भारत के पूर्वोत्तर के तीन राज्यों - त्रिपुरा , मेघालय और नगालैंड की विधानसभाओं के चुनाव के होली के बाद पहले ही दिन घोषित हुए परिणामों को लेकर खबरिया टीवी चैनल पर हुल्लड़ -सी मची है और सभी अखबारों के पन्ने कमोबेश भगवा रंग में रंगे है। इनमें से मेघालय में सत्तारूढ़ कांग्रेस बरकरार भी सकती है और नहीं भी ।

अन्य दोनों राज्यों में भाजपा को पहली बार अपने ही नेतृत्व में सरकार बनाने का मौक़ा मिला है। तीनों विधानसभा की 60-60 सीटें हैं। त्रिपुरा और मेघालय में एक -एक सीट पर प्रत्याशी के निधन के कारण वहाँ चुनाव रद्द कर दिए गए हैं। मुख्यी निर्वाचन आयुक्त अचल कुमार ज्योैति ने इनके चुनाव कार्यक्रम की विधिवत घोषणा 18 जनवरी को ही कर दी थी. फिरभी इनके चुनाव के बारे में राष्ट्रीय मीडिया की खबरें देश के तथाकथित ' मुख्य भाग ' के राज्यों में होते रहे चुनाव की तुलना में कम ही है। लेकिन इन राज्यों में भाजपा की चुनावी जीत की ख़बरों की बाढ़ आ गई।

नागालैंड में रविवार को ही भाजपा की सरकार बनाने का दावा ठोंक भी दिया गया , यह दावा ठोंकने राज्यपाल पीबी आचार्य के सम्मुख पहुंचे नेताओं में नए मुख्य मंत्री बनने जा रहे नीफ़यूई रिओ और आरएसएस के भाजपा के संगठन सचिव बने राम माधव भी थे वही राज्यों के भाजपा -प्रभारी भी हैं

त्रिपुरा में भाजपा को को कभी कोई सीट नहीं थी और पिछले चुनाव में 1 ,5 % ही वोट मिले थे। इस बार उसके गठबंधन को 43 सीटें मिली हैं.

मेघालय में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है। चुनावी सफलता में भाजपा दुसरे पायदान पर है लेकिंन उसके , केंद्रीय सत्ता के बल से लेकर धनबल , बाहुबल और राजनीतिक टिकरम से देर -सबीर वहाँ भी सरकार बना लेने की संभावना से स्पष्ट इंकार नहीं किया जा सकता है।

नगालैंड में भाजपा , कांग्रेस , नगा पीपुल्स फ्रंट समेत 11 राजनीतिक दलों ने संयुक्त रूप से घोषणा कर दी थी कि वे " नगा समस्या " का वहाँ के जनजातीय संगठनों एवं अन्य समुदायों को स्वीकार्य समाधान होने तक विधानसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. नगालैंड में सत्तारूढ़ "डेमोक्रेटिक अलायंस ऑफ़ नगालैंड " का नेतृत्व कर रहे , " नगा पीपुल्स फ्रंट " समेत 11 दलों का हस्ताक्षरित संयुक्त घोषणापत्र राज्य की राजधानी कोहिमा में 30 जनवरी को आदिवासी " होहो " समुदाय के प्रतिनिधि संगठन और नागरिक संगठन की कोर कमेटी (सीसीएनटीएचसीओ) की बुलायी गई बैठक के बाद जारी किया गया था , वर्ष 2003 से राज्य सरकार की बागडोर संभाले डेमोक्रेटिक अलायंस ऑफ़ नगालैंड में कालान्तर में भाजपा भी शामिल हो गई। टी आर जिलिआंग मई 2014 से फरवरी 2017 तक मुख्यमंत्री रहे और जुलाई 2017 में फिर मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन बाद में भाजपा उक्त संयुक्त घोषणा से पीछे हट गई।कांग्रेस ने भाजपा गठबंधन के खिलाफ ' धर्मनिरपेक्ष ' उम्मीदवारों का समर्थन करने की घोषणा की थी इसका कितना असर हुआ या उसकी साफ तस्वीर चुनाव परिणाम से नही मिलती है

