आपातकाल के दिनों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” का आह्वान किया था. उन्हें यह बताने की जरुरत नहीं थी कि न्यायपालिका को वास्तव में किसके लिए प्रतिबद्ध होना था. उनके द्वारा की गई नियुक्तियों ने सारी बात साफ़ कर दी.

जनवरी 1977 में, न्यायमूर्ति एच आर खन्ना की वरिष्ठता को लांघते हुए न्यायमूर्ति एम एच बेग भारत के मुख्य न्यायधीश बना दिए गए. खन्ना को चर्चित एडीएम जबलपुर बनाम श्रीकांत शुक्ल केस में एकमात्र असहमत आवाज़ बनने की कीमत चुकानी पड़ी. जबकि इस केस में सुप्रीम कोर्ट के बेंच ने बहुमत से यह फैसला दिया था कि आपातकाल के दौरान मौलिक आधिकारों को निलंबित किया जा सकता है. विरोध दर्ज कराने के लिए एच आर खन्ना ने इंदिरा गांधी को अपना इस्तीफा सौंप दिया. इससे पहले, 1973 में, सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायधीशों ने श्रीमती गांधी द्वारा नियुक्तियों में वरिष्ठता की अनदेखी किये जाने पर इस्तीफा दे दिया था.

अधिनायकवाद की मानसिकता वाली हर सरकार न्यायपालिका को लेकर असुरक्षित महसूस करती है. यह प्रक्रिया सारी दुनिया में चलती है. और भारत में यह एक बार फिर से उभरकर सामने आयी जब सुप्रीम कोर्ट के चार सम्मानित न्यायधीशों ने बीतें दिनों भारत के मौजूदा मुख्य न्यायधीश के खिलाफ़ एक असाधारण प्रेस कांफ्रेंस किया. अब सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार इंदिरा गांधी की नक़ल करने की कोशिश कर रही है? क्या ये सब एक “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” – भाग 2 के गठन से जुड़ा है?

यही वो सवाल हैं जिन्हें “विद्रोही” न्यायधीशों द्वारा उठाये गए मुद्दों से ध्यान भटकाने की तमाम कोशिशों के बावजूद हमलोगों को लगातार पूछते रहना चाहिए. अगर भारत के मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्र महत्वपूर्ण केसों को अपनी पसंद वाले चुनिंदा बेंचों में सुनवाई के लिए भेज रहे हैं, जैसाकि उन चार जजों का आरोप है, तो आखिर वो कौन है जिसे मुख्य न्यायधीश महोदय खुश करने की कोशिश कर रहे हैं?

श्री मिश्र की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सत्तारूढ़ दल से नजदीकियां कोई छुपी बात नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में कई ऐसे केस लंबित हैं जो भाजपा के लिए बेहद मायने रखती हैं. उदहारण के लिए, अयोध्या विवाद उनमें एक है. क्या नरेन्द्र मोदी सरकार सामाजिक – राजनीतिक लिहाज से दूरगामी असर वाले फैसलों के लिए बुनियाद तैयार कर रही है?

सार्वजानिक रूप से अपनी बात कहने वाले जजों की अपनी साख है. न्यायमूर्ति गोगोई अगला मुख्य न्यायधीश बनने की कतार में हैं. यही वजह है कि स्थिति को भयावह कहना नाकाफ़ी होगा. यह न्यायपालिका की स्वायत्ता पर एक हमला है जो अंतिम रूप से लोकतंत्र की भावना को कमजोर करेगा.

इन गंभीर चिंताओं पर तवज्जो देने के बजाय वर्तमान निज़ाम ने सुप्रीम कोर्ट के भीतर आई इस दरार को कम कर दिखाने की कोशिश की. हालांकि स्थिति और गंभीर होती जा रही है. जजों द्वारा लगाये गए आरोपों को सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण दूसरे स्तर पर ले गए हैं. उन्होंने श्री मिश्र के कार्यकलापों की जांच पांच वरिष्ठ जजों से कराने की मांग की है. उन्होंने उदहारण देकर बताया है कि कैसे श्री मिश्र ने अपने पद का दुरूपयोग महत्वपूर्ण केसों के परिणामों को प्रभावित करने में किया है.

