प्रिय कैलाश सत्यार्थी जी,

मैं बहुत ही भारी मन से आपको यह पत्र लिख रहा हूं. ‘भारी’ इसलिए नहीं कि मैं उदास हूं, बल्कि विजयादशमी के मौके पर आपके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय के हालिया दौरे के असर के बोझ तले खुद को दबा हुआ पा रहा हूं.आप नोबेल शांति पुरस्कार विजेता हैं और इसलिए, दुनियाभर के शांतिप्रिय लोगों को अनजाने में आपके कार्यों पर अपना अधिकार महसूस होता है. आपको मेरा यह पत्र तथाकथित शांति के संदेशों पर उसी सामूहिक अधिकार के तहत है.

आरएसएस के कार्यक्रम में आपकी उपस्थिति से उस शांति पुरस्कार का निरादर हुआ है, जो आपको मिला है. जरा उस स्थिति की कल्पना कीजिए कि मलाला युसुफजई, जिन्हें आपके साथ ही नोबेल पुरस्कार मिला था, अगर पाकिस्तान में जमात – ए – इस्लामी जैसे संगठन के किसी कार्यक्रम में जातीं? उनके इस कदम से कैसी हलचल मचती? ऐसा करने पर उनका कौन सा चेहरा सामने आता? यहां मैं यह बताना चाहूंगा कि मैं जानबूझकर उन्हें पाकिस्तान में तालिबान के किसी काल्पनिक कार्यक्रम में भी भेजने से बचाना चाहता हूं क्योंकि आरएसएस और तालिबान के बीच किसी किस्म की तुलना सही नहीं होगी. यह एक अलग बात है कि दोनों संगठनों के इरादे एक जैसे ही हैं. पहला जहां हिन्दू – राष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध है, वहीँ दूसरा इस्लामी खलीफा वाली व्यवस्था का पैरोकार है.

चूंकि हम सामूहिक स्मृति – लोप के दौर में जी रहे हैं, यह याद दिलाना उचित होगा कि अपनी उपस्थिति से आपने जिस संगठन को उपकृत किया है उसे भारत सरकार द्वारा तीन बार प्रतिबंधित किया जा चुका है. महात्मा गांधी की हत्या के चार दिन बाद इस संगठन को प्रतिबंधित कर देने वाले सबसे पहले आदेश में इस संगठन के बारे में जिस किस्म की टिप्पणियां दर्ज हैं, वो हम सभी अमनपसंद लोगों की चिंता का विषय का होना चाहिए. उस आदेश में कहा गया, “हमारे देश में सक्रिय नफरत और हिंसा में विश्वास करने वाली शक्तियों, जिसकी वजह से देश की आजादी खतरे में पड़ती है, को उखाड़ फेंकने के लिए ..... भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश के विभिन्न हिस्सों में गैरकानूनी घोषित करने का निर्णय लिया है.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य आगजनी, लूट, डकैती और हत्या समेत हिंसा की गतिविधियों में लिप्त हैं और उन्होंने अवैध हथियार एवं गोला – बारूद इकठ्ठा किया है. वे लोगों को आतंकवादी तरीकों को अपनाने और हथियार इकठ्ठा करने के लिए भड़काने वाले पर्चे वितरित करते पाये गये हैं ..... संघ द्वारा प्रायोजित एवं प्रेरित हिंसा की संस्कृति ने कई जानें लीं हैं.”

सत्यार्थी जी ! मेरा ख्याल है कि आपके साथी पुरस्कार विजेता के देश, पाकिस्तान, में तालिबान को प्रतिबंधित करने वाले किसी आदेश में भी इससे अलग और कोई ध्वनि नहीं निकलेगी. क्या आपको ऐसा नहीं लगता?

मुझे अहिंसा के गांधीवादी दर्शन के प्रति आपकी प्रतिबद्धता के बारे में भी मालूम है.आप हमेशा दुनिया के सामने एक गांधीवादी के तौर पर सामने आये हैं. हालांकि, आप जानबूझकर या अनजाने में राज्य प्रायोजित हिंसा के बारे में बोलने से बचते रहे हैं. मुझे ऐसा कोई वाकया याद नहीं आता जब आपने राज्य द्वारा कश्मीरी बच्चों (जिनमें से अधिकांश कुख्यात रबर की गोलियों से अंधे हुए किशोर हैं) के प्रति बरती गयी निर्दयता की निंदा की हो या छत्तीसगढ़ में नक्सली बताकर आदिवासियों के मारे जाने के खिलाफ कुछ कहा हो. मुझे उम्मीद है कि आप इस बात को शायद समझते होंगे कि किसी आदिवासी के मारे जाने का मतलब किसी बच्चे का अनाथ होना होता है?

