धर्म पाटिल मर गये. उन्होंने मुंबई में मंत्रालय के सामने ज़हर खा लिया. हालांकि उनकी मौत तत्काल नहीं हुई. उनका परिवार अस्पताल में उनके अंतिम क्षणों का गवाह बना. डॉक्टरों ने उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. वे इस व्यवस्था से लड़ते – लड़ते थक गए थे.

हर किसी ने उनकी मौत पर शोक प्रकट किया. यहां तक कि मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस ने भी उनके बेटे को लिखित आश्वासन दिया. लेकिन धर्म पाटिल का मामला कोई अकेला मामला नहीं है. दरअसल, यह किसानों की दुर्दशा का एक प्रतिबिम्ब है जो यह दर्शाता है कि स्थितियां अब कितनी गंभीर हो चली हैं. वर्ष 2017 के पहले 10 महीनों में ही 2500 से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली. यहां तक कि कृषि ऋण माफ़ी की घोषणा भी उन्हें कोई राहत नहीं पहुंचा पायी. इसलिए, इस समस्या की तह में जाने के लिए धर्म पाटिल की कहानी पर गौर करना जरुरी है.

धर्म पाटिल धुले जिले के शिन्दखेड़ा से ताल्लुक रखते थे. इसी जिले के वितरन में एक ताप विद्युत् संयंत्र का निर्माण होना है जिसके लिए राज्य सरकार किसानों से जमीन अधिग्रहित कर रही है. इस प्रक्रिया में धर्म पाटिल की 5 एकड़ जमीन चली गयी. उस जमीन पर आम के बगीचे और एक कुआँ होने के बावजूद उन्हें बदले में सिर्फ 4 लाख रूपए का मुआवजा मिला. जबकि अनार के बगीचे वाले उनके एक पड़ोसी किसान को 5 करोड़ रूपए का मुआवजा हासिल हुआ. वे बस इसी असमानता को समझना और उसका हल चाहते थे.

लेकिन राजनीतिज्ञों, नौकरशाही और बिचौलियों के नापाक गठजोड़ की वजह से उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ. 5 करोड़ रूपए पाने वाले पड़ोसी किसान पर बिचौलियों के जरिए एक सौदा करने का आरोप है. अगर धर्म पाटिल ने भी अपनी ईमानदारी से समझौता कर लिया होता, तो वे आज शायद जीवित होते.

हालांकि, इस पूरे प्रकरण का सबसे शर्मनाक पहलू उनकी आत्महत्या का राजनीतिकरण किया जाना है. फड़णवीस सरकार के एक मंत्री ने कहा कि यह मामला पिछली सरकार के समय का है. लेकिन जब एक वेब – पोर्टल ने यह साबित कर दिया कि यह मामला 2015 का है, तब राज्य सरकार को पीछे हटना पड़ा. यही नहीं, एक अन्य मंत्री ने धर्म पाटिल के परिवार को सांत्वना देने के बजाय सरकारी अंदाज में यह कहना शुरू कर दिया कि “हम इस बात की जांच करेंगे कि हमारी ओर से कोई गलती हुई है या नहीं”. इस किस्म के बयानों से यह साबित हुआ है कि यह सरकार संवेदना के सभी तकाजों को भुला चुकी है और इसे सत्ता में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है.

भूमि अधिग्रहण की परियोजनाओं में गड़बड़ियों का अध्ययन करने वाली उल्का महाजन का कहना है कि इस किस्म के शर्मनाक भ्रष्टाचार का यह कोई अकेला मामला नहीं है. मुंबई – नागपुर समृद्धि हाईवे, मुंबई – दिल्ली इंडस्ट्रियल कॉरिडोर, राजापुर रिफाइनरी और इसकी फेहरिस्त लंबी है. कोई परियोजना इसका अपवाद नहीं है.