प्रधानमन्त्री ने नगालैंड के तुएनसांग में भी 22 फरवरी को एक रैली में कहा कि नगा मुद्दे का जल्द ही समाधान हो जाएगा। पर उन्होंने पृथकतावादी नगा उग्रवादियों के साथ केंद्र सरकार के पिछले वर्ष कथित रूप से किये उसगुप्त समझौता का कोई जिक्र नहीं किया जिसके तहत नागालैंड को अलग से पासपोर्ट जारी करने का भी अधिकार देने का वादा शामिल होने की अटकलें लगाई जाती रही है। बताया जाता है कि मोदी सरकार ने इस कथित समझौता के लिए अपने गृह मंत्री राजनाथ सिंह को भी विश्वास में नहीं लिया था

तीनों विधानसभा की 60-60 सीटें हैं। त्रिपुरा और मेघालय में एक -एक सीट पर प्रत्याशी के निधन के कारण वहाँ चुनाव रद्द कर दिए गए हैं। मुख्यझ निर्वाचन आयुक्तत अचल कुमार ज्यो-ति ने इनके चुनाव कार्यक्रम की विधिवत घोषणा 18 जनवरी को ही कर दी थी. फिर भी इनके चुनाव के बारे में राष्ट्रीय मीडिया की खबरें देश के तथाकथित 'मुख्य भाग ' के राज्यों में होते रहे चुनाव की तुलना में कम ही है। लेकिन इन राज्यों में भाजपा की चुनावी जीत की ख़बरों की बाढ़ आ गई।

देश के सीमांत छोटे -से राज्य त्रिपुरा में लगातार 25 बरस सत्ता में रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा की विधानसभा चुनाव में " करारी " हार और केंद्रीय सत्ता पर काबिज भाजपा की " शानदार " जीत का गहन तात्कालिक -दीर्घकालिक अर्थ लोगों को समझाने में लगभग पूरी मीडिया जुटी हुई है .शनिवार को अधिकृत परिणाम पूरी तरह घोषित होने के पहले ही मीडिया ने भाजपा के भगवा ध्वज की विजयश्री घोषित कर दी .खबरिया टीवी चैनलों ने अपने -अपने पोलस्टर की ठेका पर खरीदी फर्राटा सेवा की बदौलत , मतदान खत्म होते ही कूड़ा -अंदर -कूड़ा -बाहर के सिद्धांत पर अपने कम्प्यूटरी विश्लेषण और एग्जिट पोल के जरिए भाजपा की प्रशस्ति की हुल्लड़ दर्शकों -श्रोताओं को एकपक्षीय सम्प्रेषण से मगन कर दिया दिया। अखबारों के साप्ताहिक अवकाश के दिन रविवार के अंक के पन्ने सत्तामुखी चुनावी विश्लेषण में इतने सरोबोर थे कि एक फिल्मकार संजय झा मस्तान ने सोशल मीडिया पर ' काला हास्य ' की अपनी लोकप्रिय शृंखला में कहना पड़ा कि उन सबने " लाल रंग धो दिया " .

त्रिपुरा में चुनाव कवर करने के लिए तीन सप्ताह तक रहे कन्नड़ भाषा के पत्रकार नवीन सुरिंजी के एक डिस्पैच के अनुसार " चुनाव नतीजों में आप देख रहे होंगे कि भाजपा जीत गयी है और सीपीएम हार गयी है । किन्तु भाजपा की जीत , जीत नहीं है, सीपीएम की हार हार नहीं है । भाजपा एक ऐसे संगठन के साथ गठबंधन करके चुनाव जीती है जिसका संचालन बांग्लादेश से होता है ।

यह एक आतंकी संगठन है जो नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (एन.एल.एफ. टी, आल त्रिपुरा टाइगर फ़ोर्स , और इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट त्रिपुरा के नामों से काम करता है । निःसंदेह यह अखण्ड भारत की उस टैग लाइन के अनुरूप तो नहीं ही है जिसका जाप आरएसएस करती है । सीपीएम के पास जीतने के

