नागालैंड के विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा आगामी 27 फरवरी को होने वाले विधानसभा चुनावों से दूर रहने की पिछले 29 जनवरी को की गयी घोषणा अब बेमानी होती दिखाई दे रही है. विभिन्न क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के कुल 227 उम्मीदवारों को विधानसभा की 60 सीटों के लिए नामांकन दाखिल करने की अनुमति मिली.

“चुनाव से पहले समाधान” के नारे के साथ नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड इसाक – चिशी (एनएससीएन – आईएम) के नेतृत्व में चलने वाले आंदोलन के तहत चुनावों का बहिष्कार करने का आह्वान नामांकन दाखिल करने की अंतिम तारीख के करीब आने के साथ जोर पकड़ता जा रहा था.

पिछले 29 जनवरी को विभिन्न राजनीतिक दलों – मुख्यधारा की पार्टियों और नागा नेशनल पालीटिकल ग्रुप्स (एनएनपीजी) – ने सिविल सोसाइटी संगठनों के साथ मिलकर विधानसभा चुनावों के बहिष्कार करने का एक एलान किया था. एलान में यह मांग की गयी थी कि अगस्त 2015 को भारत सरकार और एनएससीएन – आईएम के बीच हुए समझौते को लागू करने के बाद ही राज्य में विधानसभा चुनाव कराये जायें.

चुनावों के विरोध में एक फरवरी को एक राज्यव्यापी बंद का भी आह्वान किया गया था. लेकिन इस बंद का आम जनजीवन पर नाममात्र असर हुआ क्योंकि कई सिविल सोसाइटी संगठनों ने इस निर्देश को मानने से इंकार कर दिया था. “आधिकारिक तौर पर” बंद को राज्य के सिर्फ चार जिलों में ही लागू कराया जा सका.

29 जनवरी की घोषणा के तत्काल के बाद भाजपा ने इस पर हस्ताक्षर करनेवाले अपने नेता को यह कहते हुए निलंबित कर दिया कि पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व के परामर्श और सहमति के बगैर यह कदम उठाया गया था.

अन्य राजनीतिक पार्टियों ने उस वक़्त तक इंतजार किया जबतक भाजपा के उम्मीदवारों ने अपना नामांकन दाखिल नहीं कर दिया. और उसके बाद नामांकन के अंतिम दिन, 7 फरवरी को, पर्चा दाखिल करने वालों की भीड़ लग गयी. अलग – अलग पार्टियों के कुल 257 उम्मीदवारों ने पर्चा दाखिल कर चुनाव मैदान में ताल ठोक दिया.

शुरुआत में, एनएससीएन – आईएम ने चुनाव लड़ने का इरादा रखने वाले दलों का विरोध किया. लेकिन बाद में उसने अपनी राय बदल ली. यही नहीं, 29 जनवरी के एलान की घोषणा करने वाली नागालैंड ट्राइबल होहोज़ और सिविल सोसाइटी संगठनों (सीसीएनटीएचसीओ) की साझा कोर समिति को भी भंग कर दिया गया.

पिछले एक साल से नागालैंड में जबरदस्त राजनीतिक उठापटक जारी है. नामांकन शुरू होने से ठीक पहले कई निर्दलीय और सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट के विधायकों ने अन्य दलों के टिकट पर चुनाव लड़ने की आशा में विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया.

राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और नागालैंड से एकमात्र लोकसभा सदस्य एन. रियो राजनीतिक बिसात पर एक बड़े खेल के सूत्रधार बन गये हैं.

पिछले दिसम्बर तक एनपीएफ के एक धड़े का नेतृत्व करते रहने वाले रियो अचानक नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) में शामिल हो गए और इसके नारे पर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे. एनडीपीपी के बारे में आम धारणा यह है कि इसका गठन कुछ समय पहले रियो के परोक्ष समर्थन से हुआ था. अपने राजनीतिक कौशल का परिचय देते हुए रियो ने कम से कम 10 विधायकों को अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर उनकी पार्टी में शामिल होने के लिए तैयार लिया है. यही नहीं, उन्होंने भाजपा के साथ चुनाव – पूर्व गठबंधन करने में भी कामयाबी हासिल कर ली. नागालैंड में भाजपा अबतक एनपीएफ के साथ गठबंधन बनाकर काम कर रही थी.

रियो के नये अवतार के अलावा, इस साल नागालैंड में कई नये खिलाड़ी चुनावी राजनीति के अखाड़े में कूदेंगे. इन नये खिलाड़ियों में नेशनल पीपुल्स पार्टी भी शामिल है, जो एक क्षेत्रीय दल है जिसकी जड़ें मेघालय में है और जिसने पिछले दिसम्बर में ही नागालैंड में कदम रखा है.

इनके अलावा, नागालैंड के अगेंस्ट करप्शन और अनअबेटेड टैक्सेशन (एसीएयूटी) के भूतपूर्व सदस्य भी चुनाव के मैदान में उतरेंगे. इस संगठन की स्थापना कुछ साल पहले राज्य के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में सुधार लाने के लक्ष्य से की गयी थी.

जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है, इसने आखिरी बार 1998 में इसी किस्म के चुनाव बहिष्कार के नारे के बाद राज्य में सरकार बनायीं थी. तब अधिकांश सीटों पर इसके उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हुए थे. लेकिन इस बार एक मजबूत नेता के अभाव में इसके लिए संभावनायें बेहतर नहीं हैं. दीमापुर में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में पार्टी के प्रेक्षकों ने कहा कि भाजपा द्वारा “चुनाव से पहले समाधान” के नारे के साथ दगाबाजी किये जाने की वजह से उन्हें “मजबूरी में चुनाव लड़ना पड़ रहा है”.