लेकिन चिंता की बात यह है कि जिस कार्यक्रम में आप शामिल होकर गदगद थे, उसी में बोलते हुए आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने “शहरी नक्सलियों” के खिलाफ लोगों का आह्वान किया. इस किस्म की शब्दावली अपने – आप में एक समस्या है. लेकिन बदकिस्मती से आज इसका इस्तेमाल उनलोगों के लिए किया जा रहा है, जो अभिव्यक्ति की आजादी, उदारवादी मूल्यों और एक स्वतंत्र एवं समावेशी समाज के पक्ष में आवाज बुलंद करते हैं.मैं निश्चित रूप से नफरत के विचारों से जुड़ी इसी किस्म की शब्दावली के बारे में आपकी राय जानना चाहूंगा. खासकर तब, खुद गांधीजी ने कहा था, “एक इंसान अपने विचारों का नतीजा होता है; वह जो सोचता है, वही बनता है.” कृपया हमें बतायें कि श्री भागवत के बारे में आप क्या सोचते हैं, खासकर उन वक्तव्यों संदर्भ में जो वे लगातार बोल रहे हैं और जैसाकि उन्होंने इस कार्यक्रम में भी कहा? क्या वे अपने विचारों का नतीजा नहीं हैं?

और यह कौन नहीं जानता कि जिस संगठन के कार्यक्रम में आपने बतौर मुख्य अतिथि जाना स्वीकार किया, वह गांधीजी की हत्या में संलग्न रहा है? मैं जानता हूं कि पिछले कुछ सालों में आरएसएस एवं संघ परिवार की ओर से गांधी के हत्यारे, नाथूराम गोडसे, की वैधता को स्वीकार्य बनाने के लिए गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं. लेकिन खुशकिस्मती से, इतिहास के पास अपने पात्रों को पहचानने की क्षमता होती है. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि एक नोबेल शांति पुरस्कार विजेता के दौरे से उनके झूठे दावों को निश्चित (और दुर्भाग्यपूर्ण) रूप सेएक किस्म की विश्वसनीयता हासिल हो जायेगी. मैं समझता हूं कि मुझे यह दोहराने की जरुरत नहीं है कि आपको नोबेल शांति पुरस्कार देने वाली स्वीडिश नोबेल समिति का गांधीजी के बारे में क्या कहना है. वे उन्हें अपना छूट हुआ वाला विजेता कहते हैं और छह बार नामांकन होने के बावजूद उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार देने में खुद को नाकाम मानते हैं.

आरएसएस का आमंत्रण स्वीकार करने से पहले आपको उनकी परंपरा के बारे में सचेत रहता चाहिए था. मुझे मालूम है कि आपके लिए विभिन्न कारणों से इस चिट्ठी में उठाये गये तमाम मुद्दों के बारे में बोलना मुश्किल है और एक नोबेल पुरस्कार विजेता होने के नाते आप सभी मुद्दों पर विचार जाहिर करने के लिए बाध्य भी नहीं हैं. लेकिन आपके द्वारा आरएसएस के किसी कार्यक्रम को वैधता प्रदान करना शांति के विचार के साथ सबसे बड़ा धोखा है. महोदय, शांति एवं इसके संदेशवाहकों को अपना मित्र चुनते वक्त बेहद सतर्क रहना चाहिए.

हम एक ऐसे रोचक दौर में रह रहे हैं जहां समावेशी, न्याय, समानता और शांति के विचार को सत्ता में बैठेलोगों के हिसाब से फिर से परिभाषित किया जा रहा है. हम घेरे के दूसरी ओर बैठे लोगों के साथ साझेदारी न करें. सत्ता में बैठे लोग शांति, जिसका प्रतिनिधित्व करने की जिम्मेदारी आपको दी गयी है, से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो सकते. मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूं कि शांति की विरासत को साझा करने के लिए आप अहिंसा के सबसे बड़े प्रतीक के हत्यारे के मुकाबले कहीं अधिक योग्य और सक्षम ध्वजवाहक चुन सकते थे.आपकी तरह ही शांति पुरस्कार विजेता रहे डोमिनिक पिरेके शब्दों में,बिना जानकारी के कोई कार्य करना मूर्खता है, कार्य किये बिना किसी चीज के बारे में जानना कायरता है.

आपका अपना,

शाह आलम खान

(शाह आलम खान, नयी दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में प्राध्यापक और “मैन विथ द वाइट बियर्ड” के लेखक हैं. )