हिन्दुओं के श्रेष्ठतावादी संगठनों का एक हिस्सा, एक बार फिर अयोध्या में उसी स्थान पर राममंदिर बनाने के लिए लामबंद हो रहा है, जहाँ बाबरी मस्जिद स्थित थी और जिसे 6 दिसम्बर 1992 को ढहा दिया गया था। भड़काऊ भाषण दिए जा रहे हैं और धमकियाँ भी। मीडिया भी श्रेष्ठतावादी संगठनों के इस दावे को प्रचारित कर रहा कि अगर मंदिर तुरंत नहीं बनाया गया तो सभी हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी। श्रेष्ठतावादी हिन्दुओं को राममंदिर की याद चुनावों के समय ही आती है।

इस सिलसिले में ज्यादातर भाषणों में हिन्दुओं को भड़काने के लिए यह कहा जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय, हिन्दुओं की भावनाओं की अवहेलना कर रहा है और उनके प्रति असंवेदनशील है - यहाँ तक कि वह उनके साथ भेदभाव कर रहा है। तर्क यह दिया जा रहा है कि जब उच्चतम न्यायालय याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के आदेश के विरुद्ध याचिका की सुनवाई 3 बजे रात तक कर सकता है, तब फिर अयोध्या प्रकरण की सुनवाई जल्द क्यों नहीं हो सकती। यह सही है कि उच्चतम न्यायालय ने 30 जुलाई 2015 को याकूब की याचिका की सुनवाई 3 बजे रात तक की थी। इसका कारण यह था कि उसी दिन सुबह उसे फांसी पर चढ़ाया जाना था और सुनवाई स्थगित करने का अर्थ होता, फांसी पर रोक लगाना। दूसरी ओर, अगर उसकी सुनवाई नहीं की जाती तो न्यायालय पर समुचित न्याय नहीं करने का आरोप लगता। अतः, इस आरोप का कोई आधार नहीं है कि उच्चतम न्यायालय के पास हिन्दुओं की बात सुनने के लिए वक्त ही नहीं है। अयोध्या और आतंकवादी याकूब मेमन के मामलों की तुलना नहीं की जा सकती।

हिन्दू श्रेष्ठतावादी संगठनों द्वारा जो कुछ कहा जा रहा है, उससे न्यायपालिका की गरिमा को क्षति पहुंच रही है। यह एक तरह से न्यायालय को धमकाने की कोशिश है। इसके बाद भी, यह सब कहने वालों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय स्वतः संज्ञान लेकर अदालत की अवमानना का प्रकरण क्यों दर्ज नहीं कर रहा है, यह विचारणीय प्रश्न है।

हिन्दू श्रेष्ठतावादी जानते-बूझते बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि प्रकरण के मूल मुद्दे को तोड़-मरोड़ रहे हैं। इस प्रकरण में मूल मुद्दा यह है कि 2.77 एकड़ भूमि के जिस टुकड़े पर बाबरी मस्जिद स्थित थी, उस भूमि और उस पर निर्मित ढांचे का कानूनी मालिक कौन है। परन्तु राजनैतिक कलाबाजियों के चलते, मूल मुद्दा यह बन गया है कि क्या हिन्दू विवादित भूमि को भगवान राम का जन्मस्थल मानते हैं और क्या मुग़ल बादशाह बाबर के आदेश पर इस स्थान पर बने राममंदिर को तोड़ कर वहां मस्जिद बनाई गयी थी।

