संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को अपना खर्च पार्टी के बाहर से ही जुटाना पड़ता है। यह खर्च , चुनावों में बेतहाशा बढ़ जाता है जिसके लिए धन उपलब्ध कराने की राष्ट्र -राज्य से सांविधिक व्यवस्था करने की मांग के बावजूद कुछ भी ठोस उपाय नहीं किये गए हैं। ऐसे हालात में ये पार्टियां पूंजीपति वर्ग से घोषित -अघोषित चन्दा लेती हैं. सब मानते हैं कि भारत ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी सबसे अमीर पार्टी भी है। उसे वह अमीरी राजसत्ता में रहने से मिली है।

नई दिल्ली में पिछले 26 जून को एक बैठक में प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री पीयूष गोयल के साथ 30 बड़े पूँजीपतियों ने तीन घंटे चर्चा की .पहले सामूहिक चर्चा हुई। बाद में सीधी अलग -अलग चर्चा भी हुई । श्री गोयल , वित्त मंत्री के साथ ही भाजपा कोषाध्यक्ष पद भी संभाले हुए हैं। बैठक में पूंजीपति वर्ग की ओर से अन्य के अलावा मुकेश अंबानी, कुमारमंगलम बिड़ला, आनंद महिंद्रा भी उपस्थित थे। कुछ राजनीतिक टीकाकारों के मुताबिक़ यह बैठक पूंजीपति वर्ग की शिकवा-शिकायत निपटाने के लिए बुलाई गई। माना जाता है कि भारत के पूंजीपति वर्ग ने 2014 में मोदी जी को सत्ता में लाने में मदद की थी। सवाल उठे हैं कि क्या पूंजीपति वर्ग मोदी जी के पीछे अभी भी एकजुट है या उनमें कुछ मतभेद हैं। पूंजीपति वर्ग के किसी भी पार्टी को को चुनावी चन्दा देने पर कोई कानूनी रोक -टोक नहीं है। लेकिन देखना है कि भाजपा को इस बार पूंजीपतियों से कितनी वित्तीय मदद मिलती है। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार भाजपा द्वारा किये चुनावी वादों के अनुरूप मोदी सरकार द्वारा जीएसटी , दिवालिया कानून जैसे किये गए उपायों से पूंजीपति वर्ग प्रसन्न तो है। लेकिन वह वैश्विक आर्थिक संकट के चलते सशंकित भी है।

पार्टी सदस्यों से एक आना , दो आना , फिर चवन्नी -अठन्नी से लेकर बाद में चंद रूपये में परिवर्तित वार्षिक सदस्य्ता शुल्क सिर्फ एक औपचारिकता है। इसके निर्वहन की एक साफ झलक खबरिया चैनलों पर तब नज़र आई थी जब 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले बहुचर्चित पत्रकार -लेखक एवं कांग्रेस के पूर्व सांसद और प्रवक्ता भी रहे एम जे अकबर , नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय पहुँच कर इस पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल हुए थे। तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष ( मौजूदा केंद्रीय गृह मंत्री ) राजनाथ सिंह ने उन्हें , अपनी अँगुलियों से चुटकी -सी बजाकर सदस्य्ता शुल्क भरने की ताकीद करने में गुरेज नहीं किया था।

सीपीएमं में लेवी

कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं जो अपने सदस्यों से उनकी आय के तयशुदा अनुपात में ' लेवी ' वसूलती हैं। इनमें ख़ास तौर पर कम्म्युनिस्ट पार्टियां सबसे आगे हैं। त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार सरीखे पूर्णकालिक पार्टी कार्यकर्ता अपनी समस्त आय अपनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को प्रदान कर पार्टी से मिले ' कार्यकर्ता -वृत्ति ' के सहारे गुजर बसर करते हैं। पर कम्युनिस्ट पार्टियों को भी चाहे -अनचाहे धन्ना सेठों से चन्दा लेना ही पड़ता है। वे अपनी सम्पदा को बढ़ाने पूंजी बाजार में निवेश भी करते हैं। माकपा ने भी पूंजी बाज़ार में प्रचलित सरकारी बॉन्ड आदि में ऐसे निवेश कर रखे हैं।

पित्रोदा ने कहा पार्टियों को कंपनी बना दो

भारत में टेलीकॉम क्रान्ति के जनक माने जाने वाले और कांग्रेस के करीबी गुजराती उधमी , सैम पित्रोदा ने कई बरस पहले मुंबई प्रेस क्लब में पत्रकारों के साथ औपचारिक बातचीत में सुझाव दिया था निर्वाचन आयोग से पंजीकृत एवं मान्यता प्राप्त हर राजनीतिक दल को कम्पनी अधिनियम की एक विशेष , सेक्शन 20 बी के तहत धर्मार्थ न्यास की तरह , " नॉट -फॉर -प्रॉफिट " कम्पनी में परिणत कर दिया जाए। फिर इन पार्टियों का ' कारोबार ' शेयर बाज़ार में सूचीबद्ध किया जाए ताकि उनके सदस्य और समर्थक इन शेयरों की विधि -सम्मत खरीद फरोख्त कर इन राजनीतिक कंपनियों को चुनाव लड़ने या नहीं लड़ने के लिए उत्प्रेरित कर सकें. उस सुझाव पर कभी समुचित चर्चा ही नहीं हुई.

