केवल नये क्षेत्रों में भाजपा को कामयाबी

भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार और राजनीतिक तौर तरीकों के आधार पर चुनावों में लगातार पिछड़ रही है। गुजरात में उसे सबसे बड़ी चुनौती पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान मिली। वहां समाजिक शक्तियों के बीच एक नये तरह का ध्रुवीकरण उभरकर सामने आया था। गुजरात मॉडल के आक्रमक प्रचार के कारण नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री का पद हासिल कर लिया लेकिन वे गुजरात मॉडल के सच को सामाजिक ध्रुवीकरण के सामने छिपाए रखने में कामयाब नहीं हो सके और उन्हें विधानसभा के चुनाव में हर स्तर पर काफी जोर लगाने के बाद भी 100 का आंकड़ा पार करने में सफलता नहीं मिली।

गुजरात के बाद राजस्थान में दो लोकसभा क्षेत्रों अरवल और अजमेर में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद मध्य प्रदेश में दो विघानसभा क्षेत्रों में भी भाजपा हार गई। इस तरह कहा जा सकता है कि जिन जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के शासन और राजनीतिक तौर तरीकों का लोगों ने अनुभव किया उन राज्यों में भाजपा अपने कामकाज के बूते चुनाव में जीत हासिल करने से सफल नहीं हो पा रही है। वह उन नये क्षेत्रों में चुनाव जीतने में कामयाब हो रही है जहां कि पुरानी राजनीतिक पार्टियों ने शून्यता की स्थिति पैदा कर दी है।उत्तर पूर्व के राज्यों के नतीजों को इस आलोक में देखा जा सकता है। नई पार्टी के रुप में भाजपा लोगों के बीच प्रचार और तरह तरह के नारों से एक आकर्षण बनाने में सफल हो जाती है।

बिहार के चुनाव नतीजे का संदेश

बिहार में विधान सभा के लिए नीतिश कुमार और लालू प्रसाद की पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इन दोनों के बीच चुनावी समझौते ने उस दावे का झुठला दिया जिसे नरेन्द्र मोदी की लहर के रुप में प्रचारित किया जा रहा था। लालू प्रसाद की पार्टी राजद और नीतिश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाईटेड ने विधानसभा के चुनाव में बड़ी कामयाबी हासिल की । नरेन्द्र मोदी के धुंआधार प्रचार के बावजूद बिहार में भारतीय जनता पार्टी अपनी पुरानी स्थिति भी बहाल नहीं रख सकी। इसके बाद भाजपा ने नई तरह की राजनैतिक इंजीनियरिंग की और नीतिश कुमार को राजद के साथ गठबंधन तोड़ने के लिए तैयार कर लिया। नीतिश कुमार ने भाजपा के साथ फिर से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरु की । इस राजनीतिक यात्रा का पहला इम्तिहान बिहार के उपचुनाव थे। इनमें अररिया लोकसभा के लिए चुनाव भी शामिल है। लेकिन नीतिश कुमार और भाजपा मिलकर भी इस सीट को राजद से नहीं छिन सकें।जबकि अररिया का क्षेत्र 1996 से एनडीए के कब्जे में रहा है जिसे राजद ने पिछले लोकसभा के चुनाव में छिन लिया था। बिहार में भाजपा और नीतिश के बीच के समझौते को मतदाताओं ने नाकार दिया। राजद के इर्दगिर्द ही सामाजिक न्याय की शक्तियों का ध्रुवीकरण होता दिख रहा है।

बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों के नतीजों का सबसे महत्वपूर्ण बात यह दिखती है कि बड़े नेताओं के अभाव में भी सामाजिक शक्तियां जमीनीं स्तर पर एक होने का फैसले की तरफ तेजी से बढ़ रही है। बिहार में अररिया समेत विधानसभा के लिए उपचुनाव में प्रचार के लिए लालू प्रसाद नहीं थे। वे जेल में बंद है।

उत्तर प्रदेश का संदेश

दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में भी फुलपुर और गोरखपुर लोकसभा क्षेत्र से जीतने वाले उम्मीदवारों के लिए बड़े नेताओं ने कोई धुआंधार प्रचार नहीं किया। दोनों ही क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए यह पहला चुनाव था। अखिलेश यादव गोरखपुर में चुनाव प्रचार के लिए केवल एक ही बार गए। बहुजन समाज पार्टी की नेता ने लखनऊ में प्रेस कॉफ्रेंस करके भाजपा के उम्मीदवार को हराने वाले उम्मीदवार को समर्थन भर देने का ऐलान किया। मायावती एक भी क्षेत्र में चुनाव प्रचार के लिए नहीं गई। मायावती के समर्थन के ऐलान को मीडिया भले ही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के रुप में प्रचारित करें, लेकिन वह इस समर्थन का नाकारात्मक प्रभाव पैदा करने में सफल नहीं हो सकी।

