सर्वोच्च न्यायालय ने एससी-एसटी श्रेणी के कर्मचारियों के प्रमोशन में आरक्षण को फिलहाल मौखिक अनुमति दे दी है। अदालत का इस बारे में कहना है कि जब तक संविधान पीठ इस बारे में कोई अंतिम फैसला नहीं करती, तब तक केंद्र सरकार कानून के मुताबिक प्रमोशन में आरक्षण पर आगे बढ़ सकती है। न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अवकाशकालीन पीठ ने केंद्र की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई के दौरान स्पष्ट तौर पर कहा कि केंद्र के कानून के अनुसार पदोन्नति देने पर रोक नहीं है। जाहिर है कि अदालत का यह फैसला उन लोगों में खुशी की एक लहर लेकर लाया है, जिनका प्रमोशन अदालतों के अलग-अलग आदेशों की वजह से रुका हुआ था। आरक्षित वर्ग को उसकी श्रेणी में और अनारक्षित वर्ग को अनारक्षित कोटे में पदोन्नति मिलती रहेगी।ज्ञातब्य है कि न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल ने दलितों –आदिवासियों के उत्पीड़न की रोकथाम के लिए बने एससी –एसटी एक्ट में फेरबदल करने का फैसला 20 मार्च को लिखा था।

दिल्ली हाईकोर्ट के अगस्त 2017 के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की हुई है। हाईकोर्ट ने अपने इस फैसले में कार्मिक एंव प्रशिक्षण विभाग के अगस्त 1997 के उस सरकारी आदेश को निरस्त कर दिया था, जिसमें प्रमोशन में आरक्षण को अनिश्चितकाल के लिए जारी रखने का प्रावधान था। अदालत का इस बारे में कहना था कि साल 2006 के एम. नागराज फैसले के मुताबिक यह आदेश अवैध है। दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले का जब अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के कर्मचारियों ने विरोध किया, तो केन्द्र सरकार हरकत में आई और उसने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर तत्काल सुनवाई का आग्रह किया। केंद्र सरकार ने अपनी इस याचिका में अदालत को बतलाया था कि अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने के मुद्दे पर दिल्ली, बंबई और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के अलग-अलग फैसले हैं और शीर्ष अदालत ने भी उन फैसलों के खिलाफ दायर अपील पर अलग-अलग आदेश दिए हुए हैं। पहला आदेश कहता है कि यथास्थिति जारी रहे। वहीं, मई 2017 में जस्टिस कुरियन जोसेफ की पीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि क्रीमी लेयर की अवधारणा सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होती है। मामले के लंबित रहते प्रमोशन में आरक्षण देने पर कोई रोक नहीं है। इन विरोधाभासी फैसलों की वजह से प्रमोशन में कोटे की सारी प्रक्रिया रुक गई है। देश भर में करीब 14 हजार प्रमोशन रुके पड़े हैं।

बहुचर्चित इंदिरा साहनी मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक साल 1997 तक प्रमोशन में पांच साल तक आरक्षण देने की व्यवस्था लागू थी। अगस्त 1997 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने नई अधिसूचना लाकर प्रमोशन में आरक्षण को पूरे सेवाकाल तक बढ़ा दिया। इस फैसले को एक एनजीओ ‘ऑल इंडिया इक्वालिटी फोरम’ और दीगर कुछ लोगों ने दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी। याचिका पर सुनवाई करने के बाद 23 अगस्त 2017 को अदालत ने अगस्त 1997 में जारी अधिसूचना को रद्द कर दिया। दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ जब केंद्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय पहुंची, तो अदालत ने नवंबर 2017 में इस मामले को अपनी संवैधानिक पीठ को सौंप दिया। संवैधानिक पीठ अब इस बात पर विचार कर रही है कि पिछड़ेपन का आकलन, एससी-एसटी कर्मचारियों के लिए प्रमोशन में आरक्षण का आधार होना चाहिए या नहीं। वह यह भी पड़ताल कर रही है कि इससे जुड़े एम नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट के पहले आए फैसले पर फिर से विचार की जरूरत है या नहीं।

एक तरह से देखें, तो यह पूरा मामला एम नागराज मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के फैसले पर पुनर्विचार से जुड़ा हुआ है। पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने साल 2006 में एम नागराज फैसले में कहा था कि एससी-एसटी के लिए प्रमोशन में आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने से पहले राज्यों को उनके पिछड़ेपन, सरकारी सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और संपूर्ण प्रशासनिक दक्षता से जुड़े कारणों की जानकारी देनी होगी। प्रमोशन में आरक्षण से पहले उनके पिछड़ेपन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने होंगे। बिना जरूरी आंकड़ों के अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यही नहीं यदि आरक्षण देना बेहद जरूरी हो, तो इस बात का ध्यान रखना होगा कि यह पचास फीसदी की सीमा से ज्यादा न हो। आरक्षण की व्यवस्था लागू करते समय, क्रीमी लेयर पर फैसले को ध्यान में रखें। आरक्षण अनिश्चितकाल के लिए न हो। शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद, देश के अलग-अलग राज्यों में पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ याचिकाएं दायर हो गईं और ज्यादातर निचली अदालतों ने एम नागराज मामले को आधार बनाकर पदोन्नति में आरक्षण पर रोक लगा दी। जिससे अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के कर्मचारियों का प्रमोशन रुक गया। अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के लोगों की नाराजगी को देखते हुए भले ही केन्द्र में बैठी मोदी सरकार, इस मामले में अब अदालती लड़ाई लड़ रही हो, लेकिन उसकी नीयत पर सवाल तो हैं ही। सवाल उठने के पीछे ठोस वजह भी है।

पदोन्नति में आरक्षण को लेकर जो कानूनी जटिलताएं सामने निकलकर आई हैं, ऐसी परिस्थितियों में इस समस्या का अंतिम समाधान संविधान संशोधन के जरिए ही हो सकता है। इस संबंध में एक संविधान संशोधन विधेयक, राज्यसभा में पारित होने के बाद, पिछले चार वर्षों से लोकसभा में अटका है। राजग सरकार के बहुमत में होने के बाद भी ‘प्रोन्नति में आरक्षण विधेयक’ यदि लोकसभा में पारित नहीं हो पा रहा है, तो इसके लिए दोषी, पूरी तरह से मोदी सरकार है। ये सरकार अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के लोगों के उत्थान और विकास की बड़ी-बड़ी बातें करती है, लेकिन जमीनी सतह पर उनके साथ कहीं इंसाफ नहीं हो रहा है। समाज में उन्हें हर स्तर पर भेदभाव झेलना पड़ रहा है। यदि सरकार अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के लोगों की समस्याओं के प्रति संजीदा होती, तो यह कानून कभी का बन गया होता। इसमें इतनी लेटलतीफी नहीं होती। प्रमोशन में आरक्षण देने के पीछे का मूल मकसद, उन वंचित तबके के कर्मचारियों का प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था, जो जातीय भेदभाव के चलते पीछे रह जाते थे। 77वे सांविधानिक संशोधन और 85वे संशोधन के तहत अनुच्छेद 16 (4ए) और अनुच्छेद 16 (4बी) का गठन हुआ और इसमें यह प्रावधान किया गया कि अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में भी आरक्षण मिले। ताकि कोई उनका वाजिब हक उनसे छीन न सके। बावजूद इसके अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के कर्मचारियों के संवैधानिक अधिकार छीने जा रहे हैं।