प्रशांत भूषण के मुताबिक प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट मामले में श्री मिश्र सीधे तौर पर शामिल हैं. फिर भी, उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर हितों के टकराव की अनदेखी करते हुए यह सुनिश्चित किया कि यह मामला उनकी निगरानी में चले. दरअसल, सीबीआई के पास ऐसे टेप हैं जो ऊपरी अदालतों में रिश्वतखोरी को साबित करते हैं. इन टेपों को लीक भी किया गया है जो मुख्य न्यायधीश की साख पर और बड़ा सवालिया निशान खड़ा करते हैं. श्री भूषण ने कहा है कि उन्होंने श्री मिश्र पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये हैं, लेकिन उनके व्यावहार के बारे में एक फौरी आंतरिक जांच की जरुरत है.

जज बी एच लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत का मामला एक दूसरा उदहारण है जिसमे उनके पूर्वाग्रह को रेखांकित किया जा रहा है. इस मामले से जुड़ी दो याचिकाएं बम्बई और चंडीगढ़ हाईकोर्ट में लंबित होने के बावजूद अचानक से दो अलग – अलग याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गयीं. बिना किसी से सलाह – मशविरा किये श्री मिश्र ने ऐसे संवेदनशील मामले को अरुण मिश्र जैसे एक अपेक्षाकृत जूनियर जज के हवाले कर दिया जो, सम्मानित वकील दुष्यंत दवे के मुताबिक, सत्तारूढ़ दल के करीबी हैं.

ऐसा कहा जा रहा है कि लोया मामला ही चार वरिष्ठ जजों के प्रेस कांफ्रेंस की तात्कालिक वजह बनी. दो महीने पहले मुख्य न्यायधीश को लिखने के बावजूद इन जजों को नजरंदाज़ किया गया. तब अंतिम विकल्प के रूप में, उन्होंने प्रेस में जाने का निर्णय किया. अस्थाई रूप से ही सही लेकिन इस घटना ने कम से कम संबंधित लोगों को नींद से जगाया. जज लोया की मौत वाले मामले से अरुण मिश्र ने खुद को अलग कर लिया है.

यहीं पर इस बात को समझने के संकेत छुपे हुए हैं कि क्यों मोदी – भक्तों और उत्तरी कोरियाई चैनलों ने इन चार जजों पर व्यक्तिगत हमला किया और उनके इस्तीफे की मांग करते हुए उन्हें देशद्रोही करार दिया. इन चार जजों के अपने प्रेस कांफ्रेंस में किसी भी राजनीतिक दल का जिक्र नहीं किया था. फिर भी वैसे लोग, जो बाबरी मस्जिद को ढहाने के समय से कानून के शासन की अवहेलना करते रहे हैं, न्याय के रखवालों को प्रवचन देने लगे. यह सब अजीब और विक्षुब्ध करने वाला था. न तो मोदी और न भाजपा के किसी वरिष्ठ नेता ने इन हमलों की निंदा की.

दूसरी ओर, कम्युनिस्ट नेता डी. राजा पता नहीं किस वजह से इस कदर उत्साहित हुए कि प्रेस कांफ्रेंस के बाद न्यायमूर्ति चलामेश्वर से उनके आवास पर मिलने चले गए. विपक्षी दलों को सरकार से जवाब मांगने का अधिकार है, लेकिन ऐसा संसद में होना चाहिए. क्योंकि संसद को ही किसी न्यायधीश पर अभियोग लगाने का अधिकार है.

कुछ वकीलों और जजों का तर्क है कि यह न्यायपालिका का एक आंतरिक मामला है, लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि मामला विस्तृत तौर पर लोकतंत्र से जुड़ा है. चुनाव आयोग, रिज़र्व बैंक, सेंसर बोर्ड और कई शैक्षिक संस्थानों के बाद ताजा तौर पर न्यायपालिका वो संस्था है जिसकी विश्वसनीयता लोगों की नजर में घटी है. और इस विश्वसनीयता को फिर से बहाल करने की जरुरत है.

इस सारे बवंडर के बीच, सभी नैतिक आधार ख़त्म हो जाने पर कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति खुद से इस्तीफा दे देता. लेकिन व्यवस्था के गुलाम शायद ही स्वाभिमानी व्यक्ति होते हैं. इसलिए हमें फिलहाल इस विचार पर सोचना बंद कर देना चाहिए. हमारे पास एक व्यावहारिक लेकिन कड़वा समाधान यह है कि एक निष्पक्ष और पारदर्शी जांच के जरिए न्याय के सर्वोच्च संस्थान की विश्वसनीयता को फिर से बहाल किया जाये.

(निखिल वागले दैनिक महानगर और न्यूज़ चैनल आईबीएन – लोकमत के पूर्व संपादक हैं)