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक भी सभा एक साथ नहीं की। न ही कोई संयुक्त बयान जारी किया। जबकि गोरखुपर और फुलपुर ऐसा क्षेत्र है जिसमें गोरखपुर पर तीस वर्षों से आदित्य नाथ के मठ का कब्जा रहा है। फुलपुर में भी समाजवादी पार्टी कभी चुनाव नहीं जीती है। पिछले लोकसभा के चुनाव में दोनों ही क्षेत्रों से भाजपा के उम्मीदवार तीन लाख से ज्यादा मतों से जीते थे और उन दोनों- योगी आदित्य नाथ और केशव प्रसाद मौर्या को विधानसभा में जीत के बाद भाजपा ने मुख्यमंत्री और उपमुख्य मंत्री बनाया है। इस तरह के प्रभाव वाले क्षेत्रों में समाजिक न्याय की शक्तियों ने अपनी जोरदार सक्रियता से जीत की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। मायावती और अखिलेश को जमीनी हकीकत का इस कदर अंदाज नहीं था कि 2014 और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के बाद स्थितियां बदल चुकी है।

गोरखपुर और फुलपुर के चुनाज नतीजे ये स्पष्ट करते हैं कि सामाजिक न्याय की शक्तियां फिर से एकजूट होने की प्रक्रिया में लगी हुई है जो प्रक्रिया बिहार विधान सभा के लिए पिछले चुनाव के दौरान ठोस रुप में शुरु हुई थी और उससे पहले 1995 के आसपास बिखरनी शुरु हो गई थी।

भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का नया पैंतरा

जिस तरह से अखिलेश यादव अपने उम्मीदवारों और मायावती अपने समर्थन के ऐलान की गंभीरता को नहीं आंक पा रही थी उसी तरह से भाजपा ने भी बहुजन की एकता के संदेश की ताकत को हल्के फुल्के तरीके से लिया जबकि बिहार विधानसभा के नतीजों का अनुभव उसके सामने था। गोरखपुर और फुलपुर में हार के बाद योगी आदित्य नाथ ने ये स्वीकार भी किया कि उन्होने इस घोषणा को हल्के तरीके से ग्रहण किया। वे अपनी जीत को लेकर अति विश्वास के भ्रम में फंसे रह गए। भाजपा के नेताओं ने पुराने अंदाज में मायावती के समर्थन को अवसरवादी, बेमेल कहने से आगे बढ़कर सांप छुछूंदर की जोड़ी और रावण सुपर्णरेखा की जोड़ी के रुप में पेश करना शुरु कर दिया। आत्म विश्वास का यह आलम था कि भाजपा के नेताओं ने अपने मतों को मतदान केन्द्रों तक पहुंचाने के लिए प्रेरक संदेश का खाका भी तैयार नहीं किया। घिसीपिटी भाषा में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी पर प्रहार करते रहें। पिछड़ी और दलित जातियों में विभाजन की स्थिति भाजपा के अनुकूल बनी रहेगी यह आत्म विश्वास के छले जाने का दूसरा कारण साबित हुआ। योगी आदित्य नाथ ने अपनी सोलह सभाओं में गोरखपुर क्षेत्र के अंतर्गत दलितों और पिछड़ों के बीच की कई जातियों को लुभाने की कोशिश की लेकिन उसके बावजूद समाजिक न्याय की शक्तियां एकजूटता की दिशा में लगी रही।

2019 के चुनाव

उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव नतीजे ये बताते हैं कि पिछड़ों और दलितों का बिखरना ही हिन्दी पट्टी में अमित शाह की रणनीति की जीत है.। दूसरा भाजपा गुजरात के पिछले विधान सभा चुनाव लेकर उत्तर प्रदेश तक के चुनाव में यह अनुभव कर चुकी है कि पाकिस्तान, आईएसआई, कश्मीर, आतंकवाद जैसे विषयों के जरिये मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता की राजनीति में कामयाबी हासिल नहीं कर पा रही है। सामाजिक न्याय की शक्तियों में बिखराव और मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता ही भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग के दो सूत्र हैं जो कि एक दूसरे गुंथे हुए हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के उप चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा ने नई रणनीति बनाने पर विचार करने के संकेत दिए हैं। इसका अर्थ यह निकाला जा रहा है कि सामाजिक न्याय की शक्तियों में बिखराव के नये फार्मूले और साम्प्रदायिकता की भावना को तेज करने के लिए नये मुद्दे क्या क्या हो सकते हैं? सामाजिक ध्रुवीकरण को रोकने के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की एक कोशिश गुजरात में भी दिखाई दी थी लेकिन वहां कामयाबी हासिल नहीं हो सकी। भाजपा 2019 के लिए नई तरह से जो तैयारियां कर सकती है उनकी तरफ राजनीतिक विश्लेषकों की नजर लगी हुई हैं।