हिन्दू श्रेष्ठतावादी ज़मीन पर मालिकाना हक के प्रकरण को आस्था का प्रश्न बना रहे हैं। उनका तर्क यह है कि हिन्दुओं की यह आस्था है कि उस स्थान पर राम का जन्म हुआ था और इस आस्था को सर्वोच्च महत्व दिया जाना चाहिए। क़ानून चाहे कुछ भी कहता हो, ज़मीन के इस टुकड़े को राममंदिर के निर्माण के लिए उन्हें सौंप दिया जाना चाहिए। उनका यह तर्क भी है कि चूँकि बाबरी मस्जिद में मुसलमानों ने 1949 के बाद कभी नमाज़ पढ़ी ही नहीं है, इसलिए वह एक मस्जिद नहीं थी। उनका यह भी कहना है कि मुसलमान किसी भी स्थान पर नमाज़ पढ़ सकते हैं और मस्जिद, इस्लाम का आवश्यक और अविभाज्य हिस्सा नहीं है। कुछ का तो यह भी तर्क है कि चूँकि मस्जिद, इस्लाम के सिद्धांतों के विरुद्ध, मंदिर को गिरा कर बनाई गयी थी इसलिए वह कभी मस्जिद थी ही नहीं। बहरहाल, इन सभी मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय को देश के कानून के अनुरूप निर्णय लेना है।

विवाद मंदिर-मस्जिद का नहीं है

यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या का मसला मुस्लिम और हिन्दू समुदायों के बीच का विवाद है। परन्तु ऐसा नहीं है। सच तो यह है कि हिन्दू श्रेष्ठतावादी उसे ऐसा रंग देना चाहते हैं। अगर यह दो समुदायों के बीच का विवाद बन जायेगा तो हिन्दुओं के संख्याबल और सत्ता केन्द्रों पर इस समुदाय के उच्च वर्ग के बोलबाले के चलते, हिन्दू श्रेष्ठतावादियों की जीत सुनिश्चित होगी। दरअसल, राममंदिर हिन्दू श्रेष्ठतावादियों की ‘आस्था’ और उनके शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक बन गया है। न तो सभी हिन्दू रामभक्त हैं और ना ही सभी रामभक्त यह चाहते हैं कि विवादित स्थल पर ही राममंदिर बने।

यद्यपि इस प्रश्न कि क्या हिन्दुओं की यह आस्था है कि उसी स्थान पर भगवान राम का जन्म हुआ था, का उत्तर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाँ में दिया था परन्तु माननीय न्यायालय के समक्ष इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए पर्याप्त आधार नहीं थे। न तो इस सिलसिले में कोई जनमत संग्रह हुआ था और ना ही कोई सर्वेक्षण। शायद हिन्दू श्रेष्ठतावादियों की लामबंदी और मीडिया के रुख के कारण न्यायालय इस निर्णय पर पहुंचा। दक्षिण भारत में राममंदिर और भगवान राम का जन्मस्थान, उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उत्तर भारत में। मेहनतकश वर्गों और जातियों को इससे कोई मतलब नहीं है कि राम कहां पैदा हुए थे, यद्यपि वे राम में असीम श्रद्धा रखते हैं। दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने तो अपना नाम ही रावण रख लिया है।

सन 1985 के पहले तक, यदि कोई यह पूछता कि भगवान राम का जन्म कहाँ हुआ था, तो अधिकांश हिन्दू, जिनमें अयोध्या में रहने वाले हिन्दू भी शामिल हैं, शायद ही किसी निश्चित स्थल की ओर संकेत कर पाते। अधिकांश हिन्दू शायद यही कहते कि भगवान राम का जन्म अयोध्या में हुआ था। अयोध्या में ऐसे कम से कम 14 मंदिर हैं, जिनके बारे में यह कहा जाता है कि वे रामजन्मभूमि मंदिर थे। इन सभी के स्थान पर दूसरे मंदिर बन गए हैं। भगवान राम के जन्मस्थान को एक निश्चित स्थान पर होने के ’आस्था’ का स्त्रोत राजनैतिक अभियान हैं, जिन्हें मीडिया ने भरपूर प्रचार दिया।

आस्था को तथ्यों और कानून के ऊपर स्थान देना धार्मिक नहीं, बल्कि राजनैतिक एजेंडा है। किसी एक समुदाय की आस्था को दूसरे समुदाय की आस्था से अधिक महत्व देना और इससे भी आगे बढ़कर, उसे कानून और तथ्यों के ऊपर मानना - यह केवल एक धार्मिक राज्य में हो सकता है, प्रजातांत्रिक देश में नहीं, जहां सभी धर्मों, उनकी आस्थाओं और मान्यताओं को, शांति व सद्भाव व सभी व्यक्तियों की समानता, स्वतन्त्रता और गरिमा के अधीन रहते हुए, बराबर महत्व दिया जाता है।

