरद यादव की भूमिका महत्वपूर्ण थी. उसके बाद की बातें तो सबको याद होंगी, जिनमें दो बातें काफी महत्वपूर्ण हैः एक-लालू यादव को मुख्यमंत्री बनाने में देवीलाल-शरद यादव के साथ-साथ अध्यक्षजी चंद्रशेखर और नीतीश की महत्वपूर्ण भूमिका थी और दो- लालू-नीतीश की जोड़ी को फुसफुसाकर सवर्ण अधिकारी व खुलकर सवर्ण मीडिया ‘रंगा-बिल्ला’ की जोड़ी पुकारती थी.

रही बात शरद यादव की तो वह 1974 में 26 साल की उम्र में छात्र नेता से सांसद बन चुके थे और जब 28 की उम्र हुई तो जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर पहले व्यक्ति थे जिसने इमरजेंसी के खिलाफ सांसदी से इस्तीफा दे दिया था. दूसरी बार उन्होंने जैन हवाला कांड में भी नैतिकता के आधार पर संसद से इस्तीफा दिया था. कुल मिलाकर ‘पदलोलुप’ शरद यादव देश के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने संसद की सदस्यता से दो-दो बार इस्तीफा दिया है!

लब्बोलुवाब यह कि कृतघ्नता और उपकार दोनों ही मानवीय गुण हैं, आपको जो पसंद हो, उसी को प्राथमिकता दें और गले लगाएं!

(जितेन्द्र कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और मीडियाविजिल के सलाहकार मंडल में हैं, यह कहानी उनकी फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है )

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