पर्याप्त अवसर थे मगर उसने अपनी विचारधारा से समझौता करने से साफ़ इनकार कर दिया । निःसंदेह यह उनकी राजनीतिक विचारधारा की विजय है । इंडिजेनस पीपुल्स आर्गेनाईजेशन मुख्यतः ईसाई संघ है और राजनीतिक रूप से सक्रीय हिस्सा है । कुछ एनजीओ, जो तत्ववादी और संकीर्ण नहीं हैं, उन्होंने भाजपा को रोकने के लिए सीपीएम को मदद की पेशकश की थी, मगर सीपीएम ने उनसे समर्थन लेने से इनकार कर दिया क्योंकि वह विदेशी धन से चलने वाले स्वयंसेवी संगठनों से सहमत नहीं है । इसी तरह का एक और संकीर्णतावादी राजनीतिक संगठन आई.एन.पी.टी. जो 2013 के चुनाव में कांग्रेस का सहयोगी था। इस बार उसने सीपीएम से जुड़ना चाहा, किन्तु सीपीएम इस धर्मनिरपेक्ष संगठन की संकीर्णता का विरोध करती है इसलिये उसने यह पेशकश नहीं मानी । सीपीएम ने यह चुनाव पूरी तरह वाम विचारधारा के आधार पर लड़ा ।मुझे माणिक सरकार के शब्द याद हैं । उन्होंने कहा था कि "यह चुनाव दो व्यक्तित्वों/पर्सनालिटीज के बीच नहीं है । यह विचारधाराओं का संघर्ष है और इसलिये हम - चाहें हारें या जीतें -अपनी राजनीतिक विचारधारा के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे ।"

भाजपा ने त्रिपुरा चुनाव में जो हथकंडे अपनाये उसकी चर्चा लगभग नगण्य है। भाजपा ने कांग्रेस छोड़ तृणमूल कांग्रेस में चले गए उसके सभी विधायकों को केंद्रीय सत्ता औरधनबल पर अपने पाले में शामिल कर लिया। खुद को अव्वल राष्ट्रवादी और देशभक्त पार्टी होने का दम्भ भरने वाली भाजपा ने अंततः

खुल्लमखुल्ला रूप से " इंडिजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (आईपीएफटी) " जैसे अलगाववादी पार्टी से औपचारिक चुनावी गठबंधन भी कर लिया। मीडिया में यह खबर ' गोल ' कर दी गई कि त्रिपुरा के चुनाव में अन्य राज्यों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पचास हज़ार कार्यकर्ता भेजे गए। असम समेत , अगल -बगल राज्यों के भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने वहाँ लंगर डाल दिया। खुद अमित शाह ने त्रिपुरा के अनेक चुनावी चक्कर लगाए। मोदी जी चुनाव को साम्प्रदायिक रंग देते हुए कहा कि त्रिपुरा में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण खतरा पैदा हो गया है जबकि गुजरात से सटा पाकिस्तान उनकी सरकार से थर्राता रहता है। भाजपा की तरफ से चुनावी कुप्रचार के लिए उसके खेमा के एक सज्जन ने ' लाल सरकार ' नाम से एक फीचर फिल्म तक बना डाली। इस फिल्म का निहितार्थ , त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार की छवि धूमिल करना था। सबरंग इंडिया ने अपने न्यूज़ बुलेटिन में उस प्रोपेगंडा फिल्म के वीडिओ क्लिप्स भी देकर विस्तृत विश्लेषण किया है।

दिलचस्प बात यह है कि त्रिपुरा चुनाव के ऐन पहले जिस दिन यह फिल्म वाणिज्यिक प्रर्दशन के लिए रिलीज की गई उसी दिन देश के प्रमुख अंग्रेजी दैनिक , द टाइम्स ऑफ़ इंडिया , ने माणिक सरकार सादगी पूर्ण जीवन की एक रिपोर्ट प्रकाशित की. रिपोर्ट में उनके इस बार का चुनाव लड़ने के लिए दाखिल नामांकन -पत्र के साथ नत्थी शपथ -पत्र के हवाले कहा गया कि वह देश के सबसे गरीब मुख्य मंत्री हैं. वह मुख्यमंत्री के रूप में प्राप्त सारा वेतन -भत्ता पार्टी को दान कर देते है. वह अपना खर्च अपनी पत्नी , पांचाली भट्टाचार्य , की सीमित आय और माकपा पोलितब्यूरो सदस्य होने के बावजूद उसके पूर्णकालिक कार्यकर्ता बतौर मिलने वाली उतनी ही रकम के सहारे पूरा करते हैं जो पार्टी के सभी पूर्णकालिक कार्यकर्ता के लिए एकसमान निर्धारित है। जनवरी 1949 में पैदा हुए माणिक सरकार का मुख्य मंत्री पद पर यह लगातार चौथा कार्यकाल था.उनकी सादगी की बातों की चर्चा त्रिपुरा के घर -घर में होती है। सबको मालूम है. उनकी पत्नी , केंद्र सरकार के समाज कल्याण बोर्ड के सचिव पद से सेवानिवृत्त होने के बाद अपनी पेंशन से गुजारा करती हैं और उसी से पति को भी आर्थिक सहारा भी देती हैं उन्हें नृपेन चक्रवर्ती और दशरथ देब जैसे दिग्गज कम्युनिस्ट नेताओं के बाद मुख्यमंत्री पद की बागडोर सौंपी गई। वह 1968 से माकपा सदस्य हैं।

