मराठों की नाराजगी से जूझ रहे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस के पैरों के नीचे से जमीन तेजी से खिसकती जा रही है. उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से कोई मदद नहीं मिल रही है. इस दोनों नेताओं ने मराठों की आरक्षण की मांग पर एक शब्द भी नहीं कहा है. राज्य विधानसभा के विशेष अधिवेशन बुलाने की घोषणा के जरिए मराठों की हिंसा को रोकने का फड़नवीस का प्रयास सहयोगी दल शिवसेना और एकजुट विपक्ष के दबाव के आगे बेकार होता नजर आ रहा है. शिवसेना और विपक्षी दल राज्यपाल और खुद फड़नवीस से मिलकर इस मसले पर तत्काल निर्णय लेने पर जोर डाल रहे हैं.

फड़नवीस ने यह कहकर मामले को टालने की कोशिश की कि पिछड़ा आयोग की सिफारिशें पेश किये जाने के बाद विधानसभा का अधिवेशन बुलाया जायेगा. लेकिन उनके इस प्रस्ताव को किसी ने भी तवज्जो नहीं दी. इस बीच, मराठों का आंदोलन नौवें दिन में प्रवेश कर गया और राज्य के विभिन्न हिस्सों में कई युवकों ने आत्मदाह का प्रयास किया. इस किस्म की घटनाओं के वीडियो जंगल में आग की तरह फैलाये जा रहे हैं जिससे नाराजगी और हिंसा और अधिक भड़क रही है.

भाजपा नेतृत्व इस समय गहरी दुविधा में है क्योंकि मराठों की आरक्षण की मांग को स्वीकार करने का गहरा असर गुजरात, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक दृष्टि से अहम राज्यों पर पड़ेगा. राजस्थान भी इसके असर से अछूता नहीं रहेगा, जहां अगले कुछ महीनों में विधानसभा के चुनाव होने हैं. पाटीदार समुदाय और इसके युवा नेता हार्दिक पटेल द्वारा आरक्षण की इसी किस्म की मांग अभी भी सिर पर तलवार की तरह लटक रही है और मराठों की मांग को स्वीकार करने का कोई भी कदम प्रधानमंत्री मोदी के गृह - राज्य में अशांति भड़का देगा. आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय के लोग सडकों पर उतरे थे और महाराष्ट्र में मराठों की जीत यहां भी इस मुद्दे को हवा देगी.

फड़नवीस, जिन्हें हमेशा प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष शाह के नुमाइन्दे के तौर पर देखा जाता है और जिनका जमीन पर कोई खास आधार नहीं है, के पास नारायण राणे के अलावा इस किस्म की परिस्थितियों से निपट सकने वाला पार्टी में और कोई नेता नहीं है. नारायण राणे भी व्यापक प्रभाव वाले नेता नहीं माने जाते. राज्य में मराठों को गैर – मराठों से भिड़ाने का भाजपा का प्रयास अभी तक कामयाब नहीं हो पाया है क्योंकि भारी तादाद वाले अन्य पिछड़ी जातियों, दलित और मुसलमान समुदाय के लोग साफ़ तौर पर उनके साथ नहीं हैं. छगन भुजबल और धनंजय मुंडे जैसे पिछड़ी जाति के कद्दावर नेता राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ हैं और भाजपा का इस समुदाय में कोई मजबूत आधार नहीं है. इस समुदाय के लोग शिवसेना के साथ कहीं अधिक गहरे जुड़े हैं. दलित नेता मराठों से वैर लेने के इच्छुक नहीं हैं और वे “भाजपा के जाल” में नहीं फंस रहे हैं.

भाजपा के लिए यह इस स्तर का संकट बन गया है कि अब मुख्यमंत्री फड़नवीस अगले साल लोकसभा चुनावों के साथ होनेवाले विधानसभा चुनावों को आगे नहीं खिसका सकते. यह सही है कि फड़नवीस ने कहा था कि वे लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ कराने के पक्ष में हैं, लेकिन वर्तमान संकट की पृष्ठभूमि में विपक्षी नेताओं का मानना है कि तमाम समुदायों में उथल – पुथल को देखते हुए वे विधानसभा चुनावों को आगे खिसकाने की “हिम्मत” नहीं दिखा सकते.

भीमा – कोरेगांव आंदोलन और कृषि – संकट से परेशान किसानों के मुंबई में धरने ने राज्य सरकार के नाक में दम कर दिया. घबराये फड़नवीस ने किसानों की मांगें झटपट मान तो ली, लेकिन अपने वादों पर अमल नहीं कर पाये. नतीजतन, राज्य के किसान नये सिरे से आंदोलन की राह पर हैं.

फड़नवीस के लिए अगस्त का महीना काफी अहम साबित होने वाला है क्योंकि इस दौरान विभिन्न समस्याओं से पीड़ित समूहों के कई प्रदर्शन होने वाले हैं. विपक्षी दलों के सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री को लोगों की जोरदार नाराजगी और आक्रोश का सामना करना पड़ेगा. शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबंधन में रहते हुए विपक्षी दलों के नजरिये का समर्थन कर भाजपा को अलग – थलग करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है. और इस तरह से वह फड़नवीस के एक मजबूत आलोचक के रूप में उभरी है. सरकार को खतरे में डालने वाले मुद्दों को सलटने में मुख्यमंत्री को अपने सहयोगी दल से कोई मदद नहीं मिल रही. राज्य सरकार को अगस्त में महाराष्ट्र बंद का भी सामना करना होगा.