आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्रों तथा इसी संस्थान से जुड़े छात्रों, शोधार्थियों, शिक्षकों एवं कर्मचारियों के एक समूह ने एक बयान जारी कर अपने पूर्वर्ती साथी और प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज के अलावा वेरनन गोंसाल्वेस, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वरवर राव जैसे बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी की कड़ी निंदा की है. बयान पर हस्ताक्षर करने वाले लोगों ने इन बुद्धिजीवियों की तत्काल और बिना शर्त रिहाई की मांग भी की है. पेश है उनका बयान :

हम, आईआईटी कानपुर के पूर्व छात्रों तथा इसी संस्थान से जुड़े छात्रों, शोधार्थियों, शिक्षकों, कर्मचारियों एवं अन्य सामुदायिक सदस्यों के एक समूह, आईआईटी कानपुर की पूर्व छात्रा सुधा भारद्वाज (इंटीग्रेटेड एम.एससी, गणित, 1979 -1984) एवं वेरनन गोंसाल्वेस, अरुण फरेरा, गौतम नवलखा और वरवर राव जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की कड़ी निंदा करते हैं. हम आनंद तेलतुम्बडे, के. सत्यनारायण और स्टन स्वामी आदि के घरों पर छापेमारी की भी घोर आलोचना करते हैं.

ये गिरफ्तारियां और कुछ नहीं बल्कि देशभर में सामाजिक कार्यकर्ताओं, प्रख्यात लेखकों, प्रोफेसरों, पत्रकारों एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को धमकाने और गिरफ्तार करने की चल रही कवायद की एक अगली कड़ी जान पड़ती है.

सुधा भारद्वाज का अपने कार्यों के जरिए हाशिए के लोगों के प्रति समर्पित रहने का पिछले तीस वर्षों का एक लंबा सार्वजनिक इतिहास है. उन्होंने आईआईटी कानपुर के गणित विभाग से स्नातक और फिर स्नातकोतर की पढाई 1984 में पूरी की. छात्र जीवन से ही सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक रहने वाली सुधा 1986 में छत्तीसगढ़ के औद्योगिक एवं खनन वाले क्षेत्रों में सक्रिय एक मजदूर संगठन के साथ जुड़कर काम करने छत्तीसगढ़ चली गयीं.

इसी इलाके में काम करते हुए वो ट्रेड यूनियन की एक नेता और बाद में एक वकील के तौर पर जानी गयीं. उनकी इस लंबी यात्रा को हमलोगों ने एक संक्षिप्त जीवनी रूप में संकलित किया है. यह बिल्कुल साफ़ है कि संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों एवं ढांचे के तहत काम करते हुए उन्होंने खुद को समाज के सबसे कमजोर तबकों के प्रति पूरी तरह समर्पित किया.

उनके खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, जिसके प्रावधान अनावश्यक रूप से कठोर हैं और जो उन्हें लंबे समय तक हिरासत में रखना और जमानत से वंचित करना सुनिश्चित करेगी, के तहत कार्रवाई करना पूरी तरह से कानून एवं सामाजिक क्षेत्र में उनके योगदानों के साथ एक मजाक है. उनके खिलाफ लगाये गये सारे आरोप मनगढंत जान पड़ते हैं. उनके बारे में अभियोजन पक्ष द्वारा जारी किये गये विरोधाभासी सार्वजनिक बयान उतने ही सतही मालूम पड़ते हैं जितनी कि एक सरसरी नजर में मुख्य सबूत के तौर पर पेश की गयी कथित रूप से उनके द्वारा लिखी गयी चिट्ठी. यह बेहद अजीब है कि इन संदिग्ध चिट्ठियों के अलावा और कोई सबूत सामने नहीं है और इन्हें पहले चुनिंदा मीडिया समूहों को लीक किया गया. अभियोजन पक्ष की रूचि मामले की वास्तविक सुनवाई से कहीं ज्यादा “मीडिया ट्रायल” में जान पड़ती है (संदर्भ के लिए हाल के घटनाक्रम के सारांश के लिए यहां देखें : https://scroll.in/article/892850/from-pune-to-paris-how-a-police-investigation-turned-a-dalit-meeting- into-a-maoist-plot ).

तथ्यों के साथ तोड़मरोड़ साफ़ नजर आता है. यह उनकी प्रतिष्ठा धूमिल करने और उनके सरोकारों को बदनाम करने का एक प्रयास लगता है. अन्य लोगों की गिरफ्तारी के संदर्भ में भी यही बात नजर आती है.

वंचितों के साथ खड़े होकर और उनके मुद्दों को अथक वैधानिक व्यवस्था के दायरे में लाकर सुधा भारद्वाज ने समावेशी विकास की धारा, जिसे किसी भी आधुनिक लोकतंत्र का आधार होना चाहिए, को मजबूत ही किया है. इसी लिहाज से, यह महज संयोग नहीं है कि बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, नौकरशाह, शिक्षाविद और आम लोग उनके समर्थन में आए हैं. एक संस्थान, जहां इस प्रतिष्ठित पूर्व छात्रा ने अपना प्रारंभिक जीवन गुजारा, के सदस्य के रूप में हम अपनी आवाज़ उनकी आवाज़ के साथ मिलाते हैं.

हम, अधोहस्ताक्षरी, सुश्री भारद्वाज एवं अन्य गिरफ्तार सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों की तत्काल एवं बिना शर्त रिहाई की मांग करते हैं. हम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा उनकी गिरफ्तारी की परिस्थितियों के बारे में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की मांग भी करते हैं.