ऐसा लगता है कि राज्य सरकार अधिकांश परियोजनाओं में भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 को लागू नहीं कर रही है. अधिग्रहण का नया कानून किसानों के हित में है, लेकिन प्रशासन इसकी खामियों का सहारा लेकर किसानों से जबरन जमीन ले लेती है. किसानों को कोई नोटिस नहीं दी जाती, बल्कि उन्हें स्थानीय गुंडों और बिचौलियों के जरिए धमकाया जाता है. ज्योंहि किसी परियोजना की घोषणा होती है, अधिकारी और राजनेता उसके आसपास जमीन खरीद लेते हैं और किसानों द्वारा अपनी जमीन छोड़ने की चाहत का अफवाह उड़ाते हैं. इसका विरोध करने वालों को स्थानीय पुलिस के कहर का सामना करना पड़ता है. शाहपुर के सामाजिक कार्यकर्ता बबन हरने ने मुझे बताया कि अकेले समृद्धि हाईवे में इस किस्म के 180 से ज्यादा मामले हैं. राजनीतिक रसूख वालों को बेहतर मुआवजा मिलता है और बाकियों को थोड़े से ही संतोष करना पड़ता है.

पिछले सप्ताह मैं सांगली में था. वहां वीजापुर – गुहगर हाईवे का निर्माण होना है. अधिकारी खेतों में घुसकर जबरन नपाई कर रहे हैं. वहां के स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. अमोल पवार ने अपने साथियों के साथ इस हरकत के खिलाफ एक प्रेस कांफ्रेंस किया. हालांकि फड़णवीस सरकार ने उनलोगों को धमकाया है और उनमें से कईयों को जेल में डाला है. किसानों का कहना है कि ऐसी ही अहंकार की वजह से हमने कांग्रेस – एनसीपी सरकार को सत्ता से बेदख़ल किया था . वर्तमान राज्य सरकार इस बात को क्यों नहीं समझती?

2014 के आम चुनावों के दौरान नरेन्द्र मोदी ने अमरावती में ‘चाय पे चर्चा’ में शामिल होते हुए उचित मुआवजा, लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और जरुरी होने पर कर्ज माफ़ी का वादा किया था. जबकि “उचित” मुआवजे ने धर्म पाटिल की जान ले ली, कृषि ऋण माफ़ी योजना हमेशा के लिए पटरी से उतर चुकी है.

फड़णवीस का दावा है कि ऋण माफ़ी योजना से तकरीबन 90 लाख किसानों को फायदा पहुंचा है. लेकिन माफ़ी की शर्तों ने यह सुनिश्चित किया है कि सिर्फ 56 लाख किसान ही इसके लिए आवेदन कर सकें. और जिन्होंने आवेदन दिया है, वे भी 1.5 लाख रूपए की माफ़ी की ऊपरी सीमा से संतुष्ट नहीं हैं. अजित नवले जैसे किसान नेताओं ने इस सरकार की नीयत और पारदर्शिता पर सवाल उठाया है. विपक्ष ने इसे “नये ज़माने का पेशवाई” करार दिया है.

पहली फरवरी को अरुण जेटली ने 2018 – 19 का बजट पेश किया. सरकार का दावा है कि पहुंचाया उसने देश के किसानों को राहत पहुंचाई है. जेटली का तो यहां तक दावा है कि लागत में 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन देने के लक्ष्य को लगभग पूरा कर लिया गया है. हालांकि, योगेन्द्र यादव एवं अन्य विशेषज्ञों ने इस दावे की सच्चाई का पर्दाफाश कर दिया है. डॉ एम एस स्वामीनाथन ने भी सरकार के इस दावे पर गंभीर सवाल उठाये हैं.

इस देश के किसान झूठे वादों से तंग आ चुके हैं. वे कार्रवाई चाहते हैं. और जब कार्रवाई नहीं होती है, तो आप धर्म पाटिल की आत्महत्या जैसे हजारों घटनाओं से रूबरू होते हैं.

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