चौधरी चरण सिंह की थैली

दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने अपनी पार्टी की रैलियों में लोगों के खुदरा से लेकर थोक दान तक मिलाकर एकत्रित कुल रकम की ' थैली ' लेने की परम्परा विकसित की थी। नई दिल्ली के बोट क्लब मैदान में 23 दिसंबर 1978 को उनकी 75 वीं जयन्ती के अवसर पर उनकी स्वयं अनुमानित और इंडिया टुडे के प्रभु चावला की प्रकाशित रिपोर्ट की रिपोर्ट में उल्लेखित ' लाखों ' लोगों की किसान रैली में बड़ी धनराशि की थैली हासिल हुई थी . दिवंगत चौधरी चरण सिंह पर प्रकाशित एक पुस्तक की आंग्ल पाक्षिक , फ्रंटलाइन में समीक्षा करने वाले वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप कुमार के अनुसार वह थैली कम -से-कम 75 लाख रूपये की रही होगी। क्योंकि तय यही किया गया था कि थैली में उनके हर जन्म दिन के हिसाब से एक-एक लाख रूपये अवश्य दिए जाएँ। चौधरी साहब ने किसान ट्रस्ट की स्थापना और उस ट्रस्ट की और से ' असली भारत ' नामक पत्रिका का प्रकाशन इस थैली का सदुपयोग कर ही किया था। उनके पुत्र एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अजित सिंह तथा पौत्र एवं मथुरा के पूर्व सांसद जयंत चौधरी अपने ,राष्ट्रीय लोक दल की आय के लिए थैली परम्परा को आगे नहीं बढ़ा सके. किसान ट्रस्ट तो कायम है लेकिन असली भारत का प्रकाशन बंद हुए बरसों गुजर गए हैं।

बसपा ने परंपरा आगे बढ़ाई

अलबत्ता , बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख एवं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने थैलियां लेने की परम्परा और आगे बढ़ाई। उनके राजनीतिक विरोधी आरोप लगाते हैं कि उन्होंने इन थैलियों से , पार्टी के चुनावी टिकट बेच कर और भ्रष्टाचार के अनेक तरीकों से भी अकूत धनराशि जमा की। जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय ( नई दिल्ली ) से शिक्षित अर्थवेत्ता एवं पूर्व पत्रकार और अब आंध्र प्रदेश के वैज़ाग में स्वतंत्र व्यवसाय कर रहे , जी. वी. रमन्ना के अनुसार उत्तर प्रदेश विधान सभा के पिछले चुनाव से पहले 8 दिसंबर 2016 की रात आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अचानक की गई घोषणा और उसी मध्यरात्रि से लागू नोटबंदी एक उद्देश्य संभवतः बसपा प्रमुख को चुनाव में इस्तेमाल की जाने वाली उनकी नगदी से वंचित करना भी था।

वेदांता का ट्रस्ट और भाजपा

अब यह बात जगजाहिर है कि हाल में तमिलनाडु के तूतीकोरन में भारतीय मूल के अनिल अग्रवाल की जिस बहुराष्ट्रीय कम्पनी , वेदांता के ताम्बा गलाने के संयंत्र से प्रदुषण के विरोध में प्रदर्शन में शामिल लोगों पर पुलिस फायरिंग में 13 लोगों को भून दिया गया वह मोदी जी के बड़े समर्थक हैं। वैसे वेदांता ने भाजपा और कांग्रेस , दोनों को चंदे दिए हैं। दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल अदालती दस्तावेजों के मुताबिक़ उसने 2004 से 2015 के बीच भाजपा को 17 . 65 करोड़ रूपये और कांग्रेस को 8 . 75 करोड़ रूपये चंदे दिए। उसके लन्दन में कायम एक ट्रस्ट ने भाजपा को अलग से 14 . 50 करोड़ रूपये के विदेशी चंदे दिए। आम लोग , चुनावों में पूंजीपति वर्ग के दखल की बारीकियां नहीं समझ पाते है। क्योंकि देश की 25 प्रतिशत आबादी अभी भी साक्षर नहीं है। देश की आज़ादी के समय 17 प्रतिशत मतदाता ही साक्षर थे। साक्षर मतदाताओं में से भी अधिकतर सीमित जानकारी के कारण चुनावों में स्वतंत्र निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होते हैं।

विदेशी चंदा का प्रावधान

राजनीतिक दलों को थैली , चन्दा लेने में कोई ख़ास अड़चन तब तक नहीं है जबतक कि ये चंदे देश के कानून के अनुसार हों. लेकिन अक्सर ये चंदे क़ानून के खिलाफ दिए और लिए जाते हैं। हाल में ऐसा भी हुआ कि बरसों से चल रहे इन अवैध चंदों को वैधता प्रदान करने के लिए क़ानून ही बदल दिया गया। मोदी सरकार ने पहले भी , वित्त विधेयक (2016 ) के जरिए एफसीआरए में संशोधन कर राजनीतिक दलों के लिए विदेशी चंदा लेने को आसान बनाया था।

