मध्य प्रदेश में जैसे-जैसे चुनाव मतदान की तारीख नजदीक आती जा रही है, वैसे-वैसे मुकाबला और भी ज्यादा दिलचस्प एवं रोमांचक होता जा रहा है। राज्य में हर चुनाव की तरह इस बार यह चुनाव सिर्फ कांग्रेस पार्टी और बीजेपी के ही बीच सीमित नहीं है, बल्कि कई सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय और चतुष्कोणीय है। प्रदेश की सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारकर जहां बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस और बीजेपी के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है, तो वहीं खुद को अगड़ी और पिछड़ी जातियों का स्वयंभु नुमाइंदा बताने वाले कर्मचारी संगठन ‘सपाक्स’ भी चुनाव में उतरकर इन दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों की नींद हराम किए हुए है। प्रदेश की 21 फीसदी आदिवासी आबादी, जिसके लिए 47 सीटें आरक्षित हैं, इनके वोटों पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) और जय युवा आदिवासी संगठन (जयस) अपनी-अपनी दावेदारी जता रहे हैं। कुछ शहरी सीटों पर आम आदमी पार्टी और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे इलाके में समाजवादी पार्टी भले ही खुद चुनाव न जीतें, लेकिन इन पार्टियों ने कांग्रेस और बीजेपी का खेल जरूर बिगाड़ दिया है। रही सही कसर दोनों पार्टियों के बागियों ने पूरी कर दी है। सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के सबसे ज्यादा 75 बागी उम्मीदवार, चुनाव मैदान में हैं। जिसमें कई मंत्री और विधायक शामिल हैं। पूर्व मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया-दमोह, सरताज सिंह-होशंगाबाद, केएल अग्रवाल-बमौरी से, तो ग्वालियर की पूर्व महापौर समीक्षा गुप्ता अपनी ही पार्टी के प्रत्याशियों के खिलाफ ताल ठोक रही हैं। ऐसे सियासी माहौल में संघ परिवार और बीजेपी पूरा जोर लगा रही है कि मध्य प्रदेश में चौथी बार उसकी ही सरकार बने। दूसरी तरफ सूबे में पन्द्रह साल से सत्ता से दूर कांग्रेस पार्टी भी कोई गलती नहीं करना चाहती। अपनी पुरानी गलतियों से सबक लेते हुए उसने इस बार गंभीर तैयारियां की हैं। चुनाव से कुछ दिन पहले प्रदेश अध्यक्ष का पद अनुभवी कमलनाथ, चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष का पद युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया और पार्टी में आंतरिक समन्वय का जिम्मा पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को सौंप कर, कांग्रेस आलाकमान ने प्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं को संदेश दिया है कि वे एकजुट हो बीजेपी से मुकाबला करें। पहले के मुकाबले इस मर्तबा कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव को गंभीरता से लिया है। क्षेत्रीय क्षत्रपों के हाथों में न सौंपते हुए, इस बार चुनाव प्रचार की कमान उन्होंने खुद संभाल रखी है। वे प्रदेश में पहले से ज्यादा चुनावी सभाएं और रैलियां कर रहे हैं। 28 नवम्बर को जब प्रदेश में वोट डाले जाएंगे, उनकी कोशिश है कि इस तारीख तक वे प्रदेश का हर हिस्सा कवर कर लें। कांग्रेस के पक्ष में एक बात और है, बीजेपी प्रदेश की सŸाा में बीते पन्द्रह साल से है। सरकार से नाराज मतदाता, अब राज्य में बदलाव चाहते हैं। एंटी इंकम्बेंसी का फायदा यदि कांग्रेस ने ठीक ढंग से उठाया, तो उसे सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता।

