कैराना उपचुनाव बेहद महत्वपूर्ण है. दरअसल, वर्तमान राजनीतिक हालातों में इसका महत्त्व बेहद बढ़ गया है. और भाजपा एवं विपक्षी दलों के लिए महत्वपूर्ण इस चुनाव की प्रासंगिकता राजनीतिक दलों की जुबानी जंग के बीच गुम नहीं होनी चाहिए.

कैराना उस मुज़फ्फरनगर से सटा हुआ है जिसे 2013 में हिंदुत्व बिग्रेड ने 2014 के आम चुनावों से पहले मतदाताओं के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीयत से एक प्रयोगशाला के तौर पर चुना था. वर्ष 2013 के उस दंगे का गहरा असर पड़ोसी शामली जिले के कैराना पर भी पड़ा था. दंगे ने इस कस्बे के जाटों और मुसलमानों के आपसी भाईचारे को तोड़ दिया और भारी तादाद में मुसलमानों को पलायन पर मजबूर कर दिया, जिनमें से कई आज भी अपने घर नहीं लौटे. भाईचारा टूटने का एक असर यह भी हुआ कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह हिस्सा घृणा और गुस्से से भर गया.

हालांकि मीडिया द्वारा जानबूझकर फैलाये गये धुंध को भेदती हुई हाल में जाटों, जो आम तौर पर गन्ना किसान हैं, की व्यापक दुर्दशा की खबरें सामने आई हैं. ये किसान फसलों की कम कीमत मिलने, चीनी मीलों के पूरी तरह या आंशिक रूप से बंद होने और गन्ना के अत्याधिक उत्पादन से त्रस्त हैं. इस इलाके में आंदोलनों की बाढ़ आ गई है, जिसमें मेरठ और बागपत में एक – एक किसान की मौत गई. दूसरी ओर, इन सबसे गाफिल स्थानीय प्रशासन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दौरे और उनके हाथो किसानों से अधिग्रहित की गयी जमीन पर बने हाईवे के उद्घाटन की तैयारियों में व्यस्त रहा. बर्फ़ की सिल्लियों पर रखे किसानों के शव और उपरोक्त हाईप्रोफाइल उद्घाटन के बीच के अंतर से पैदा हुए संदेश ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तमाम भाजपा कार्यालयों को सिहरा दिया है. मेरठ के एक भाजपा नेता की माने तो जाट किसानों के आंदोलन से पार्टी “सहमी” हुई है.

किसान अब बांटने वाली हिंसा की खुली आलोचना कर हैं. उनमें से कई उन अच्छे दिनों को याद करते हैं जब गांव में सभी लोग भाईचारा के साथ रहते थे. उन्हें (किसानों को) शिद्दत से उनकी (मुसलमानों की) जरुरत महसूस हो रही है. उन्हें यह अहसास हो चला है कि इस बंटवारे ने उन्हें और अधिक धनी व संपन्न नहीं बनाया है, जैसाकि हिंसा की शुरुआत में उन्हें भरमाया गया था. लिहाज़ा उनके भीतर स्वाभाविक रूप से भाजपा के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश उपजा है.

और इसका संकेत इस चुनाव से एक दिन पहले कैराना से लोकदल के उम्मीदवार का आखिरी समय में मैदान से हट जाने और विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार तबस्सुम बेगम का समर्थन करने की घोषणा से मिलता है. राष्ट्रीय लोकदल की टिकट पर लड़ रही तबस्सुम के लिए अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी जी – जान से जुटे हैं. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, वामपंथी दल, आप और राष्ट्रीय लोकदल समेत तमाम विपक्षी पार्टियां बसपा की टिकट पर कैराना से सांसद रहीं तबस्सुम के पक्ष में एकजुट हैं.

विपक्षी दलों का तबस्सुम बेगम के रूप में एक मुसलमान उम्मीदवार को मैदान में उतारने का निर्णय उसके बढ़ते आत्मविश्वास का सबूत है और एक नये किस्म की राजनीति के आगाज़ का संकेत है. जैसाकि जयंत चौधरी ने कहा, विपक्ष ने दिखाया कि भाजपा के दबाव में वो मुसलमानों से किनारा नहीं कर रहा. श्री चौधरी ने साफ़ किया कि धर्मनिरपेक्षता और एकता का संकेत देने लिए सोच – समझकर यह निर्णय लिया गया. निश्चित रूप से, यह विपक्ष का 2014 के बाद से आगे बढ़ने वाला एक कदम है. वर्ष 2014 के आम चुनावों में मुसलमानों के संदर्भ में विपक्ष का रवैया बेहद रक्षात्मक था. विपक्ष का यह कदम एक नये राजनीतिक समीकरण को भी जन्म दे रहा है जिसमें बसपा और मायावती से दलित वोटों को तबस्सुम के पक्ष में हस्तांतरित कराने की अपेक्षा होगी और राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार होने की वजह से जाटों का वोट उनकी ओर खींचने की उम्मीद होगी.

कैराना कभी भी किसी एक पार्टी से बंधकर नहीं रहा है. यहां के मतदाताओं का मिजाज बदलता रहा है. भाजपा ने 1998 में यह सीट जीती थी और 2014 में उसके उम्मीदवार हुकूम सिंह यहां से विजयी हुए थे. उनकी मृत्यु की वजह से यह उपचुनाव हो रहा है. इस इलाके में भाजपा की उपस्थिति हमेशा बनी रही है. लोकसभा के कम से कम चार अन्य चुनावों में पार्टी दूसरे स्थान पर रही थी. वर्ष 2009 के चुनाव में हुकूम सिंह की हार तबस्सुम बेगम के हाथो हुई थी, जो तब बसपा की उम्मीदवार के तौर पर मैदान में थीं.

जिस आसानी के साथ विपक्षी पार्टियों ने उम्मीदवार तय किया और गठबंधन बनाया है, वो 2019 के आम चुनाव के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है. अजित सिंह, जोकि हमेशा से एक अप्रत्याशित रवैया अपनाने वाले नेता रहे हैं, सपा – बसपा के साथ भागीदारी करने आ गये हैं. उनके पिता, चौधरी चरण सिंह, द्वारा तैयार किया गया उनकी पार्टी का परंपरागत जाट वोट का खासा हिस्सा भाजपा के खाते में चला गया है. हालांकि उनकी पार्टी के नेता इस बार उन्हें मिल रहे समर्थन से खासा उत्साहित हैं. जयंत चौधरी ने छोटी और नुक्कड़ सभाओं के माध्यम से जाटों को अपने पक्ष में लाने की पुरजोर कोशिश की है. भाजपा के खिलाफ लोगों के गुस्से ने उनके काम को आसान बनाया है.

कैराना में तबस्सुम की जीत विपक्षी एकता को अगले आम चुनाव के लिहाज से आगे बढ़ाने और भाजपा की राजनीति पर लगाम लगाने में सहायक साबित होगी.