उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों में भाजपा की जबरदस्त हार का सरसरी तौर पर किये गये एक विश्लेषण से, विपक्षी एकता के अलावा, निम्नलिखित आयाम सामने आये हैं :

1) वर्ष 2014 में भाजपा द्वारा बनाया गया मुसलमान – विरोधी, गैर – यादव, गैर – जाटव ‘हिन्दू’ गठबंधन अब तार – तार हो चुका है. कैराना ‘दंगा प्रभावित क्षेत्र’ का हिस्सा है. यहां 2014 और 2017 के चुनावों में, तमाम अनुमानों के विपरीत, जाटों ने एकजुट होकर भाजपा के पक्ष में मतदान किया. इससे पहले, यहां तक कि जनसंघ के ज़माने में, जाट या तो कांग्रेस के साथ थे या फिर गैर – भाजपा विपक्षी दलों के साथ. 1857 के महान विद्रोह के समय बनी जाट – मुस्लिम एकता को आज़ादी के पहले सर छोटूराम ने मजबूत किया और फिर इस प्रक्रिया को चौधरी चरण सिंह ने और आगे बढ़ाया. यहां तक कि इस एकता ने 1947 में दंगों की लहर को झेल लिया. जाटों के संरक्षण और भाईचारे की वजह से मुज़फ्फरनगर के मुसलमान पाकिस्तान नहीं भागे.

मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद ही जाट भाजपा के पाले में गये. वर्ष 2014 से 2017 के बीच, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों ने भाजपा के लिए आधार बनाया. लेकिन कैराना उपचुनाव में, 70% से अधिक जाटों ने राष्ट्रीय लोक दल के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान किया. निश्चित रूप से, जाटों का राष्ट्रीय लोक दल के साथ एक लगाव है. लेकिन चरण सिंह के बेटे अजित सिंह की पुरजोर अपील के बावजूद जाटों ने पिछले दो चुनावों में भाजपा के पक्ष में मतदान किया था. इस उपचुनाव में जाटों के भाजपा – विरोधी होने और मुसलमानों को वोट डालने में मदद करने की बात ने एक बहुत बड़ा संदेश दिया है. इसका सीधा मतलब यह हुआ कि भाजपा ने अपना मुख्य “प्रभावशाली” आधार खोया है, एक ऐसा सामाजिक तबका जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक लहर पैदा करता है. जाटों के समर्थन के बगैर 2019 के आम चुनावों में भाजपा के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 5 सीट भी जीतना मुश्किल होगा.

2) जाटों के उलट, गैर – यादव पिछड़ी और गैर – जाटव अनुसूचित जातियों, जिन्हें भाजपा ने 2014 और 2017 के चुनावों में अपने साथ जोड़ा था, का जनसंघ / भाजपा के साथ सहानुभूति का इतिहास रहा है. यहां तक कि राम मंदिर के दौर से पहले, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में शाक्य और कश्यप जैसी अति – पिछड़ी जातियों ने जनसंघ / भाजपा के पक्ष में थोक या टुकड़ों – टुकड़ों में वोट किया. गैर – जाटव दलित जातियों में प्रमुख मानी जानी वाली वाल्मिकी जाति ने भी कुछ ऐसा ही किया. इन सामाजिक समूहों ने 1990 और 2000 के दशकों में, जिसका चरम 2014 और 2017 में हुआ, बड़े पैमाने पर भाजपा का साथ दिया. हालांकि, इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अति – पिछड़ी जातियों के लगभग 25 से 30% हिस्से ने या तो राष्ट्रीय लोक दल के उम्मीदवार को वोट दिया या फिर इन जातियों ने घर बैठना पसंद किया. ठीक यही बात वाल्मिकियों के संदर्भ में भी लागू होती है.

3) अति – पिछड़ी जातियों का भाजपा से दूर जाने का सिलसिला पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों के दौरान भी दिखा था. वर्ष 2014 और 2017 के उपचुनावों में निषाद जैसी अति – पिछड़ी जातियों के लोगों ने जमकर भाजपा के पक्ष में वोट डाला था. लेकिन गोरखपुर के उपचुनाव में समाजवादी पार्टी ने एक निषाद उम्मीदवार को मैदान में उतारा था, जिसने भाजपा के वर्तमान मुख्यमंत्री के गढ़ में उसके उम्मीदवार को हरा दिया.

4) जहां तक ब्राह्मण और ठाकुरों का सवाल है, पूर्वी उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में ज्यादातर ठाकुर भाजपा के साथ खड़े दिखे. लेकिन ब्राह्मणों ने फूलपुर और गोरखपुर में भाजपा की हार सुनिश्चित की. उन्होंने सपा के पक्ष में वोट तो नहीं डाला, लेकिन वोट डालने नहीं जाकर उन्होंने अपने असंतोष का इज़हार कर दिया. इसकी वजह से गोरखपुर और फूलपुर में मतदान का प्रतिशत बेहद कम रहा, जिसने सपा की जीत में अहम भूमिका निभायी. पूर्वी उत्तर प्रदेश के उलट, राज्य के पश्चिमी हिस्से में ब्राह्मणों की तादाद काफी कम है. फिर भी, 2014 और 2017 के चुनावों में भाजपा के पक्ष में लहर बनाने में उनकी खासी भूमिका थी. लेकिन इस बार, कैराना और नूरपुर की गलियों में वे भाजपा के पक्ष में सक्रिय रूप से माहौल बनाते नजर नहीं आये. मतदान के दिन ज्यादातर ब्राह्मण अपने घरों में बैठे थे. कैराना में मतदान के प्रतिशत में करीब 10% की गिरावट दर्ज की गयी.

5) वर्ष 2014 और 2017 के चुनावों में जाटवों के एक बहुत ही छोटे से हिस्से ने भाजपा के पक्ष में वोट डाला था. ज्यादातर जाटव बसपा के साथ टिके रहे. मायावती ने फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनावों में सपा का समर्थन किया था. कैराना और नूरपुर में भी उन्होंने क्रमशः राष्ट्रीय लोक दल और सपा का समर्थन करने का इशारा किया. लेकिन कैराना में, राष्ट्रीय लोक दल के पक्ष में चन्द्रशेखर रावण की अपील ने जाटवों और दलितों को भाजपा के खिलाफ मतदान के लिए प्रेरित किया. दरअसल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित और मुसलमानों का एक ढीला – ढाला गठबंधन उभरकर सामने आ रहा है.

6) उत्तर प्रदेश की आबादी में मुसलमानों की तादाद 18% है. फिर भी, 2014 के लोकसभा के चुनावों में भाजपा 72 सीटें जीतने में कामयाब रही. कुल 80 सीटों मेंसे एक भी मुसलमान सांसद नहीं था. लेकिन राष्ट्रीय लोक दल की तब्बसुम हसन की जीत के बाद उत्तर प्रदेश से एक मुसलमान अब संसद में पहुंच गया है.