दक्षिण कश्मीर के शोपियां जिले में बुधवार को कथित रूप से सुरक्षा बलों की गोली से मारा गया किशोर उम्र के लिहाज से उन 15 लोगों में से सबसे छोटा था जो तीन टैक्सियों में भरकर 10 किलोमीटर से अधिक दूरी की यात्रा करके मुठभेड़ में फंसे उग्रवादियों को बचाने पहुंचे थे.

कश्मीर घाटी में श्रीनगर शहर से 60 किलोमीटर दूर पिन्जूरा गांव का 15 वर्षीय किशोर उमर कुमार स्कूल से अपने घर लौटा ही था कि उसने गांव की मस्जिद के लाउडस्पीकर पर तुर्कुवंगम गांव में चल रही मुठभेड़ की ख़बर सुनी.

उमर के भाई गुलज़ार कुमार ने फ़ोन पर बताया, “मां को तुरंत लौटने की बात कहकर वह हड़बड़ी में घर से निकला. उसके बाद हमने सुना कि उग्रवादियों को भागने में मदद करने के लिए वह 14 अन्य लोगों के साथ तीन टैक्सियों में भरकर तुर्कुवंगम गांव पहुंचा था. लेकिन तुर्कुवंगम से पहले दराज़पोरा में एक बागीचे के निकट सुरक्षा बलों की गोली से मारा गया.”

खबरों के मुताबिक, हिजबुल मुजाहिदीन के एक शीर्ष कमांडर जीनत – उल – इस्लाम और उसके दो साथियों के एक रिहाइशी मकान में फंसे होने की सूचना थी. हालांकि तीनों संदिग्ध उग्रवादी भारी तादाद में जमा प्रदर्शनकारियों द्वारा की जा रही जबरदस्त पत्थरबाजी की ओट लेकर सुरक्षा बलों का घेरा तोड़कर वहां से निकल भागने में क़ामयाब रहे.

घाटी के किसी भी हिस्से में मुठभेड़ की स्थिति में स्थानीय लोगों, विशेषकर किशोरों व महिलाओं, के घर से निकल आने और उग्रवादियों को किसी मकान या जंगल में घेर लेने में कामयाब होने वाले सुरक्षा बलों के ऊपर पत्थर फेंकने के चलन ने इस साल तकरीबन डेढ़ दर्जन आम नागरिकों की जान ले ली है.

दक्षिण कश्मीर में तैनात वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक स्तर के एक अधिकारी ने बताया, “ इससे पहले कि आप भीड़ के हत्थे चढ़ जायें, आपके पास उससे भिड़ने के सिवाय और कोई चारा नहीं बचता. यह दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने जैसा है. एक तरफ आप स्वचालित हथियारों से लैस उग्रवादियों के निशाने पर होते हैं, दूसरी ओर आपको बुलेट के माफ़िक घातक पत्थरों से लैस किशोरों की हिंसक भीड़ से निपटना होता है.”

वर्ष 2016 में हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के कोकेरनाग गांव में मारे जाने के बाद पत्थरबाजी की इस 'खतरनाक' प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा. लेकिन उक्त पुलिस अधिकारी ने बताया कि जिस किस्म की “निर्भीकता” के साथ स्थानीय लोग मुठभेड़ों में फंसे आतंकवादियों के बचाव में आगे आते हैं, उसने "पिछली सारी सीमाओं को तोड़ दिया है".

उस पुलिस अधिकारी ने कहा, “पहले आंसू गैस और काली मिर्च गैस के गोले और ज्यादा से ज्यादा रबर की गोलियां प्रदर्शनकारियों को तितर -बितर करने के लिए काफी होते थे. लेकिन इधर, परिस्थितियों में नाटकीय बदलाव आया है. अब वे (प्रदर्शनकारी) आतंकवादियों को निशाना बनाने वाली गोलियों को अपने शरीर पर झेलने के इच्छुक हैं. मौत का डर उनके जेहन से निकल गया है, जोकि एक बेहद चिंताजनक परिघटना है.”

वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने बताया, “हमने किशोरों को आसपास के गांवों से पैदल चलकर आते पाया है. कई बार तो वे दूरदराज के इलाकों से मोटरसाइकिलों, निजी वाहनों, टैक्सियों और यहांतक कि ट्रकों में भरकर मुठभेड़ वाली जगह पर पहुंचते हैं और पत्थरबाजी करते हैं. इससे हमारा काम और कठिन हुआ है.”

कश्मीर घाटी के विभिन्न हिस्सों में सिर्फ इस साल आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ वाली जगह पर कथित रूप से सुरक्षा बलों द्वारा लगभग तीन दर्जन से अधिक आम नागरिक मारे गए हैं. हालांकि, सुरक्षा बलों ने इन मौतों के लिए “दो - तरफा गोलीबारी (क्रॉस –फायरिंग)” को जिम्मेदार बताया है, जोकि पीड़ितों को न्याय हासिल करने से वंचित करने की एक सुविधाजनक दलील है.

अप्रैल का महीना, जोकि आमतौर पर वसंत और एक तरह से उम्मीद के आगमन का संकेत होता है, पिछले कई सालों में सबसे खूनी महीना रहा जिसमें कश्मीर घाटी के विभिन्न इलाकों में 16 आम नागरिकों और 19 आतंकवादियों समेत कुल 41 लोग मारे गये. इससे घाटी में, जहां पिछले तीन सालों में आतंकवाद एकबार फिर से जोर मारने लगा है, पर्यटन को पुनर्जीवित करने के सरकार के प्रयासों गहरा झटका लगा है.