अरविन्द केजरीवाल का माफीनामा चर्चा में है. इन दिनों वे अपने धुर राजनीतिक विरोधियों, जिनमें विक्रम सिंह मजीठिया, नितिन गडकरी, कपिल सिब्बल और अरुण जेटली शामिल हैं, से माफ़ी मांगने में व्यस्त हैं. वर्तमान रफ़्तार से वे कम – से – कम 16 बार माफ़ी मांग लेंगे. और ऐसा करने वाले वे पहले राजनीतिज्ञ होंगे. हो सकता है कि उनका यह कदम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स के काम आ जाये.

अपने समर्थकों और वकीलों के माध्यम से केजरीवाल ने यह दावा किया है कि मानहानि के विभिन्न मामलों की वजह से प्रशासनिक कार्यों से उनका ध्यान बंटता है और वे अपना ध्यान राजकाज के कामों में केन्द्रित करना चाहते हैं. इसके अतिरिक्त, इन मामलों की वजह से जिस कदर समय और पैसे की बर्बादी होती है वो आम आदमी पार्टी को बर्दाश्त नहीं है.

वैसे तो यह एक दमदार तर्क है. बड़े और ताक़तवर लोगों द्वारा आपराधिक मानहानि के मामलों का इस्तेमाल गाहे - बगाहे एक अस्त्र के तौर पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को चुप कराने के लिए किया जाता है. ऐसे मामले सालों – साल चलते रहते हैं और उनमें से कुछ खास नहीं निकलता है. यहां तक कि भारत में इस कानून की शुरुआत करने वाले ब्रिटिश हुक्मरानों ने भी अपने यहां इस कानून को समाप्त कर दिया है. जबकि हम इस कानून को अभी भी ढो रहे हैं. हालांकि, एक आम सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा आपराधिक मानहानि के मामलों से छुटकारे की चाहत रखने के बरक्स एक भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा का पीछे हटना और अपने राजनीतिक विरोधियों से माफ़ी मांगना काफी अलग है. खासकर तब, इस मसले को उठाकर जब आप दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे हों.

केजरीवाल के राजनीतिक करियर की शुरुआत वर्ष 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ हुई. यूपीए – 2 के पतन में उस आंदोलन की अहम भूमिका रही थी. अन्ना हजारे भले ही उस आंदोलन का चेहरा रहे हों, लेकिन ज्यादातर समय उसकी लगाम अरविन्द केजरीवाल के हाथों में ही रही थी. उन्होंने अंबानी जैसे उद्योगपतियों और नरेन्द्र मोदी जैसे सबसे ताक़तवर राजनीतिज्ञ से बैर मोल लिया. केजरीवाल ने मतदाताओं को सड़ी - गली और बर्बाद हो चुकी व्यवस्था से लड़ने वाले एक व्यक्ति के रूप में संबोधित किया और मतदाताओं ने उनकी बात पर एक बार नहीं बल्कि दो बार भरोसा कर लिया.

जिन लोगों से लड़ने का केजरीवाल दावा कर रहे थे, उन्हीं लोगों से माफ़ी मांगने के बाद वो उन मतदाताओं का सामना कैसे करेंगे जिन्होंने उनकी बात पर भरोसा किया था? अपने हर प्रेस कांफ्रेंस या भाषण में केजरीवाल ने सबूतों के आधार पर बयान देने का दावा किया था. अब अगर मतदाता पलटकर उनसे पूछें कि क्या वो चुनाव जीतने का एक सस्ता हथकंडा था, तो क्या यह एक गलत सवाल होगा? बिना कोई ठोस स्पष्टीकरण दिए केजरीवाल लोगों से यह अपेक्षा कर रहे हैं कि वो बिना कोई सवाल किये उनके निर्णय को स्वीकार कर लें. यह प्रवृति किसके जैसी है, आप जानते हैं.

यह कहना बिल्कुल बेमानी होगा कि केजरीवाल को बड़े उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों से भिड़ने के अंजाम के बारे में पता ही नहीं था. एक मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और अपने जीवन का बड़ा हिस्सा भारतीय राजस्व सेवा में बिताने वाले व्यक्ति को कानून का बेहतर ज्ञान होता है. और तो और, आपराधिक मानहानि का मामला कोई नया नहीं है. हो सकता है कि उन्हें इस किस्म के मामलों की तादाद को लेकर अंदाज़ा नहीं रहा हो. संभवतः रामलीला मैदान में आंदोलन करने और असलियत में भ्रष्टाचारियों से भिड़ने के बीच के अंतर का अहसास उन्हें अब हुआ हो.

कुछ लोग उनके इस कदम को हार के तौर पर देखेंगे. कुछ लोग यह कहेंगे कि केजरीवाल अब व्यावहारिक हो गए हैं. कुछ लोग उस खैरनार की याद ताज़ा करायेंगे जिन्होंने शरद पवार के खिलाफ ट्रक भरके सबूत देने का वादा किया था. लेकिन आम नागरिकों को निश्चित रूप से ठगे जाने का अहसास होगा और विपक्षी दल जश्न मना रहे होंगे.

हालांकि, इन घटनाक्रमों से केजरीवाल के नेतृत्व को लेकर एक बार फिर बहस तेज होगी. ऐसी ही एक बहस प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव के साथ किये गए सलूक के बाद हुई थी. मयंक गांधी ने अपनी किताब में केजरीवाल के तानाशाही रवैये के कई उदहारण दिए हैं. इससे भी ज्यादा जरुरी बात यह है कि केजरीवाल को अपने रवैये में कुछ भी गलत नहीं लगता. मजीठिया से माफ़ी मांगने से पहले उन्होंने पंजाब के शीर्ष नेतृत्व से मशविरा भी नहीं किया. उनके माफ़ी मांगने के बाद आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. दरअसल, मजीठिया का मसला बेहद गंभीर है. आम आदमी पार्टी ने पंजाब विधानसभा के चुनावों में नशीले पदार्थों के व्यापार में मजीठिया के कथित जुड़ाव को मुद्दा बनाया था. केजरीवाल के माफ़ी मांगने के बाद से पंजाब में पार्टी की स्थानीय इकाई को बगले झांकने को मजबूर होना पड़ा है.

भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का इतिहास बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है. आंदोलन जोर – शोर से शुरू तो होते हैं और फिर विभिन्न कारणों से समाप्त हो जाते हैं. केजरीवाल के साथ जो कुछ हुआ, वो नया नहीं है. चूंकि वो कई लोगों से माफ़ी मांग चुके हैं, अब उन्हें भारत की जनता से भी उनको भरमाने के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए . यही इस घटनाक्रम का सही अंत होगा.