आम चुनावों से पहले के सबसे गूढ़ रहस्यों में से एक यह है कि घर और चौके से बाहर सीमांत किसानों को गाय परेशान कर रही है. मशीनीकरण और गोहत्या पर प्रतिबंध ने गरीब किसानों को गहराई से प्रभावित किया है. एक अनुत्पादक गाय के देखभाल का भारी – भरकम खर्च उन्हें इन निरीह जानवरों को सडकों पर खुला छोड़ देने के लिए मजबूर कर रहा है. भूखे सांड और गाय अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कस्बों एवं गांवों की गलियों और खेतों को रौंद रहे हैं. भूख से बिलबिलाते ये जानवर गेहूं की फसलों और खाने की हर चीज़ पर टूट पड़ रहे हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक विपक्षी नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि किसान पहले से ही गन्ने की कम कीमत मिलने से परेशान हैं और अब “गाय उनकी गेहूं और अन्य फसलों को खा रही है”. उन्होंने कहा कि इससे किसानों पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है. उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि भूखी एवं अनुत्पादक गायों की इस नयी समस्या से कैसे निपटा जाये.

एक समय भाजपा के साथ रहे जाट नेता और किसान सोमपाल शास्त्री ने द सिटिज़न को बताया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाय “प्रत्येक किसान के लिए एक समस्या” बन गयी है. उन्होंने बताया कि सीमांत किसानों के पास अनुत्पादक गायों को पालने और उन्हें खिलाने के लिए पैसा नहीं है और उनके पास इन्हें खुला छोड़ देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति के लिए मशीनीकरण और गोहत्या पर प्रतिबंध बुनियादी तौर पर जिम्मेदार हैं. श्री शास्त्री ने कहा कि यहां पर्याप्त मात्रा में गौशाला नहीं हैं और विकराल रूप लेती इस समस्या से साबका पड़ने पर सरकार अपने हाथ जोड़ ले रही है. एक अनुत्पादक गाय के रख – रखाव के लिए एक गरीब किसान को तकरीबन 4,500 रूपए खर्च करने होते हैं, जिसे वहन करना उनके वश में नहीं है. गरीब किसान कुल कृषक वर्ग का 87 प्रतिशत हिस्सा है. कर्ज और फसलों की कम कीमत के बोझ तले दबे किसानों पर अब उनअनुत्पादक गायों का भी भार आ गया है, जो उनकी फसलों को खत्म कर उनकी दुर्दशा के चक्र को पूरा कर रही हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक जाट नेता ने कहा कि गायें अब राज्य में भाजपा के वोटों को खा रहीं हैं. किसान अपने जानवरों को भूख से बिलबिलातेतथा दर्दनाक मौत का शिकार होते और अनुत्पादक जानवरों द्वारा फसलों को रौंदे जाते देखने को लाचार है.

सूत्रों ने बताया कि इस मसले पर हरियाणा एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी द्वारा अध्ययन किये तो गये हैं, लेकिन उन्हें जारी नहीं किया गया है. लिहाजा, अनुत्पादक गायों की कुल संख्या अभी सार्वजनिक नहीं है.लेकिन अगर सोमपाल शास्त्री की माने, तो खासकर उत्तरी राज्यों के किसानों का दिल दहलाने के लिए यह आंकड़ा काफी बड़ा है. वर्ष 2012 के एक आंकड़े के मुताबिक, खुली घूमती गायों की संख्या तकरीबन 50 लाख थी. इसमें उन बूढ़ी गायों को नहीं शामिल किया गया है, जो गलियों में घूमने में असमर्थ हैं. कुछ विशेषज्ञों ने इस संख्या को साढ़े तीन करोड़ के आसपास बताया. अब इसमें उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है.

बहुत अरसा नहीं बीता जब गौशालाओं में मरी या मरती हुई गायों की चंद तस्वीरें मीडिया में आईं थीं. राजस्थान में एक गौशाला के मालिक ने द सिटिज़न को बताया था किसरकार की ओर से उन्हें अनुत्पादक गायों के रख – रखाव के लिए धन उपलब्ध कराने का वादा किया गया था. लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं दिया गया. उन्होंने कहा, “मेरे पास उन गायों की देखभाल और चारे के लिए पैसे नहीं हैं. लिहाज़ा मुझसे क्या उम्मीद की जानी चाहिए?”

इसकी पुष्टि करते हुए श्री शास्त्री ने बताया कि शुरू में कुछ धार्मिक प्रवृति के लोगों ने गौशालाओं के लिए दान दिए. लेकिन दिनोंदिन जानवरों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह धन नाकाफी था. “किसानों के पास पैसे नहीं हैं और इन जानवरों की देखभाल उनपर एक बड़ा बोझ है.”

गोहत्या विरोधी दस्तों ने संगठित एवं लक्षित हमलों के माध्यम से ‘काऊ बेल्ट’ कहे जाने वाले राज्यों – हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और खासकर उत्तर प्रदेश– डर फैलाने में सफल रहे. इन राज्यों में भूखे जानवरों के मुद्दे ने संकट का रूप ले लिया है. यही वजह है कि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व वाली नयी सरकार ने राज्य में गौशाला के निर्माण का वादा किया है और इस पर काम भी चालू होने की ख़बर है. लेकिन सूत्रों का कहना है, “यह पर्याप्त नहीं होगा. अनुत्पादक जानवरों की बढ़ती संख्या को देखते हुए इस पर होने वाला खर्च भी विकराल होगा.”

इस समस्या की वजह से दुधारू गायों की कीमतों में भी गिरावट आई है और यह 40 – 50 हजार रूपए से गिरकर 18 हजार रूपए प्रति गाय रह गयी है. लिहाज़ा डेरी किसानों की आय पर बुरा प्रभाव पड़ा है.

उत्तर प्रदेश के विपक्षी दलों के सूत्रों ने बताया कि राज्य के पश्चिमी हिस्सों में जाट किसान “पूरी तरह से भाजपा और वर्तमान सरकार के खिलाफ एकजुट हो गये हैं”. उनके लिए यह उनके जीविका का प्रश्न है, न कि सांप्रदायिकता का. कैराना उपचुनाव, जिसमें भाजपा की हार हुई थी, का उदाहरण देते हुए सूत्रों ने बताया किविभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द्र फिर से बहालहो गया है.

इलाके में सांप्रदायिक विभाजन के ढीले पड़ने की बात समझाते हुए सूत्रों ने बताया, “उक्त चुनाव गर्मी और रमज़ान के मौसम में हुआ था. जब मुसलमान महिलाएं कुएं पर पानी भरने आईं, तो जाट महिलाएं ‘पहले आप’ कहते हुए एक किनारे खड़ी हो गईं. इसकी ख़बर पूरे इलाके में जंगल में आग की तरह फैली.” उनका कहना है कि “जेब” मसले पर मतदाता अब एकजुट हैं.

सूत्रों ने पूछा, “बिजली की दरों में ढाई गुणा बढ़ोतरी हो गयी, नियमों के मुताबिक एनसीआर क्षेत्र में ट्रेक्टरों को 10 साल में बेचना होगा, गन्ने की कीमत भी बेहद कम है, गाय गेहूं खा जा रही है, ऐसे में गरीब किसान जिंदा कैसे बचेगा?”

उन्होंने आगे जोड़ा, “यह खालिस जीविका का सवाल है और अपने तमाम वादों के बावजूद भाजपा किसानों को जीविका के ठोस साधन मुहैया कराने में अक्षम रही.”