वर्ष 2011 की पिछली जनगणना के अनुसार त्रिपुरा की आबादी करीब 37 लाख है। राज्य में लोकसभा की दो सीट हैं। त्रिपुरा ,पहले केंद्र शासित प्रदेश था ।उसकी पहली विधानसभा 1972 में गठित हुई थी। उसी वर्ष भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र का नए सिरे से भौगोलिक और राजनीतिक-प्रशासनिक पुनर्गठन किया गया था जिसके फलस्वरूप कुछे केंद्र -शासित प्रदेशों को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा दे दिया गया और कुछ नए राज्य भी कायम किये गए. यह सब 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के दौरान उस पूर्वी पाकिस्तान से लाखों शरणार्थियों के भारत चले आने की पृष्ठभूमि में हुआ जिसका युद्ध के उपरान्त बांग्लादेश नाम से स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अभ्युदय हो गया था। बंगाली हिन्दू शरणार्थी के बड़ी संख्या में त्रिपुरा में बस जाने से वहाँ के मूल आदिवासी अल्पमत में रह गए ।

आदिवासियों के असंतोष ने वहां एक उग्र आंदोलन को जन्म दिया जिसके नेताओं के साथ समझौता करके कांग्रेस ने 1988 में एक साझा सरकार बनाई। त्रिपुरा सुशिक्षित राज्य है पर उद्योग धंधों का बड़ा अभाव है और इसलिए गरीबी भी है ।

मोदी जी ने त्रिपुरा की तरह ही मेघालय में भी चुनाव प्रचार में साम्प्रदायिक कार्ड चलाने में गुरेज नहीं किया। उन्होंने 22 फरवरी को वहाँ के अपने दूसरे चुनावी चक्कर में फूलबाड़ी में एक जनसभा में कहा कि उनकी सरकार ने 2014 में इराक में सभी इसाई भारतीय नर्सों को आतंकी आईएसआईएस से बचाया। उन्होंने मेघालय में पर्यटन के प्रोत्साहन के लिए केंद्र सरकार की स्वदेश दर्शन योजना के तहत राज्य में गिरजाघरों और धार्मिक संस्थाओं के सौन्दर्यीकरण की 70 करोड़ रूपये की स्कीम , राजधानी शिलांग के हवाई अड्डा के सुधार के लिए 180 करोड़ रूपये के प्रावधान और 100 करोड़ रूपये के खर्च से 21 हज़ार आवास बनाने की घोषणा का उल्लेख किया। उन्होंने मुख्य्मंत्री मुकुल संगमा पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाते हुए कहा कि उनके डॉक्टर होते हुए भी राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं जर्जर हो गईं हैं.

सभी सीटों के लिए सभी जगह इलेक्ट्रॉपनिक वोटिंग मशीन ( ईवीएम ) से ही मतदान हुए । इन मशीनों के साथ वीवीपीएटी भी लगी थी इसकी बदौलत मतदाता को इसके आधिकारिक साक्ष्य के रूप में एक पर्ची मिलती है उसने किसके पक्ष में मतदान किया । पर्ची की सॉफ्ट कॉपी मशीन में ही सुरक्षित रहेगी। पहले चरण में त्रिपुरा में मतदान 18 फरवरी को , और दुसरे चरण में 27 फरवरी को हुआ। मतगणना एकसाथ 3 मार्च को हुए और उसी दिन सारे परिणाम घोषित कर दिए गए। औसतन मतदान कमोबेश पिछले विधानसभा चुनाव की तरह ही करीब रहा। पहले चरण में त्रिपुरा में मतदान 18 फरवरी को , और दुसरे चरण में 27 फरवरी को हुआ। मतगणना एकसाथ 3 मार्च को हुए और उसी दिन सारे परिणाम घोषित कर दिए गए। औसतन मतदान कमोबेश पिछले विधानसभा चुनाव की तरह ही करीब रहा।