नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने एक बार फिर कमाल दिखा दिया. इस जोड़ी की बदौलत भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दक्षिणी राज्य कर्नाटक में अकेले सबसे बड़ी पार्टी के रुप में जीत हासिल कर सत्ता की कमान संभालने का इंतजार कर रही है. प्रधानमंत्री का करिश्मा और ‘अंत भला तो सब भला’ वाली अमित शाह की रणनीति ने मिलकर जबरदस्त सत्ता विरोधी रुझान की अनुपस्थिति के बावजूद सत्तारूढ़ कांग्रेस को धूल चटा दिया. वर्ष 2014 में केंद्र की सत्ता संभालने के बाद भाजपा ने एक तरह से 21 वें राज्य में अपना कब्जा जमा लिया.

इस जीत के साथ यह कयास लगाए जाने लगे है कि देश में आम चुनाव समय से पहले भी हो सकते हैं. हालांकि भाजपा नेताओं ने इस कयासबाजी को सिरे से ख़ारिज किया है. वैसे भी, दूसरा कार्यकाल पाने की खातिर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में कटौती करने का कोई खास कारण नहीं दिखायी देता क्योंकि इस जीत से पार्टी के भीतर चिंता पैदा करने वाले राजस्थान जैसे राज्य में भी प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर लेने का आत्मविश्वास जगा है. इसके बरक्स, सरकार जनोन्मुखी रवैया अपनाते हुए विभिन्न योजनाओं के माध्यम से समाज के दो सबसे वंचित तबकों -किसानों और दलितों - को लुभाने के लिए आगे बढ़ेगी. वह इन योजनाओं के फैलने तक इंतज़ार करेगी और फिर अगले साल के शुरू में निर्धारित आम चुनावों के लिए कदम बढ़ायेगी.

अमित शाह ने एक बार फिर प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करने और स्थानीय मुद्दों के साथ जातियों एवं समुदायों के समीकरणों के प्रबंधन की क्षमता को दर्शाया है. भाजपा ने कांग्रेस को लिंगायतों के वोट हासिल करने के बारे में शोर मचाने दिया, लेकिन उसके नेता लिंगायत मठों के ऊपर अथक मेहनत करके इस समुदाय के लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे कि उनका भविष्य सिर्फ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ही सुरक्षित है. पार्टी ने तटीय कर्नाटक एवं राज्य के उन इलाकों, जहां हिन्दू – मुस्लिम मुद्दा वर्षों से हावी है, में जमकर विभाजनकारी एवं साम्प्रदायिक कार्ड खेला और वोटों के ध्रुवीकरण में सफलता हासिल की. पार्टी किसानों को भी यह समझाने में सफल रही कि कृषि की बदहाली के लिए सिद्धारमैया सरकार जिम्मेदार है और केंद्र एवं राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने से उनकी समस्या के समाधान में आसानी होगी.

निश्चित रूप से, दिल्ली में व्हाट्स एप्प पर होने वाली बहसें कर्नाटक की वास्तविकता को प्रभावित करने में असफल रहीं. भाजपा ने पुराने मैसूर इलाके में जनता दल – एस को कांग्रेस से भिड़ने के लिए छोड़ दिया. अमित शाह ने जनता दल – एस के नेता देवेगौडा और उनके सुपुत्र एच डी कुमारस्वामी के साथ संवाद की पर्याप्त गुंजाइशें छोड़े रखीं ताकि गठबंधन की जरुरत पड़ने पर इसका इस्तेमाल किया जा सके और अपना ध्यान राज्य के अन्य क्षेत्रों पर केन्द्रित रखा. वोक्कालिगा वोटों को पूरी तरह से देवेगौडा के लिए छोड़ दिया गया. और इसके बरक्स लिंगायतों को यह समझाने में सारा जोर लगा दिया गया कि कांग्रेस पार्टी को उनके हितों की कोई चिंता नहीं है. दरअसल, कर्नाटक के दौरे के दौरान सिद्धारमैया के चुनाव क्षेत्र चामुंडेश्वरी तक में वोक्कालिगा समुदाय के लोगों ने खुलकर कहा कि वे उनके पक्ष में वोट नहीं डालेंगे, बल्कि उनका वोट वर्तमान विधायक और जनता दल – एस के उम्मीदवार को जायेगा. एक ग्रामवासी ने कहा, “उन्होंने हमारे लिए कुछ नहीं किया, और अब हमारा वोट चाहते हैं.” उसके इस कथन से यह साफ़ हो गया था कि लिंगायतों को लुभाने की कांग्रेस पार्टी की रणनीति वोक्कालिगा समुदाय के लोगों को रास नहीं आई.

अमित शाह की मेहनत की पुष्टि इस बात से होती है कि उन्होंने पूरे राज्य में लगभग 50 हजार किलोमीटर का दौरा किया. उन्होंने विभिन्न समुदायों को साथ लाकर उनका गठबंधन बनाने में खूब मेहनत की. यही वजह है कि भाजपा के पास अलग – अलग इलाकों, यहां तक कि कुछ चुनाव क्षेत्रों, के लिए अलग – अलग तर्क थे. शहरी इलाकों में साम्प्रदायिकता की चाशनी में लपेटकर विकास का वादा किया गया. गौरतलब है कि कई शहरी इलाकों में वोटरों ने खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर वोट डालने की बात कही. प्रधानमंत्री की 21 रैलियों, पहले सिर्फ 15 रैलियां तय की गयी थीं, से निकले संदेशों ने कर्नाटक के विभिन्न इलाकों के वोटरों पर खासा असर डाला. इन संदेशों में कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं से लेकर विकास के अभाव, (येद्दयुरप्पा और रेड्डी बंधुओं के भाजपा से जुड़े होने के बावजूद) भ्रष्टाचार और सिद्धारमैया के कुशासन से जुड़े सवाल थे. इन सारे सवालों को साम्प्रदायिकता की चाशनी में लपेटकर परोसा गया और इन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं के माध्यम से तटीय इलाकों में तीखा बनाया गया.

ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी अभी भी चुनौती की गंभीरता को समझ पाने में नाकाम है. पार्टी उम्रदराज नेताओं की संकीर्ण एवं पुरानी सोच और नये नेताओं की सोच, जो अभी बनने की प्रक्रिया में ही है, के बीच फंसी हुई है. कांग्रेस के आज के वरिष्ठ नेता उन नेताओं में से नहीं है जिन्हें इंदिरा गांधी ने अत्यधिक स्वतंत्र या आरामतलब होने की वजह से बाहर निकाल फेंका था. बल्कि वे ऐसे नेताओं का मिलाजुला समूह हैं जिन्हें क्षेत्रीय राजनीति की पर्याप्त समझ नहीं है. और सिद्धारमैया जैसे नेता, जो क्षेत्रीय राजनीति को बखूबी समझते हैं, तीन साल तक एक लचर सरकार चलाते रहे. चौथे साल में अचानक नींद से जागे और क्षेत्रीय अस्मिता का कार्ड खेलने की कोशिश करने लगे और उस लिंगायत समुदाय को अपने साथ लाने का प्रयास करने लगे जिसके हितों को पहले कभी उन्होंने तवज्जो नहीं दिया. भाजपा ने इसे अवसरवाद करार दे दिया और बाजी मार ले गयी.