भोले-भाले हिंदुओं को इकट्ठा कर उनके जरिये राज्य पर इस बात के लिए दबाव बनाना कि वह आस्था के नाम पर ज़मीन का वह टुकड़ा हिन्दू श्रेष्ठतावादियों को सौंप दे, दरअसल, एक राजनैतिक परियोजना है, जो प्रजातन्त्र के लिए अत्यंत घातक सिद्ध होगी। राममंदिर बनाने से ज्यादा, हिन्दू श्रेष्ठतावादियों की रुचि उस प्रजातांत्रिक ढांचे को तहस-नहस करने में है, जो उचित प्रतिबंधों के अधीन सभी धर्मों को बराबरी का स्थान देता है। यही कारण है कि सभी हिन्दू श्रेष्ठतावादी संगठन, जिनमें विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू महासभा, धर्मसभा और शिवसेना शामिल हैं, इस लामबंदी और शक्ति प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं। इस समय उनके निशाने पर सर्वोच्च न्यायालय है क्योंकि उन्हें डर है कि वह आस्था नहीं बल्कि कानून और न्याय के आधार पर अपना निर्णय सुनाएगा। उनकी मांग यह है कि संसद को एक विधेयक पारित कर भूमि के पूरे टुकड़े, जिस पर बाबरी मस्जिद थी, को राम मंदिर के निर्माण के लिए दे दिया चाहिए। बाबरी मस्जिद के मलबे पर राममंदिर का निर्माण, दरअसल, हिन्दू राष्ट्र की नींव रखना होगा - उस हिन्दू राष्ट्र की जो हिन्दू समुदाय के श्रेष्ठि वर्ग को विशेषाधिकार देगा और जो लोग हिन्दुत्व की राजनैतिक विचारधारा में विश्वास नहीं रखते, उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देगा। इन नागरिकों को कोई अधिकार नहीं होंगें।

इसलिए, विवाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नहीं है। इस विवाद में एक पक्ष उन लोगों का है जो भारत को एक प्रजातांत्रिक, विविधवर्णी और उदारवादी देश के रूप में देखना चाहते हैं - एक ऐसे देश के रूप में जो सभी धर्मों के लोगों सहित तार्किकतावादियों और नास्तिकों को बराबर सम्मान दे, जो सभी व्यक्तियों की गरिमा की रक्षा करे और समानता का पक्षधर हो। दूसरा पक्ष उन लोगों का है जो भारत को एकसार समाज बनाना चाहते हैं जिसमें राज्य यह तक तय करेगा कि कोई क्या खाए और क्या पहने, जहां धर्म के आधार पर भेदभाव होगा और जहां समुदाय यह तय करेगा कि कौन किससे विवाह कर सकता है और किससे नहीं। वह ऐसा देश होगा जिसमें सच वही होगा जिसे श्रेष्ठिवर्ग सच बताएगा। ऐसा देश हिन्दू धर्म की कबीर, रविदास, मीराबाई, चोखा मेला, नरसी मेहता, श्रीनारायण गुरू, स्वामी विवेकानंद, गुरूनानक और बुद्ध आदि की व्याख्या के विरूद्ध होगा।

मुसलमानों को बाबरी मस्जिद विवाद का निराकरण उच्चतम न्यायालय और उन हिन्दुओं पर छोड़ देना चाहिए जो उपरोक्त संतों के अनुयायी हैं। आज यह अधिक महत्वपूर्ण है कि हम संविधान की रक्षा करें और समावेशी और विविधवर्णी भारत के निर्माण के लिए प्रयास करें जहां सभी नागरिकों को बराबर अधिकार हों, विचार और अभिव्यक्ति की आजादी हो और सामाजिक न्याय भी। समस्या यह है कि धार्मिक नेता और राजनैतिक श्रेष्ठि वर्ग भी ऐसे भारत को पसंद नहीं करता जो पूरी तरह से प्रजातांत्रिक हो और संविधान का सम्मान करे। धार्मिक नेता - चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान - अपनी आस्थाओं को संविधान और कानून के ऊपर रखना चाहते हैं। यही कारण है कि उन्होंने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल कर तीन तलाक की प्रथा का समर्थन किया, सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘सेटेनिक वर्सेज‘ पर प्रतिबंध लगाने की मांग की और शाहबानो मामले में न्यायालय के फैसले के खिलाफ लामबंद हुए।