इस बरस संसद के बजट सत्र में सत्ता पक्ष ने , मुख्य विपक्ष कांग्रेस के साथ संसदीय गलबहियां डाल कर राजनीतिक दलों को विदेशी चन्दा के नियमन से सम्बंधित कानून ही 42 बरसों के पूर्वकालिक प्रभाव से बदल दिया। दरअसल , विदेशी चंदा नियमन कानून ( एफसीआरए ) , 2010 संशोधन विधेयक को केंद्रीय बजट से सम्बंधित वित्त विधेयक की तरह बिना बहस के ही ' गिलोटिन ' के छू -छू मंतर से पारित कर दिया गया । नए संशोधन से राजनीतिक पार्टियों को वर्ष 1976 से मिले सारे के सारे विदेशी चंदे पूर्वकालिक प्रभाव से बिलकुल वैध हो गए हैं .सरकार ने विदेशी कंपनी की परिभाषा ही बदल दी है। नई परिभाषा के तहत किसी भी कंपनी में 50 फीसदी से कम शेयर पूंजी , विदेशी इकाई के पास है तो वह विदेशी कंपनी नहीं कही जाएगी। नए संशोधन से राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा लेना और भी आसान हो गया. यही नहीं उन्हें 1976 के बाद से मिले तमाम विदेशी चंदे की जांच संभव नहीं होगी।

संशोधन की बदौलत भाजपा और कांग्रेस , दिल्ली हाईकोर्ट के 2014 उस फैसले के शिकंजे से बच जाएगी जिसमें उन्हें एफसीआरए कानून के उल्लंघन का दोषी पाया गया था । इस संशोधन का भारत में चुनावी व्यवस्था पर जो असर पड़ा है वह कोई मामूली बात नहीं है। संदेह स्वाभाविक है कि ' दाल में कुछ काला है '. बजट सत्र में यह कारनामा हो गया और निर्वाचन आयोग की कान पर जूँ तक नहीं रेंगी. हालांकि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा था कि उनकी पार्टी ने इस संशोधन की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की ठानी है।

उक्त संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली एक याचिका को विचारार्थ स्वीकार कर इसी 2 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की एक बेंच ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किये हैं। " एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स " ( ऐडीआर ) द्वारा दाखिल इस याचिका में संसद द्वारा पारित वित्त विधेयक 2018 के उन सेक्शन 217 और सेक्शन 236 को निरस्त करने की याचना की गई है जिनके तहत विदेशी चंदे के क़ानून में नियमन को लुंज -पुंज बना दिया गया है।

निगरानी रखने वाली संस्था की रिपोर्ट

ऐडीआर स्वैच्छिक संस्था है जिससे केंद्र सरकार के पूर्व सचिव ई ऐ एस सर्मा जुड़े हुए हैं। ऐडीआर ने विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा वित्त वर्ष 2016 -17 के अपने आय -व्यय के निर्वाचन आयोग को सौंपे ब्योरा का विश्लेषण कर जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कई तथ्य चौंकाने वाले हैं। नौ अप्रैल 2018 को जारी इस रिपोर्ट के अनुसार निर्वाचन आयोग को यह ब्योरा सौंपने की अंतिम तारीख 30 अक्टूबर 2017 थी। लेकिन सांविधिक रूप से अनिवार्य यह ब्योरा वित्त एवं विधि विशेषज्ञों से भरपूर भाजपा ने 99 दिनों की देरी से 8 फरवरी 2018 को और कांग्रेस ने तो 138 दिनों के विलम्ब से 19 मार्च 2018 को दाखिल किये। निर्वाचन आयोग से राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की मान्यता प्राप्त सात दलों , भाजपा , कांग्रेस , बसपा , माकपा , भाकपा और तृणमूल कांग्रेस ने वित्त वर्ष 2016 -17 में समस्त भारत से कुल मिलाकर 1, 559 . 26 करोड़ रूपये की आय तथा कुल 1228. 26 का व्यय दर्शाया है। भाजपा ने सर्वाधिक कुल 710 . 057 करोड़ रूपये का ऑडिट किया खर्च घोषित किया है। कांग्रेस ने अपनी कुल आय से 96 . 30 करोड़ रूपये अधिक 321 . 66 करोड़ रूपये का खर्च दिखाया है।

ऐडीआर के अनुसार इस बार के बजट सत्र में एफसीआरए कानून में संशोधन दिल्ली हाई कोर्ट के मार्च 2014 के उस निर्णय को नकारने के लिए किया गया जिसमें भाजपा और कांग्रेस , दोनों को विदेशी चंदे लेने में क़ानून का उल्लंघन करने का दोषी ठहराया गया था। हाई कोर्ट के आदेश में निर्वाचन आयोग से इन दोनों पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया था। वह आदेश इस लिंक पर उपलब्ध है https://bit.ly/2KsTB0c

* सीपी नाम से मीडिया हल्कों में ज्ञात लेखक एक न्यूज एजेंसी के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से सेवानिवृत्त होने के बाद स्वतंत्र पत्रकारिता , लेखन और शोध कर रहे है.