हाल के किसान आंदोलनों से उत्साहित पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश के सब्जी उगाने वाले छोटे एवं सीमान्त किसान जल्द ही राज्य सरकार के साथ होने वाले एक भिड़ंत के लिए खुद को एकजुट कर रहे हैं. ये किसान उनकी दुर्दशा को नजरअंदाज करने और उन्हें बर्बादी के कगार पर धकेलने वाले गंभीर समस्याओं को हल करने में कोई रूचि नहीं दिखाये जाने से राज्य सरकार से नाराज हैं.

अन्य राज्यों की तरह हिमाचली समाज की सबसे बड़ी समस्या यह बन गयी है कि वहां का युवा पीढ़ी खेती के पेशे को अपनाने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है. सरकारी क्षेत्र में नौकरियों के अकाल और कम तनख्वाह और नियमों की धज्जियां उड़ाने के संदर्भ में निजी क्षेत्र द्वारा किये जाने वाले शोषण की वजह से उनका भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है.

किसानों का कहना है कि बगैर किसी खास सरकारी सहायता के पिछले कुछ दशकों से उन्होंने हिमाचल को देश का “सब्जियों का कटोरा” बनाने के लिए कठिन मेहनत की है. लेकिन उनकी बढ़ती दुर्दशा के मद्देनजर अब समय आ गया है कि सरकार इसमें अपेक्षित हस्तक्षेप कर स्थिति में सुधार लाये.

आल इंडिया किसान सभा के नेता कुलदीप सिंह तंवर ने कहा, “कुल 78, 000 हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले जमीन के छोटे – छोटे टुकड़ों में इन किसानों ने लगभग 16.9 लाख मीट्रिक टन सब्जियां उगाई हैं. कृषि संकट के वर्तमान दौर में, ये किसान अपने इस प्रदर्शन को जारी रख सकते हैं बशर्ते उनके लिए एक उपयुक्त व्यवस्था मौजूद हो. लेकिन इस बारे में सरकार के पास न तो कोई रचनात्मक उपाय है और न ही किसानों की मदद करने में उसकी कोई रूचि है.”

किसानों का कहना है कि चूंकि वे साल में विभिन्न सब्जियों की दो फसलें पैदा करने में सक्षम हैं, लिहाजा वे पैदावार खराब होने या दामों के गिरने की स्थिति में भी खुद को बचा सकने में सक्षम हो सकते हैं. उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत तमाम राजनेताओं के बड़े – बड़े दावों से नाराजगी है. श्री मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले सब्जियों, दूध एवं फूलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का वादा किया था.

पिछले सप्ताह सोलन के घट्टी गांव में किसानों के दो – दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए श्री तंवर ने कहा, “आज जब दोनों जगह - केंद्र एवं राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है, इस बारे में कोई बात नहीं की जा रही है.” इस सम्मेलन में पांच जिलों के 14 प्रखंडों के किसानों ने भाग लिया.

उन्होंने ध्यान दिलाया कि किसानों को बार – बार थोड़े अंतराल पर अपने फसलों के दामों में गिरावट का सामना करना पड़ता है. यह बात “लाल सोने का शहर” के नाम से मशहूर सोलन के टमाटर किसानों के लिए जितना सही है, उतना ही सिरमौर के लहसुन और कांगड़ा के आलू उपजाने वाले किसानों के लिए भी सही है. लागत के बराबर भी दाम न मिल पाने की स्थिति में, किसानों का दावा है कि कांगड़ा में उन्हें मजबूरन अपनी फसलों को वापस खेतों में फेंक देना पड़ा.

अपनी सब्जियों के पैदावार के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा, किसान सरकार से यह चाहते हैं कि वह खाद्य प्रसंस्करण उद्योग लगाये जहां उनसे खरीदे गये फसलों का इस्तेमाल विभिन्न उत्पादों को तैयार करने में हो सके. वे इस बात की याद दिलाते हैं कि कई दशकों से टमाटरों के अथाह उत्पादन के बावजूद सोलन में अभी तक कोई खाद्य प्रसंस्करण उद्योग नहीं है जहां टमाटर से केचप जैसे बुनियादी उत्पाद तैयार किये जा सकते हैं.

वे अपनी फसलों के लिए भंडारण की सुविधा भी चाहते हैं, जहां वे अपनी फसलों को संतोषजनक दाम मिलने तक कुछ दिनों के लिए रख सकें. जल्द खराब हो जाने की वजह से फिलहाल वे अपनी फसलों को तुरंत ही बेच देने और अक्सर मंडी में कमीशन एजेंटो की ठगी का शिकार होने लिए मजबूर हैं.

श्री तंवर ने पूछा, “अगर सरकार सौर घेराबंदी पर 50 करोड़ रूपए और राज्यपाल के शून्य – बजट वाली कृषि के विचार को प्रचारित करने में 25 करोड़ रूपए खर्च कर सकती है, तो क्या वह 100 करोड़ रूपए खर्च कर शीत – भंडारगृह (कोल्ड स्टोरेज) की सुविधा नहीं विकसित कर सकती?”

राज्यपाल आचार्य देवव्रत “शून्य – बजट वाली कृषि” अपनाने की बात जोर – शोर से कर रहे हैं, जिसकी व्यावहारिकता को लेकर बड़े पैमाने पर सवालिया निशान खड़े किये गये हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि यह संभव नहीं क्योंकि जैव – खेती तक में लागत और मजदूरी का मूल्य संलग्न है.

किसानों की एक अन्य मांग दूध के भंडारण की सुविधा मुहैया कराने की है. उनका कहना है कि कई बार उन्हें पानी से भी सस्ता दूध बेचना पड़ता है.

स्वाभाविक रूप से फसलों की बिक्री और मंडियों में कमीशन एजेंटो की ठगी का मुद्दा तो है ही.

किसान फसलों को बर्बाद करने वाले जंगली सूअरों एवं बंदरों के आतंक से छुटकारा दिलाने में असफल रहने के लिए भी सरकार से नाराज हैं. उन्हें वर्तमान भाजपा सरकार और पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकार द्वारा ठगे जाने का अहसास हो रहा है, जिन्होंने दो साल की उस अवधि का सही इस्तेमाल नहीं किया जब केंद्र सरकार ने बंदरों को इस राज्य के लिए एक समस्या मानते हुए उनसे छुटकारा पाने की अनुमति देने का एलान किया था.

किसान सभा के एक अन्य नेता, सत्यवान पुंडीर ने कहा, “इस मामले में सरकार की तरफ से किसी किस्म की गंभीरता नहीं दिखायी गयी और छूट की दो – साल की अवधि यूं ही बेकार चली गयी. सरकारों की इसमें कोई रूचि नहीं थी क्योंकि यहां कुछ निवेश का भी मसला था.”

किसान कर्ज माफ़ी के खिलाफ दक्षिणपंथी धड़ों द्वारा अभियान चलाये जाने को लेकर भी नाराज हैं. उन्होंने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि कृषि के लिए ऋण जहां राज्य के जरिए दिया जाता है, वहीँ औद्योगिक ऋण सीधे बैंकों के जरिए दिए जाते हैं. किसानों को जहां ऋण अदायगी में देर होने पर धमकाया जाता है, वहीँ उद्योगपतियों की देनदारियों को आसानी से खराब कर्ज (नॉन – परफार्मिंग एसेट) करार देकर छुट्टी पा ली जाती है.