तथ्य यह है कि रामजन्मभूमि मंदिर के ताले खोलने और भव्य राममंदिर के निर्माण की मांग ने तभी जोर पकड़ा जब धार्मिक नेताओं ने राजीव गांधी सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर दिया कि वह संसद से कानून पारित करवाकर शाहबानो मामले में शीर्ष न्यायालय के निर्णय को पलट दे।

मुस्लिम समुदाय और उसके राजनेता, बाबरी विवाद पर कुछ नहीं कह रहे हैं। यह बिल्कुल उचित है। वे न तो हिन्दू श्रेष्ठतावादियों के आगे झुक रहे हैं और ना ही रामजन्मभूमि मंदिर के निर्माण का खुलकर विरोध कर रहे हैं। वे लगातार यह कह रहे हैं कि इस मामले को वे उच्चतम न्यायालय के विवेक पर छोड़ते हैं। हिन्दू श्रेष्ठतावादी केवल मुठ्ठी भर छुटभैये मुस्लिम नेताओं को अपने खेल में भागीदार बनाने में कामयाब हुए हैं।

मुस्लिम समुदाय को दुनियावी शिक्षा पर जोर देने की जरूरत है जैसा कि सर सैय्यद ने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में किया था। शिक्षा हासिल करने से समुदाय के सदस्य प्रशासनिक सेवाओं और अन्य महत्वपूर्ण पेशों स्थान बना सकेंगे। मुस्लिम समुदाय को परिपक्व बुद्धिजीवी नेतृत्व की जरूरत है और यह नेतृत्व केवल शिक्षित वर्ग उसे उपलब्ध करवा सकता है।

समुदाय के राजनैतिक नेतृत्व के लिए यह ज़रूरी है कि वह सुरक्षा और साम्प्रदायिक हिंसा जैसे मुद्दों पर ध्यान दे। वह यह सुनिश्चित करे कि मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव न हो और अगर हो तो उसका निराकरण संवैधानिक तरीकों से किया जाए। यह करने के लिए मुसलमानों के राजनैतिक नेतृत्व को हाशिए पर पड़े अन्य वर्गों के साथ गठजोड़ करना पड़ेगा जो इसी तरह के भेदभाव, दमन और हिंसा का सामना कर रहे हैं। ऐसे गठजोड़ न तो अवसरवादी होने चाहिए और ना ही उनका उद्धेष्य राजनैतिक सत्ता प्राप्त करना होना चाहिए। बल्कि उनका लक्ष्य मजबूत प्रजातांत्रिक संस्थाओं का निर्माण होना चाहिए जो सभी नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा करें, प्रजातंत्र को मजबूत बनाएं और नागरिकों के प्रति जवाबदेह हों।

समुदाय के राजनैतिक, बौद्धिक और धार्मिक नेतृत्व को चाहिए कि वह पारिवारिक कानूनों में इस तरह के बदलाव करे जो इस्लाम के सिद्धांतों के अनुरूप और संवैधानिक चहारदीवारी के भीतर हों। मुस्लिम धार्मिक नेतृत्व हर तरह के सुधारों का विरोध करता आया है। ऐसा तब भी जब कई इस्लामिक राष्ट्रों में इस तरह के सुधार हो चुके हैं। ये सुधार ऐसे होने चाहिए जिनसे महिलाओं की समानता सुनिश्चित हो सके।

अगर मुस्लिम समुदाय यह सब करेगा तो इससे निश्चित रूप से हिन्दू श्रेष्ठतावादी कमजोर होंगे। आज बाबरी मस्जिद से अधिक मुसलमानों को प्रजातांत्रिक भारत, शिक्षित भारत, विविधवर्णी भारत और लैंगिक न्याय करने वाले भारत की जरूरत है।