उत्तर पूर्व के राज्यों में तीन राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव के नतीजों का राष्ट्रीयताओं की सोशल इंजीनियरिंग के नजरिये से विश्लेषण किया जाना चाहिए।

भाजपा के सर्वोच्य नेता नरेन्द्र मोदी ने इसे विचारधारात्मक जीत बताया है। इसके अर्थ का विश्लेषण करने के लिए यह जरुरी है कि हम उत्तर पूर्व के राज्यों में भाजपा के विचारधारात्मक संकट को पहले समझने की कोशिश करें। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के विचारधारात्मक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ससंदीय पार्टियों के बीच भाजपा अगुवाई करती है। इसके जरिये राजनीति का हिन्दुत्वकरण करने की प्रक्रिया तेज होती है। राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने वाले इसके तीन मुख्य शब्द है। वे हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद और सैन्यवाद है और तीनों एक दूसरे में पूरी तरह से गुंथे हुए हैं।उत्तर पूर्व के राज्यों के नतीजों के विश्लेषण के लिए एक पहलू पर खासतौर से ध्यान जाता हैं। वह है राष्ट्रीयताओं के बीच सोशल इंजीनीयरिंग।राष्ट्रीयता का अर्थ इस रुप में व्यक्त किया जाता रहा है कि एक खास विशेष भोगौलिक और सांस्कृतिक इलाके के लोग अपने लिए स्वतंत्रता और स्वायतता की मांग करते रहे हैं।उदाहरण के रुप में कहा जा सकता है कि उत्तर पूर्व के राज्यों में असम में ही कार्बीलांग से लेकर बोडोलैंड के आंदोलन के जरिये राष्ट्रीय़ता की यह लड़ाई अभिव्यक्त होती रही है। उत्तर पूर्व के राज्यों में अन्य आंदोलन भी होते आ रहे हैं, लेकिन उन्हें समझने से पहले हमें भाजपा के सोशल इंजीनिय़रिंग के अर्थों के अनुभवों को साझा करने की आवशयक्ता है।

अब तक ये देखा गया है कि भाजपा ने पिछड़े वर्गों के लिए केन्द्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण लागू करने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को मान लेने के बाद सबसे ज्यादा घबराहट महसूस की । उसने हिन्दुत्व के विस्तार के लिए सोशल इंजीनियरिंग के सूत्र को स्वीकार किया। सोशल इंजीनियरिंग का अर्थ यह सामने आया कि वह सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले जातियों से अलग जातियों के बीच हिन्दुत्व की प्रक्रिया को कैसे तेज करें। इस तेज करने को हम सैन्यकरण के अर्थों में भी देख सकते हैं।

हिन्दुत्व का उग्र नारा और भाजपा के सांगठनिक ढांचो में सामाजिक स्तर पर वंचित जातियों में कुछ चुनिंदा जातियों को अपने बराबर बैठाने की कवायद करने की प्रक्रिया एक साथ चलाई गई।हम ये पाते हैं कि संघ और भाजपा पिछड़ें दलितों के बीच कुछ चुनिंदा जातियों को उनके बीच के मनमुटाव का लाभ उठाकर अपनी ओर आकर्षित करती आ रही है। चुनिदा जातियों को अपनी ओर आकर्षित करने साथ कुछ चुनिंदा जातियों को अपने निशाने पर रखने की उसकी रणनीति उसकी सोशल इंजीनियरिंग की प्रक्रिया को मुक्कमल आकार देती है। उत्तर भारत के राज्यों में पिछड़े दलितों का समूह अलग अलग जातियों के अस्तित्व की राजनीति की तरफ मुखर हुआ है। साथ ही उत्तर भारत में इन जातियों के साथ अलग अलग स्तर पर गठबंधन करने वाली सबसे बड़ी पार्टी आज भाजपा ही दिखती हैं।

उत्तर भारत में सोशल इंजीनियरिंग का जो सूत्र जातियों के संदर्भ में भाजपा ने लागू किया वहीं सूत्र राष्ट्रीयताओं के संदर्भ में उत्तर पूर्व के राज्यों में भाजपा ने लागू करती दिख रही है।उत्तर पूर्व के राज्यों में राष्ट्रीयताओं का संघर्ष रहा है। अकेले असम में ही कई राष्ट्रीयताएं अपने लिए स्वयतता की मांग करती रही है जो कि अपने लिए अलग राज्यों की मांग के रुप में अभिव्यक्त होता रहा है।

पूरे उत्तर पूर्व में केन्द्रीय राष्ट्रीयता के वर्चस्व के खिलाफ संघर्षों का लंबा दौर चला है। इन राष्ट्रीयताओं को समझने के लिहाज से उप राष्ट्रीयता या क्षेत्रीय राष्ट्रीयता के रुप में भी पेश किया जाता रहा है। लेकिन राष्ट्रीयता की अपनी एक मुक्कमल परिभाषा है और राष्ट्रीयताएं स्वायतता के आधार पर गणतंत्र के लिए आपस में करार करती रही है। लेकिन भारतीय गणतंत्र के भीतर एक खास राष्ट्रवाद को विकसित करने की राजनीति रही है। बहुत साधारण तरीके से हम समझना चाहें तो यह कह सकते हैं कि राजनीतिक ढांचा जो 1947 के आसपास विकसित करने का एक करार हुआ था वह पुराने वर्चस्व को बनाए रखने और वर्चस्व को तोड़ने के संघर्ष के रुप में विकसित होता चला गया। भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारे के साथ राजनीति करती है और इसमें राष्ट्र, राष्ट्रीयता जैसे शब्द केवल उसके हैं। इसीलिए उत्तर पूर्ऴ के राज्य में हिन्दुत्व और उसका राष्ट्रवाद अपनी जगहें नहीं बना पाया।असम जैसे राज्यों में वह हिन्दुत्व के जरिये राष्ट्रवाद को विकसित करने की कोशिश करता रहा है और वहां मुस्लिम आबादी के बड़ी तादाद में होने और बांग्ला देश के पड़ोस में होने के कारण कामयाबी भी मिली है।

उत्तर पूर्ऴ में राष्ट्रीयताओं के भीतर संघर्ष ने एक ऐसा स्पेश विकसित किया है जिसमें घुसपैठ की जा सकती है। उत्तर पूर्ऴ के जिन दो राज्यों नागालैंड और मेघालय में भी चुनाव नतीजे आए हैं, वहां उन्हें कामयाबी मिली है जो कि अपनी राष्ट्रीयताओं के साथ सक्रिय रहे हैं।उन दोनों ही राज्यों में भाजपा अपनी जगह त्रिपुरा की तरह नहीं बना पाई क्योंकि वहां राजनीतिक खालीपन को भरने के लिए पार्टियां और संगठन है।वहां राष्ट्रीयताओं के बीच ही सोशल इंजीनियरिंग करने की रणनीति कामयाब हो सकती है। यह संभव है कि सत्तारुढ होकर भाजपा अपनी इंजीनियरिंग से वहां अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा का सांगठनिक आधार विकसित कर लें। वहां तात्कालिक तौर पर भाजपा ने उन तमाम विषयों को दबा रखा है जो कि उत्तर भारत में हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद का चारा बनते हैं।