दरअसल प्रदेश में कांग्रेस के अंदर गुटबाजी का फायदा हमेशा बीजेपी को मिलता रहा है। पार्टी यहां कई गुटों में बंटी हुई है। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, अजय सिंह और अरुण यादव सभी के अपने-अपने गुट हैं। कांग्रेस में गुटबाजी कुछ इस तरह से हावी रहती है कि वह बीजेपी के खिलाफ एकजुट हो मुकाबला कर ही नहीं पाती। प्रदेश में कांग्रेस की वापसी साल 2008 में ही हो जाती, यदि वह यह मुकाबला एकजुटता से लड़ती। एकजुटता के अभाव में कांग्रेस को उस वक्त सिर्फ 71 सीटें ही जीत पाई। साल 2013 विधानसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति और भी ज्यादा खराब हो गई, जब उम्मीदों के बरखिलाफ उसे सिर्फ 57 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। बीजेपी और कांग्रेस के बीच वोटों का अंतर भी बढ़कर 8 फीसदी हो गया। साल 2018 का विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस को जहां इस 8 फीसदी अंतर को पाटना होगा, वहीं उसे यह कोशिश भी करनी होगी कि वह निर्णायक बढ़त बना ले। इसके लिए वह अपनी तरफ से कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही। बीजेपी को कमजोर करने के लिए उसने उसके असंतुष्टों को अपने यहां आसरा दिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के साले संजय मसानी के अलावा पार्टी के चार विधायक इस बार कांग्रेस के टिकिट से चुनाव लड़ रहे हैं। अनुसूचित जाति/जनजाति के वोटरों को लुभाने के लिए भी पार्टी ने विशेष नीति बनाई है। इस वर्ग के लिए प्रदेश में 82 सीटें आरक्षित हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में इन 82 सीटों में से 59 सीटें जीतकर बीजेपी ने कांग्रेस पर निर्णायक बढ़त बनाई थी।

मध्य प्रदेश में आदिवासी वोट हमेशा निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं। राज्य की 230 विधानसभा सीटों में 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा सूबे में ऐसी कई सीटें हैं, जहां आदिवासियों के वोट ही प्रत्याशी की जीत-हार को तय करते हैं। प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद से ही यह वोट हमेशा कांग्रेस को ही मिला है। एक वक्त ऐसा था, जब इन सीटों पर कांगे्रस का एकछत्र राज्य होता था और वे यहां सभी सीटें आसानी से जीतते थे। लेकिन जब से आदिवासी इलाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठन पहुंचे हैं, तब से इन इलाकों में कांग्रेस की सीटें और प्रभाव दोनों ही कम होता चला गया है। एक दौर ऐसा भी आया, जब बीजेपी ने इन सीटों पर अपनी बढ़त कायम कर ली। पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इन 47 सीटों में से 32 सीटें जीतकर कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है। लेकिन अब बीजेपी से दलितों और आदिवासियों दोनों का मोह भंग हो रहा है। एससी/एसटी एक्ट और आरक्षण को लेकर बीजेपी की कलाबाजी से यह दोनों वर्ग उससे खासे नाराज हैं। दलित और आदिवासी वोट यदि कांग्रेस के पास वापिस लौटकर आ गए, तो बाजी पलटने में देर नहीं लगेगी।

जहां तक बीजेपी की चुनाव तैयारियों का सवाल है, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने चुनाव से पहले ही राज्य में ‘जन आशीर्वाद रैली’ निकालकर सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल अपने पक्ष में करना शुरू कर दिया था। सरकारी अमले के अलावा इस काम में उनकी मदद संघ परिवार के सैंकड़ों अनुषांगिक संगठनों ने भी की। जहां तक पार्टी के प्रचार-प्रसार की बात है, इस मामले में बीजेपी सभी पार्टियों से कोसो आगे है। आक्रामक प्रचार-प्रसार में उसने कांग्रेस व दीगर पार्टियों को काफी पीछे छोड़ दिया है। अखबार, रेडियो, टेलीविजन से लेकर सोशल मीडिया तक बीजेपी ही बीजेपी छाई हुई है। प्रदेश के सभी अखबारों में रोज उसके कई पन्नों में विज्ञापन आ रहे हैं। रेडियो सरकार के ‘विकास’ गीत गा रहे हैं। चुनावी साल में किसानों को साधने के लिए सरकार ने बिजली और उर्वरक की आपूर्ति में कोई कमी नहीं की है। ‘भावांतर योजना’ के तहत फसलों के समर्थन मूल्य और बाजार के मूल्य में जो अंतर होता है, उसका भुगतान सरकार ने किसानों को किया है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को अपने पाले में लाने के लिए सरकार ने इस साल 1 अप्रेल से ‘संबल योजना’ लागू की है। जिसमें असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को कई फायदे दिए गए। मसलन मातृ स्वास्थ और बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने के अलावा मृत्यु होने पर चार लाख रूपए का मुआवजा से लेकर उनके बिजली के बिलों को माफ किया गया। बावजूद इसके बीजेपी के लिए यह विधानसभा चुनाव आसान नहीं है।

