विगत 22 और 23 अप्रैल को केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल और गढ़चिरौली पुलिस की एक खास इकाई सी – 60 द्वारा संयुक्त रूप से 37 कथित माओवादियों के मारे जाने की घटना से ‘मुठभेड़’ करने के राज्य के तौर - तरीकों पर कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं. 22 अप्रैल की सुबह पुलिस और अर्द्ध – सैनिक बलों के 64 जवानों ने पूर्वी महाराष्ट्र भामरागोड इलाके करनासुर जंगल में 16 माओवादियों को मार गिराया. अगले दिन 23 अप्रैल की शाम को गढ़चिरौली जिले के जिमालगट्टा इलाके के राजाराम खंडला जंगल में पुलिस के कमांडो और सुरक्षा बलों के जवानों ने 6 अन्य माओवादियों को मारा. इसके बाद 24 अप्रैल को, पुलिस को इन्द्रावती नदी से 15 संदिग्ध माओवादियों की फूली हुई लाशें मिलीं. फिलवक़्त मरने वालों की संख्या 37 है. इन हमलों पर माओवादियों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की है, जबकि पुलिस का दावा है कि माओवादियों को सात महिलाओं समेत अपने तीन शीर्ष नेताओं को खोना पड़ा है. इसे पिछले चार दशकों में माओवादियों के खिलाफ सबसे बड़ा हमला माना जा रहा है. समूचे गढ़चिरौली जिले को सील कर दिया गया है और पुलिस एवं अर्द्ध – सैनिक बलों द्वारा संयुक्त रूप से तलाशी अभियान चलाया जा रहा है.

राज्य जब मुठभेड़ों के माध्यम से अपने ही लोगों के खिलाफ जंग छेड़ता है, तो उसके तौर – तरीकों पर विरले ही सवाल उठाया जाता है. क्योंकि यह मान लिया जाता है कि राज्य उन आतंकवादियों और देशद्रोहियों के खिलाफ एक जरुरी लड़ाई लड़ रहा है जो आख़िरकार लोगों को लूटते और उनका उत्पीड़न करते हैं – माओवादियों की तरह. लेकिन, क्या ताड़गांव में वाकई कोई मुठभेड़ हुआ था?

मीडिया रिपोर्टों के हिसाब से सुरक्षा बलों के एक गश्ती दल को भामरागोड स्थित पुलिस मुख्यालय से 150 किलोमीटर दूर ताड़गांव के निकट पेरिमिल्लिदलम के मौजूद होने की पक्की सूचना मिलने के बाद 22 अप्रैल को इस मुठभेड़ की शुरूआत हुई. पुलिस ने माओवादियों को चारों तरफ से उस समय घेर लिया जब वे नाश्ता करने के बाद आराम कर थे. इस अभियान में सुरक्षा बलों का कोई भी सदस्य न तो गंभीर रूप से घायल हुआ और न ही मारा गया. वहां कोई मुठभेड़ नहीं हुआ; राज्य ने अंडर बैरल ग्रेनेड लांचरों, जिसका लक्ष्य दुश्मनों को ज्यादा से ज्यादा क्षति पहुंचाना होता है, के जरिए एकतरफा हमला करने की आजमाई हुई रणनीति अपनायी. गढ़चिरौली के पुलिस कप्तान अभिनव देशमुख को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि उक्त अभियान में कितनी राउंड गोलियां चलाई गयीं. यह सभी जानते हैं कि “मुठभेड़ विशेषज्ञों” को प्रोन्नति और पुरस्कारों से नवाजा जाता है. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि 22 और 23 अप्रैल की “सफलता” के बाद ताड़गांव में जश्न मनाया गया और एक वीडियो में सपना चौधरी के लोकप्रिय हरियाणवी गानों की धुन पर सुरक्षा बलों के जवानों को थिरकते हुए दिखाया गया.

यह तर्क दिया जा सकता है कि इसी किस्म के हमलों में माओवादी शामिल रहे हैं. वर्ष 2010 में छत्तीसगढ़ के चिंतलनार में हुए हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गये थे या फिर 2017 में छत्तीसगढ़ के ही बुर्कपाल में सीआरपीएफ के 25 जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. लेकिन यहां एक जरुरी तथ्य आसानी से भुला दिया जाता है कि शस्त्रागार की सुविधा राज्य के पास है, न कि माओवादियों के पास. और, जब राज्य अपने विरोधियों से राजनीतिक संवाद करने से इंकार कर दे और उन्हें मारने पर उतारू हो जाये, तो इस बात पर गौर करना जरुरी हो जाता है कि राज्य अपने दुश्मनों को किस तरह से देखता है और क्यों. वर्ष 2010 में, तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा था, “अगर यह युद्ध है, तो इसे राज्य के ऊपर उनलोगों द्वारा लादा गया है जिनके पास हथियार लेकर चलने और हत्या करने का वैध अधिकार नहीं है.” वर्ष 2016 में उनके उत्तराधिकारी, राजनाथ सिंह, ने कहा, “एक सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है और इस देश में इस किस्म की घटनाओं का अंत होते देखने की मेरी इच्छा है.” राज्य की सोच के बारे में देश के भूतपूर्व और वर्तमान गृहमंत्रियों के इस किस्म के 'इच्छुक' वक्तब्यों से बेहतर और कोई प्रमाण नहीं हो सकता और इसकी झलक उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री की कामकाज के तरीकों में मिलती है जिन्होंने एक साल से भी कम अवधि में तकरीबन 1000 मुठभेड़ों को मंजूरी दी है.

अगर राज्य स्वयं को लोगों का रक्षक मानता है, तो उसे कानून के दायरे में ही रहना होगा. पीयूडीआर विगत 22 और 23 अप्रैल को गढ़चिरौली में की गयी सामूहिक हत्या और तलाशी एवं छापे के नाम पर कानून की धज्जियां उड़ाते हुए सुरक्षा बलों द्वारा किये जा रहे आम लोगों के उत्पीड़न की कड़ी निंदा करता है.

शशि सक्सेना एवं शहाना भट्टाचार्य
सचिव, पीयूडीआर