महाराष्ट्र में भीमा-कोरागांव जातीय हिंसा की घटना के बाद दलित राजनीति उफान पर है. इस राजनीति पर भाजपा सहित हरेक पार्टी की नजर है और इसका चुनावी विश्लेषण भी किया जा रहा है. इसी विश्लेषण के आधार पर यह भी समझा जा रहा है कि आज जो दलित, आंदोलनकारियों के रूप में दिख रहे हैं वे 2019 के चुनावों के समय कहां होंगे? क्या ये दलित, नरेंद्र मोदी और भाजपा विरोधी वोटर के रूप में अहम भूमिका निभाएंगे?

वैसे, राज्य में दलित समाज बिखरा हुआ है. उनका वैचारिक शोषण हो रहा है और राजनीति में दुरूपयोग भी हो रहा है. उनको विकासशील दिशा की ओर ले जाने वाले नेताओँ की कमी है. लेकिन डाक्टर बाबा साहेब आंबेडकर के पोते और भारिप-बहुजन महासंघ के प्रमुख प्रकाश आंबेडकर ने भीमा-कोरागांव की घटना के बाद जिस तरह से दलितों को एकजुट करने की कोशिश की है उससे दलित समाज में सकारात्मक संदेश जा रहा है, ऐसा माना भी जा रहा है. क्योंकि, प्रकाश आंबेडकर कुछ समय से दलित राजनीति में हाशिए पर थे और यकायक दलितों ने उनकी पुकार सुन ली.

यह कहा जा रहा है कि प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व में दलितों को अपना नया भविष्य दिख रहा है. तभी तो भीमा-कोरागांव घटना के बाद जब प्रकाश आंबेडकर ने महाराष्ट्र बंद का ऐलान किया था तो मुंबई में भी बंद सफल रहा और हिंसा की कोई घटना नहीं घटी थी. एक समय था जब शिवसेना प्रमुख दिवंगत बाल ठाकरे की एक आवाज पर मुंबई बंद हो जाती थी. बाल ठाकरे की उस करिश्माई कला से ही सीख लेकर प्रकाश आंबेडकर बंद का प्रयोग किया था. मुंबई बंद से प्रकाश आंबेडकर ने उन दलित नेताओं को भी संकेत दे दिया कि अब दलित समाज को भ्रम में नहीं रखा जा सकता है. प्रकाश आंबेडकर के एल्गार मोर्चा में आजाद मैदान में दलितों की भीड़ भी भविष्य की नई कहानी बता रही थी.

इस एल्गार मोर्चे में प्रकाश आंबेडकर ने भीमा-कोरागांव की घटना के एक कथित आरोपी शिव प्रतिष्ठान के संस्थापक संभाजीराव भिड़े उर्फ गुरूजी को गिरफ्तार करने की मांग की. प्रकाश आंबेडकर का आरोप है कि गुरूजी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाते हैं जिससे उनकी गिरफ्तारी नहीं हो पा रही है. इस घटना के एक अन्य कथित आरोपी मिलिंद एकबोटे को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका है. प्रकाश आंबेडकर के साथ आंदोलनकारी दलित भी कहते हैं कि एकबोटे को गिरफ्तार कर लिया गया तो गुरूजी की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही है? मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का यह बयान दलितों को और लामबंद करने में मददगार होगा जिसमें उन्होने संभाजीराव भिड़े उर्फ गुरूजी को क्लीन चीट दे दी है।

भीमा-कोरागांव की घटना देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार के सामने चुनौती से कम नहीं है. क्योंकि, इससे पहले मराठा जाति के लोगों ने पूरे राज्य में मूक मार्च किया था और विधानसभा का भी घेराव किया था. लेकिन मुख्यमंत्री फडणवीस ने अपनी रणनीति से इस जातीय आंदोलन पर काबू पाने में फौरी सफलता पायी है. इसका भी असर 2019 के चुनावों में देखने को मिल सकता है. इसके बाद हजारों किसान भी अपनी मांगों को लेकर पैदल मार्च करके विधानसभा को घेरने के लिए आजाद मैदान तक पहुंचे थे. यह सब किसी लोकप्रिय सरकार के कार्यकाल में बेहतर नहीं माना जाता है. हालांकि, फडणवीस सरकार की एक महिला मंत्री पंकजा मुंडे ने इन किसानों को नक्सली कहकर विवाद खड़ा करने की नाकाम कोशिश की थी.

महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील राज्य में समाज के अलग-अलग तबके के लोग जिस तरह से अपनी मांगों को लेकर सड़क पर उतर रहे हैं उससे यह भी पता चल रहा है कि सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा है जो आगामी चुनावों में अपना रंग दिखा सकता है. प्रकाश आंबेडकर भी दलित समाज के गुस्से को अपने साथ लेकर न्याय दिलाने का काम कर रहे हैं. इससे दूसरे दलित नेता परेशान तो हैं और अपना राजनीतिक कद कम होने की बात कबूल नहीं कर पा रहे हैं. अलबत्ता, प्रकाश आंबेडकर पर आरोप लगा रहे हैं कि वे दूसरे दलित नेताओँ को अपने विश्वास में नहीं ले रहे हैं. इस पर प्रकाश आंबेडकर कुछ नहीं बोल रहे हैं. बावजूद इसके उनके मोर्चे में जो भीड़ दिखी है उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि इसमें पूरा दलित समाज है.

प्रकाश आंबेडकर के इस आंदोलन का खुलकर कोई दलित नेता विरोध भी नहीं कर पा रहा है. उन्हें पता है कि विरोध करने से उनकी राजनीतिक जमीन हिल जाएगी. वैसे, महाराष्ट्र में दलितों के बड़े नेता के रूप में रामदास आठवले (आरपीआई-आठवले गुट) ने अपनी अलग पहचान बनाई है और केंद्र में मंत्री भी हैं. लेकिन भीमा-कोरागांव घटना के मामले में वे प्रकाश आंबेडकर की तरह दलितों के साथ खड़े नहीं दिख रहे हैं. आठवले की भूमिका को भी 2019 के चुनावों की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है. इधर प्रकाश आंबेडकर ने जिस तरह से राज्य में दलितों की राजनीति को नया मोड़ देने की कोशिश की है उससे उनका भी राजनीतिक भविष्य दिख रहा है. देवेंद्र फडणवीस के बयान के बाद भी वे गुरूजी को गिरफ्तार कराने के आंदोलन को विस्तार देने में सफल हो जाते हैं तो राज्य के छह फीसदी दलित 2019 के चुनावों में वोट के राजनीतिक समीकरण को बदलने में अहम भूमिका निभा सकते हैं.