सरकार और प्रशासनिक मशीनरी में अंदर तक पैठ कर गया भ्रष्टाचार राज्य में एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। बीते पन्द्रह साल में सूबे के अंदर भ्रष्टाचार के कई कीर्तिमान बने हैं। सरकार के कई ताकतवर मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर इल्जाम लगे और इनके खिलाफ लोकायुक्त में भी शिकायतें दर्ज हुई, लेकिन उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। चुनाव प्रचार के दौरान व्यापमं घोटाला, सरकारी विभागों में ई-टेंडरिंग घोटाला, मंदसौर में किसान गोलीकांड, अवैध खनन, बच्चों में कुपोषण और मातृ मृत्यु में बढ़ोतरी, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, अत्याचार एवं कानून व्यवस्था में गिरावट जैसे कई संवेदनशील मुद्दों पर शिवराज सरकार कांग्रेस केे सवालों और आरोपों का जवाब तक नहीं दे पा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अपनी चुनावी सभाओं में कभी कांग्रेस की गुटबाजी पर, तो कभी गांधी परिवार को ही कोसकर मतदाताओं को रिझाने का काम कर रहे हैं। वे अपनी चुनावी सभाओं में वंशवाद पर कड़ा प्रहार करते हैं, लेकिन उन्हीं की पार्टी ने 44 टिकिट नेताओं के परिजनों को दिए हैं। जिसमें 30 नेता पुत्र शामिल हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की झूठी घोषणाएं और वादे अब उन्हीं पर भारी पड़ रहे हैं। राज्य में किसानों, कर्मचारियों, व्यापारियों और नौजवानों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है। प्रदेश की जनता विभिन्न मुद्दों पर सरकार से तीखे सवाल पूछ रही है, तो पिछले पन्द्रह सालों में बीजेपी सरकार ने क्या किया, इसका रिपोर्टकार्ड भी मांग रही है। मध्यप्रदेश, मानव विकास सूचकांक पर काफी पिछड़ गया है। प्रदेश में कानून व्यवस्था का ये आलम है कि महिला, दलित अत्याचारों के मामले में मध्य प्रदेश अव्वल नंबर पर है। देश के दीगर राज्यों की तरह मध्यप्रदेश में भी बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। प्रदेश में 1 करोड़ 28 लाख युवा वोटर हैं। नए रोजगारों के सृजन नहीं होने से यह नौजवान परेशान हैं। ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’, ‘न्यू इंडिया’ जैसी केन्द्र की महत्वाकांक्षी योजनाएं महज लुभावने नारे बनकर रह गई हैं। इन योजनाओं से किसी को कोई फायदा नहीं हुआ है। कहने को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान प्रदेश में पिछले 12 साल से इन्वेस्टर्स मीट कर रहे हैं, लेकिन निवेश की बात करें, तो कुछ खास हाथ नहीं आया है। पहले नोटबंदी, फिर उसके बाद जीएसटी के खराब क्रियान्वयन ने राज्य में छोटे से लेकर बड़े कारोबारियों की कमर तोड़कर रख दी है। पूरा प्रदेश कर्ज से डूबा हुआ है। हालत यह है कि प्रदेश के हर नागरिक पर 35 हजार रूपए का कर्ज है। राज्य के कुल राजस्व का 87 फीसदी हिस्सा कर्मचारियों की तनख्वाह, पेंशन और ब्याज भुगतान पर ही खर्च हो जाता है।

शिवराज सरकार, इस बात के लिए भले ही इतराये कि उसे भारत सरकार का प्रतिष्ठित ‘कृषि कर्मण पुरस्कार’ लगातार पांचवीं बार मिला है। लेकिन इस बात को भी कोई नकार नहीं सकता कि पिछले चैहदह सालों में यहां पन्द्रह हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने चुनावी घोषणा पत्र में बीजेपी ने किसानों से वादा किया था कि वह सत्ता में आई, तो किसानों के कर्ज माफी और उनकी उपज का समर्थन मूल्य, लागत से दोगुना कर देगी। केन्द्र में मोदी सरकार को पांच साल होने को आए, मगर सरकार ने न तो अपना वादा निभाया और न ही किसानों की कोई सुध ली। जाहिर है किसानों की यह नाराजगी भी प्रदेश में बीजेपी को भारी पड़ सकती है। कल तक चुनाव में बेहतर दिख रही बीजेपी अब पिछड़कर कांग्रेस के बराबर आ गई है। यानी राज्य में मुकाबला कांटे का है और तराजू का पलड़ा किसी भी तरफ झुक सकता है। पूरे राज्य से जिस तरह के राजनीतिक रुझान सामने आ रहे हैं, उससे एक बात साफ है कि इस बार बीजेपी के लिए सत्ता में वापसी आसां काम नहीं। कांग्रेस थोड़ा दम और लगाए, तो मध्य प्रदेश में सत्ता से उसका वनवास खत्म हो सकता है।